अनास्था ही रुग्णता का मुख्य कारण

June 1983

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डा. व्हिक्टर ई. फ्रेन्कल अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त मनः चिकित्सक हैं। वे वियेना विश्वविद्यालय में चिकित्सा विभाग में मानसिक रोगों के प्राध्यापक हैं। मनोवैज्ञानिक क्षेत्र में विशेष अध्ययन, लम्बे अनुभव एवं रोगियों पर किये गये शोध कार्य के उपरान्त उन्होंने जो महत्वपूर्ण तथ्य बताये, वे ध्यान देने योग्य हैं। अपनी प्रख्यात पुस्तक ‘दी डाक्टर एण्ड दी सोल’ में वे लिखते हैं कि “रोगी की दवा देने एवं रोगों के निवारण के असंख्यों प्रकार की दवाओं के निर्माण की अपेक्षा आवश्यकता इस बात की है कि जीवन के आध्यात्मिक मूल्यों को समझा जाय- महत्व एवं लक्ष्य को बताया जाय- आदर्शों एवं सिद्धान्तों को उपयोगिता से अवगत कराया जाय। रोगी का स्थायी इलाज कर सकना तभी सम्भव है।”

वे आगे लिखते हैं कि “अनास्था की विकृतियों के निवारण में मनोवैज्ञानिकों की पहुँच नहीं है। इसके लिए आस्था सम्पन्न, आध्यात्मिकता के साकार स्वरूप, धर्म को जीवन में धारण करने वाले पुरोहितों की आवश्यकता है। अन्तः मर्मस्थल तक पहुँचकर अनास्था की जड़ें उखाड़ सकना तो आस्थावान चिकित्सकों द्वारा ही सम्भव है।”

पश्चिमी जगत का उदाहरण देते हुए फिर कहते हैं कि “यहाँ का मनुष्य ऐसी बहुत-सी समस्याओं को जो उसे धार्मिक पुरोहित के समक्ष रखना चाहिए, न रखकर, डाक्टर के पास रखता है। फलस्वरूप डाक्टर अन्तः के मूल कारणों से अनभिज्ञ होने के कारण निदान नहीं कर पाता। शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक स्तर पर दिया गया समाधान उपयोगी नहीं सिद्ध हो पाता।” चिकित्सकों एवं मनोवैज्ञानिकों के समक्ष इस प्रकार अब आस्था का एक नवीन आयाम आ खड़ा हुआ है, जिसका निदान इनके पास नहीं हैं।

आस्था की विकृतियों का निष्कासन एवं आध्यात्मिक मूल्यों के प्रति निष्ठा उत्पन्न कर सकना शरीर शास्त्रियों एवं मनोवैज्ञानिकों द्वारा नहीं आत्मिक क्षेत्र में पहुँचा हुआ व्यक्ति ही कर सकता है। डा. फ्रैंकल के अनुसार “श्रेष्ठताओं, आदर्शों एवं सिद्धान्तों के प्रति निष्ठा न होना ही वस्तुतः सभी समस्याओं एवं विविध प्रकार के मनोविक्षोभों का कारण है। इसके लिए आवश्यकता इसकी है कि मानव जीवन के महत्व एवं उसके लक्ष्य से मनुष्य को अवगत कराया जाय।”

डा. फ्रेंकल का कहना है कि “आज मनोवैज्ञानिक चिकित्सा प्रणाली में जीवन मूल्यों से सम्बन्धित प्रश्नों का कोई स्थान नहीं है, क्योंकि इन प्रश्नों को भी वह मनःक्षेत्र में समाहित मानता है। इस प्रकार मानसिक चिकित्सक आध्यात्मिक मूल्यों की उपेक्षा करके महत्वपूर्ण आधार को छोड़ बैठता है”

जिस सीमा तक मनोवैज्ञानिक इलाज सफल होते हैं उनके कारण भी आध्यात्मिक तत्व ही होते हैं। मनो चिकित्सक रोगी के मन की दबी परतों को उधेड़ता, विश्लेषण करता, तत्पश्चात् निदान बतलाता है? ये निदान वस्तुतः आध्यात्मिक सिद्धान्तों पर ही अवलम्बित होते हैं। उनको निकाल दिया जाय तो मानसिक चिकित्सा प्रणाली सफल नहीं हो सकेगी। इस दृष्टि से डा. फ्रेंकल ने मनःचिकित्सकों को न केवल चिकित्सा प्रणाली वरन् अपने जीवन क्षेत्र में भी आध्यात्मिक सिद्धान्तों को अपनाने की प्रेरणा दी है। समुचित एवं स्थायी निदान वही चिकित्सक कर सकता है जिसने जीवन के महत्व एवं उद्देश्य को समझ लिया हो? चिकित्सक को मन ही नहीं आत्मा को केन्द्र बिन्दु मानकर चिकित्सा आरम्भ करना चाहिए।

आज मनुष्यों में अधिकाँश की चिन्तन प्रणाली निषेधात्मक है। मनोविकारों का बाहुल्य उनके चिन्तन में देखा जा सकता है। फलस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति अर्धविक्षिप्त बना किसी प्रकार अपने जीवन के दिन पूरे कर रहा है। मानसिक व्याधियों की इतनी बहुलता पहले कभी नहीं देखी गई थी। निस्संदेह असन्तुलित मनःस्थिति समस्त आधि-व्याधियों की जननी है।

विकारों से युक्त मन अनेकों प्रकार की मानसिक बीमारियों को जन्म देता है। इसका उल्लेख न भी किया जाय, तो भी मन का प्रभाव शारीरिक स्वास्थ्य पर क्या पड़ता है? इसका अध्ययन किया जाय तो आश्चर्यजनक परिणाम सामने आयेंगे।

इस संदर्भ में ‘जर्मन’ के कुछ वैज्ञानिकों के शोध का उल्लेख करना उपयुक्त होगा। उन्होंने संसार के प्रमुख व्यवसाइयों एवं महत्वपूर्ण व्यक्तियों के मृत्यु के कारणों का पता लगाया। जो परिणाम सामने आये वे चौका देने वाले हैं। आंकड़ों के अनुसार उन प्रमुख व्यक्तियों में अधिकाँश की मृत्यु स्नायु-रोगों के कारण हुई। मानसिक तनाव के कारण- ‘वेगस नर्व’ की क्रियाशीलता बढ़ जाने से हृदय की गति कम हो जाती है। ‘वेगसनर्व’ पैरासिम्पैथैटिक सिस्टम का एक भाग है, जो हृदय की गति को प्रभावित करती है।

उक्त वैज्ञानिकों के अनुसार क्रोधित अवस्था में शरीर में गुर्दे के ऊपर अवस्थित ‘एड्रीनल’ ग्रन्थि से एड्रीनेलीन नामक अंतःस्राव होता है जो हृदय की गति को सिम्पैथेटिक प्रक्रिया को बढ़ा देता है। गति अधिक बढ़ जाने से मृत्यु तक हो सकती है। मानसिक उद्वेगों का शारीरिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है। किए गये एक सर्वेक्षण के अनुसार एक महत्वपूर्ण तथ्य और भी प्रकट हुआ कि तनाव की स्थिति में काम करने वाले तथा घृणा, भय, क्रोध आदि मानसिक आवेगों के मध्य रहने वाले लोग नाड़ी- मण्डलीय, अजीर्ण, पेट की एसिडिटी आदि रोगों से ग्रस्त होते हैं। तनाव से ‘इरीटेवल कोलोन सिन्ड्रोम’ एवं ‘इसोफोजियलस्पेज्म’ नामक रोग उत्पन्न होते हैं। पाश्चात्य देशों में तनाव की स्थिति अधिक है इस कारण बड़ी आँत की बीमारी जिसे ‘अल्सरेटिव कोलाइटाएज’ कहते हैं, बढ़ती जा रही है। इसमें रोगी को रक्त से युक्त दस्त बारम्बार होने लगते हैं। “प्रोक्टेल्जिया फ्यूगैक्स” नामक रोग भी मानसिक उद्वेगों के कारण उत्पन्न होता है। गुदा में जोरों का दर्द होना इसका प्रमुख लक्षण है।

न केवल मानसिक बिमारियों वरन् अधिकाँश शारीरिक रोगों का कारण मन की विकृतियाँ हैं। शरीर के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े होने तथा नियन्त्रण करने के कारण मन की विचारणा उसमें से उठने वाले क्रोध, ईर्ष्या के आवेगों का प्रभाव शरीर के विभिन्न संस्थानों पर पड़ता है। फलस्वरूप शरीर के सूक्ष्म संस्थान, जिन पर शारीरिक स्वास्थ्य निर्भर रहता है, सही प्रकार से कार्य नहीं कर पाते। संसार में बढ़ते हुए अनेक प्रकार के रोग इस बात के प्रमाण हैं कि मानसिक दृष्टि से मनुष्य अब असन्तुलित होता जा रहा है।

इस दयनीय स्थिति से मानव जाति को उबारने के लिए उन उपचारों को ही अपनाना होगा जो मन को शांति प्रदान करते हों, सन्तुलित रखते हों। शारीरिक रोगों के निवारण के लिए अस्थायी किए जाने वाले निदानों की अपेक्षा उन आधारों को ढूँढ़ना होगा जो स्थायी समाधान स्तुत करते हों। यह उपचार प्रणाली शारीरिक स्तर पर नहीं, मानसिक स्तर पर ही विकसित करनी होगी।

शारीरिक स्वास्थ्य का केन्द्र बिन्दु मन की उपेक्षा से ही असन्तुलन की स्थिति में पहुँचता है। होना यह चाहिए था कि मानसिक शोधन एवं मन के विकास के लिए चिकित्सा जगत में प्रयत्न चलते। जबकि इसकी अवहेलना हुई। शरीर स्तर पर ही वैज्ञानिक शोध की प्रक्रिया चलती रही। उसे सँवारने, स्वस्थ रखने के सारे सरंजाम खड़े किये गये। इस प्रक्रिया में भूल यह हुई कि स्वास्थ्य एवं विकास की जड़ें सींचने के संदर्भ में मन की जड़ें सींचने की उपेक्षा हुई। पत्तों (शरीर) को सींचने, निरोग रखने का प्रयास हुआ। फलस्वरूप असफलता हाथ लगी। इन प्रयत्नों में जितने रोगों के उपचार हुए, उनसे कई गुना अधिक नये रोग उठ खड़े हुए।

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक फ्रायड के अनुसार “मनुष्य को शारीरिक समस्याओं का बोध रहता है। जबकि उनका केन्द्र बिन्दु मन है। यदि किसी प्रकार उसे बोध करा दिया जाय कि समस्याओं, विकारों की जड़ मन में है न कि तन में और मन से यह भ्रान्ति निकाल दी जाय कि वस्तुतः कोई समस्या नहीं है, तो शारीरिक समस्याओं, रोगों आदि से अपने आप छुटकारा पाया जा सकता है।”

मनोविज्ञान का क्षेत्र जैसे-जैसे बढ़ता जा रहा है। इस तथ्य को स्वीकार किया जा रहा है कि मानसिक स्वास्थ्य पर शरीर का सन्तुलन बना रह सकता है। आज के मूर्धन्य चिकित्सक भी इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि रोगों में 80 प्रतिशत रोग मनौदेहिक हैं। फलस्वरूप रोगों से मुक्ति पाने का जो आवेश चिकित्सा जगत में दवाओं के माध्यम से चला था, वह कम होता रहा है। चिकित्सक अब वह प्रणाली ढूँढ़ने में तत्पर हैं, जो मन को स्वस्थ एवं सन्तुलित रखती है।

अमेरिका के ‘केन्सास’ नगर में ‘मेन्निन्जर फाउण्डेशन’ नामक संस्था है। उक्त संस्था के संचालक डा. इल्मरेग्रीन अपनी पत्नी सहित पिछले 17 वर्षों से ऐसी उपचार पद्धति को ढूँढ़ने में संलग्न हैं, जो रोगी के मन को सुदृढ़, स्वस्थ बनाती हो। उन्होंने अपने ‘बायोफिड बैक’ सम्बन्धित शोध में प्रायः सुप्त आरोनामिक नर्वस सिस्टम के कार्यों में ‘बायोफिडबैक’ मशीन के प्रयोग से चेतन पर नियन्त्रण प्राप्त करने की विधि खोज निकाली। अब तो यह विधि बड़े पैमाने पर पाश्चात्य जगत में प्रयुक्त की जा रही है।

गिरते हुए स्वास्थ्य की समस्या औषधि उपचार से काबू में नहीं आ रही है। बढ़ते हुए मानसिक रोगों के लिए अनिद्रा और तनाव पर नियन्त्रण करने के प्रयास में मनःशास्त्री सफल नहीं हो पा रहे हैं। सच्ची स्वास्थ्य रक्षा का एक ही उपाय है कि अनास्था के निबिड़ दलदल में फँसी हुई मनुष्यता को उठाया जाय और उसे स्नेह सदाचार, सहयोग की रीति-नीति अपनाने के लिए सहमत किया जाय। आरोग्य और सन्तोष इसी आधार के अवलम्बन में सम्भव हो सकेगा।


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