लोक मान्यता किसी ऊँचे या नीचे सुन्दर क्षेत्र में बसे स्थान पर स्वर्ग नरक अवस्थित होने की है। स्वर्ग को ऊपर आकाश में और नरक को नीचे पाताल में माना जाता है। इस संदर्भ में अंतरिक्षीय जाँच-पड़ताल करने से निराशा उत्पन्न होती है और अविश्वास बढ़ता है। अभी तक किसी ऐसे ग्रह नक्षत्र का पता नहीं चला है जिनमें स्वर्ग नरक में दर्शाई गई परिस्थितियाँ उपलब्ध होने की सम्भावना हो। फिर पूरे लोक में एक ही तरह की परिस्थितियाँ हों। वहाँ दूसरे प्रकार का कुछ होता ही नहीं। ऐसी भी कुछ सहज समझने योग्य नहीं है। जो सुविधाएँ या प्रताड़नाएँ वहाँ मिलती हैं वे प्रायः वैसी ही हैं जैसी कि अपनी धरती पर उपलब्ध होने वाली साधन सामग्री के द्वारा सम्भव है। जहाँ इतनी सामग्री रहती हो भी निश्चित ही उसका वातावरण भी धरती जैसा ही होना चाहिए। यदि वे लोक सूक्ष्म होते तो फिर वह पदार्थजन्य सुख-दुख न होकर मात्र मानसिक भाव सम्वेदनाओं से सम्बन्धित होने चाहिए थे। किन्तु वर्णनों में तो वहाँ कष्टकारक एवं सुविधादायक पदार्थ परक साधनों का ही वर्णन है। ऐसी दशा में किसी विचारशील का असमंजस घटता नहीं बढ़ता ही है।
तो क्या स्वर्ग नरक की मान्यता गलत है। ऐसा भी नहीं कहना चाहिए। कर्मफल की मान्यता किसी न किसी रूप में प्रत्येक दर्शन ने स्वीकार की है। विज्ञान भी इसी आधार पर शारीरिक, मानसिक उत्थान पतन की बात मानता है। ऐसी दशा में मूल तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि दुष्ट कर्मों का प्रतिफल दुःख और सत्कर्मों की परिणति सुख के रूप में होनी चाहिए। प्रश्न केवल इतना भर रह जाता है कि वे दुःख और सुख किस प्रकार की अनुभूति देते ओर किन साधनों की सहायता से, किन के माध्यम से उपलब्ध होते हैं। पौराणिक गाथाओं में किन्हीं साधन सम्पन्न लोकों में स्वर्ग नरक होने की मान्यता है। यमदूत या देवदूत उन दण्ड उपहारों का प्रबन्ध करते हैं और हाड़-माँस जैसा शरीर रहने पर ही उन प्रताड़नाओं या सुविधाओं का अनुभव हो सकना सम्भव है। यहाँ फिर वही असमंजस सामने आता है कि मरने के उपरांत मात्र वायुभूत आत्म सत्ता शेष रहती है तो उसके द्वारा प्रत्यक्ष शरीर के लिए ही जिनकी अनुभूति सम्भव है उनका तारतम्य किस प्रकार बैठता होगा। वायुभूत शरीर किस प्रकार सुविधा असुविधाओं से प्रवाहित होता होगा?
समझा जाना चाहिए कि अनुकूलता, प्रतिकूलता- सुविधा, असुविधा- खिन्नता, प्रसन्नता हर स्थिति में उपलब्ध हो सकती है। वायुभूत शरीर के साथ भी तो मन, बुद्धि, चित्त अहंकार का अन्तःकरण चतुष्ट्य रहता है। अनुभूतियों का संस्थान वही है। यह मरने के बाद भी बना रहता है। इन्द्रियाँ भर स्थूल शरीर के साथ समाप्त होती है। मरण के उपरान्त भी रूप, रस, गन्ध, स्पर्श की तन्मात्राएँ आत्मा के साथ गुँथी रहती हैं। ऐसी स्थिति में परलोक में, जितने समय तक जहाँ भी रहा जाय वहाँ दुःख सुख की अनुभूतियाँ कर्मानुसार उपलब्ध होने में कोई अड़चन नहीं होनी चाहिए।
पीड़ाएँ शरीर की ही नहीं होती, मन की भी होती हैं। प्रसन्नता शरीर की ही नहीं मन की भी होती है। सच तो यह है कि शरीर तो वाहन मात्र है जो कुछ भी सुख दुख अनुभव होता है उसे मनःक्षेत्र में सम्पन्न होने वाली स्थिति ही कहना चाहिए। जब औषधि से कोई अंग विशेष या समूचा मस्तिष्क संज्ञा शून्य कर दिया जाता है तो फाड़-चीर होते रहने पर भी कष्ट नहीं होता किन्तु जैसे ही चेतना लौट आती है, फिर अनुभूतियाँ होने लगती हैं। यह मन ही सुख-दुःख का अनुभव करता है। शरीर तो उस अनुभूति का एक सामान्य-सा उपकरण मात्र है। उसके न रहने पर भी मरणोत्तर जीवन में भली-बुरी अनुभूतियों में कोई कठिनाई नहीं रहती।
चित्रगुप्त द्वारा परलोक में दण्ड पुरस्कार की व्यवस्था करने का वर्णन आता है। यह चित्रगुप्त, अपना ही गुप्त चित्र- अचेतन मन है। इसमें अन्यान्य कृत्य करते रहने के लिए यह विशेषता भी है कि क्रिया की प्रतिक्रिया उत्पन्न करके स्वसंचालित पद्धति के अनुसार दण्ड पुरस्कार की व्यवस्था भी करता रहे। हम स्वयं ही आग छूते और स्वयं ही जलन अनुभव करते हैं। विष खाते और मरते हैं। विद्या पढ़ते और श्रेय पाते हैं। कुकर्म करते और आत्म प्रताड़ना भुगतते हैं। इसके लिए किसी अन्य मध्यस्थ की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसी प्रकार शुभ-अशुभ कर्मों का भला-बुरा, प्रतिफल पाने के लिए अपने भीतर ही ऐसा तन्त्र विद्यमान है जो समुचित दण्ड पुरस्कार की व्यवस्था करता रहे। देर सवेर में जीवित स्थिति में भी यह प्रतिफल प्राप्त होते हैं और मरणोत्तर जीवन में भी वहाँ की परिस्थितियों के अनुसार ऐसी व्यवस्था हो सकती है जिसमें कि पाप पुण्य के फलस्वरूप उपलब्ध होने वाली प्रतिक्रियाओं की बुरी-भली अनुभूति का कोई न कोई क्रम चलता रहे।
स्वर्ग नरक की मूल स्थापना कर्मफल की सुनिश्चितता प्रकट करने के लिए की गई है। वर्णन के साथ जुड़े हुए घटनाक्रमों में जो विसंगतियां हैं उन पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं। यह धर्म दर्शन के प्रवक्ताओं ने सामान्य जनों को उनकी अभ्यस्त अनुभूतियों का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए निर्धारित की है। जिन देशों में- जिन क्षेत्रों में, जिन समुदायों में सुख दुःख की अनुभूति जिस स्तर की होती है, जिन माध्यमों से होती है, उन्हीं को स्मरण दिलाते हुए, स्वर्ग नरक का वर्णन किया गया है। यही कारण है कि संसार के विभिन्न भागों में इस संदर्भ में जो वर्णन किये गये हैं उनके बीच अन्तर पाया जाता है। इतने पर भी मूल तथ्य जहाँ का तहाँ रहता है। अशुभ कर्मों का फल दुःखदायक और सत्कर्मों की प्रतिक्रिया सुख सन्तोष से भरी-पूरी होनी चाहिए यह स्थापना हर दृष्टि से सही है। इस विश्वास के उपरान्त स्वर्ग नरक के चित्र विचित्र वर्णन भी कोई असमंजस उत्पन्न नहीं करते वरन् स्थानीय परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाने की उन प्रतिपादनकर्ताओं की सूझ-बूझ की प्रशंसा ही करते हैं।
स्वर्ग और नरक में कैसी परिस्थितियाँ हैं, इस सम्बन्ध में विभिन्न देशों ओर क्षेत्रों में विभिन्न मान्यताएँ प्रचलित हैं। इसका कारण वहाँ की स्थानीय परिस्थितियाँ, भावनाएँ और अनुभूतियाँ ही प्रधान कारण है। अन्यथा यह विवेचन वास्तविक होता तो मान्यताएँ सभी जगह की एक जैसी होनी चाहिए सूरज चन्द्रमा आदि की आकृतियाँ तथा विशेषताएँ संसार भर में एक जैसी दीखती हैं। बादल सभी जगह एक जैसे बरसते हैं, बिजली की चमक कड़क भी वैसी ही होती है। बुखार, खाँसी, दमा आदि रोगों की अनुभूति भी एक जैसी लगती है। जन्म और मरण के समय की अनुभूतियों में भी कोई अन्तर नहीं होता ऐसी दशा में स्वर्ग नरक भी यदि वास्तविकता पर आधारित होते तो उनके सम्बन्ध में भी जानकारों ने एक ही तरह के विवरण प्रस्तुत किये होते। किन्तु देखा जाता है कि धर्म सम्प्रदायों ने इस संदर्भ में एक दूसरे से भिन्न प्रकार के विवरण प्रस्तुत किये हैं।
स्वर्ग को सुख का और नरक को दुःख का स्थान माना गया है, पर वे सुख दुःख किस प्रकार के हैं। किनके द्वारा दिये जाते हैं इस विषय की मान्यताओं में काफी अन्तर पाया जाता है।
ठण्डे देशों के नरक अत्यधिक ठण्डे हैं और गर्म देशों के आग उगलते हुए। कारण कि उन देशों में ऋतु प्रभाव की कठिनाई का सामना एक दूसरे से विपरीत स्तर का करना पड़ता है। इसलिए जहाँ जिस प्रकार के कष्ट अधिक भोगने पड़ते हैं, उन्हीं की बढ़ी-चढ़ी मात्रा नरक की स्थिति मानली जाती है। स्वर्ग के सम्बन्ध में भी यही बात है। जहाँ के लोग जिस प्रकार की वस्तुओं का अभाव अनुभव करते हैं, जिनके लिए लालायित रहते हैं उनको बाहुल्य की कल्पना करके ऐसे स्थानों का निर्धारण किया गया है जहाँ वे विपुल परिमाण में निरन्तर उपलब्ध रहती हैं। स्वर्ग इसी का नाम है। जिस प्रकार नरक की पीड़ाएँ विभिन्न क्षेत्रों, समुदायों में भिन्न-भिन्न प्रकार का मानी गई है उसी प्रकार स्वर्ग की साधन सामग्री, तथा परिस्थिति में भी भारी अन्तर देखा जाता है। एकता एक ही बात में है कि नरक में दुःख और स्वर्ग में सुख की अनुभूति होती है।
श्रीमद्भागवत में 28 नरकों का वर्णन है जो पृथ्वी से नीचे किन्तु पानी के ऊपर हैं। गरुड़ पुराण में नरकों का इतना विस्तृत वर्णन है मानों उनमें किसी समूचे ग्रह नक्षत्र जितना बड़ा क्षेत्र हो और उसका असंख्यों कर्मचारी उसी उत्पीड़न प्रक्रिया में निरत रहते हों। हिन्दू धर्मानुयायी दक्षिण दिशा में नरक बताते हैं किन्तु पारसियों का उत्तर में है। मुसलमानों को दोजख में आग की लपटें उठती रहती हैं जबकि ईसाइयों के यमदूत त्रिशूल धारी दानवों के रूप में मार-काट मचाते रहते हैं। पाश्चात्य देशों को परलोक मान्यताओं का चित्रण करने वाले परिचय ग्रन्थ ‘स्पोकेलिरस ऑफ मीटर’ में उत्पीड़न के नृशंस निर्धारणों का उल्लेख है। उसमें जीभ को रस्सी से बाँधकर लटकाये जाने जैसे वीभत्स वर्णन हैं दात्ते के नरक में मात्र दस घर हैं इन्हीं से निकल-निकलकर पैने सींगों वाले यमदूत आते हैं और दिन भर खून खख्चर करके रात को घर लौट जाते हैं। होमर के दुर्गन्ध भरे भयानक अन्धकार वाले क्षेत्र को नरक बताया है। जापानियों के नरक में बारह बिरादरी के घिनौने प्राणियों की भरमार है, यूनानियों की ‘स्टिक्स’ नदी, हिन्दुओं को वैतरणी के समान ही सड़े पानी और काटने वाले कीड़ों से भरी है। अन्तर इतना ही है कि हिन्दुओं को गाय की पूँछ पकड़कर पार होने की सुविधा है और यूनानियों के मुर्दे जितना पैसा मरते समय मुँह में दाव कर ले जाते हैं उतने ही टैक्स से घटिया जलपान प्राप्त करते हैं। दोनों ही मान्यताओं में वह गौ या मुर्दे के मुँह की राशि पुरोहितों के घर पहुँचती है। “सार्त्र” के “हुइस क्लाकर्स” ग्रन्थ में नरक को एक पिंजड़ा बताया है जिसमें हिलने-डुलने की बहुत कम जगह है। एक स्थान पर उन्होंने दो औरतें रखने वाले मर्द की विपन्नता का नरक से उपमा दी है।
स्वर्ग के सम्बन्ध में एक मत इतना ही है कि वहाँ सुख साधनों की कमी नहीं, पर वे साधन है किस प्रकार के इस सम्बन्ध में ऐसे वर्णन हैं जो एक दूसरे से तालमेल नहीं खाते। यूनानी भी ईसाइयों की तरह ही सात स्वर्ग मानते हैं। मुसलमानों का खुदा भी सबसे ऊँचे स्वर्ग सातवें आसमान पर अवस्थित है। प्रायः प्रशान्त महासागर की सीध में बहुत ऊँचाई पर यूनानियों का स्वर्ग है जिसमें हिन्दुओं के नन्दन वन जैसा मीठे फलों वाला एक विशाल एवं रमणीक उद्यान है। स्कैण्डेनेविया का एस गार्ड विशाल भवन ही स्वर्ग है। इस महल के 450 दरवाजे हैं। चीनियों का ‘यांग’ सुनहरे प्रकाश और सुख सुविधाओं से भरा-पूरा है। जापान के स्वर्ग में स्वर्ण पर्वत पर भगवान बुद्ध भव्य कमलासन पर विराजमान है। चारों ओर सन्त विराजमान हैं। स्वर्ग यात्री भी उन्हीं की पंक्ति में जा बैठता है और ज्ञानामृत का पान करता है। वेदकाल की मान्यताओं में कामधेनु गौ और कल्प वृक्ष के माध्यम से स्वर्ग पथ व्यक्ति सभी अभीष्ट सुविधाएँ प्राप्त करते हैं।
मध्यकाल में सामन्ती विलासिता ने युद्धोन्माद को जन्म दिया था। इसके लिए कटने काटने वाले योद्धाओं की आवश्यकता पड़ती थी। उन्हें लूट-पाट में हिस्सा और मोटा वेतन तो मिलता ही था, पर इसके अतिरिक्त स्वर्ग में उन सुविधाओं का बाहुल्य भी दरसाना पड़ता था जिनके लिए वे लालायित रहते हैं। ऐसे प्रलोभनों में धन सम्पदा के उपरान्त कामुकता की तृप्ति ही बड़ा आकर्षण रह जाता है। स्थानीय लड़ाइयों में भी यह योद्धा लोग न केवल धन लूटते थे वरन् जहाँ भी कामुकता की तृप्ति का अवसर आकर्षण देखते वहाँ उसका बेरोक-टोक लाभ उठाते। बलात्कार और अपहरण की उन्हें छूट थी। यह छूट स्वर्ग में और भी बढ़े-चढ़े रूप में होनी चाहिए। इसलिए युद्ध में मरने वालों को उस आकर्षण का पूरा-पूरा लालच दिखाया गया है। इन्द्रलोक में परियों की भरमार है जो वीर गति पाने वाले सभी योद्धाओं की मनोकामना पूर्ण करने के लिए हर घड़ी उत्सुक आतुर रहती हैं। सत्तारों का मिलना और शराब की नहर से हर घड़ी सुरापान करने का चित्रण भी उसी मनोवृत्ति का परिचायक है। गीता में ‘हतो वा प्राप्स्य से स्वर्ग’ का उल्लेख उसी मान्यता के अनुरूप है कि युद्ध में मरने वाले स्वर्ग सुख की निरन्तर उपलब्ध करते हैं। इसके लिए यह आवश्यक नहीं कि इस प्रकार मरने वाले का पक्ष नीति युक्त ही हो।
मरने के बाद किसी स्थान विशेष में पहुँच कर सुख दुःख की उपलब्धि के सम्बन्ध में आस्तिक परामनोविज्ञानवादियों का मत है कि लम्बे समय तक दिन रात श्रम संलग्न रहने के उपरान्त मृतात्मा को कुछ समय विश्राम की आवश्यकता पड़ती है। श्रम के साथ विश्राम का अविच्छिन्न सम्बन्ध है। एक के बिना दूसरे की गति नहीं। दिन रात की तरह यह चक्र सर्वत्र चलता है। जन्म और मरण के मध्य भी कुछ ऐसा ही अवकाश समय मिलता है जैसा कि सरकारी कर्मचारियों की बदली होते समय कुछ समय का अवकाश मिलने का अवसर रहता है। मृतात्मा अनन्त अन्तरिक्ष में अपनी भार हीन स्थिति में किसी अनुकूल स्थान पर गहरी तन्द्रा में चला जाता है और प्रगाढ़ निद्रा में विश्राम लाभ करता है। इस अवधि में उसे भले-बुरे स्वप्न भी आते हैं। दैनिक जीवन में भी निद्रा सर्वथा स्वप्न रहित नहीं होती उसका प्रायः आधा समय स्वप्नावस्था में व्यतीत होता है। उद्विग्न दिनचर्या में निरत रहने वालों के सपने भी भयानक एवं असन्तोषजनक होते हैं जबकि शान्त और प्रसन्न दिनचर्या बिताने वालों के सपने भी सुरुचि और प्रसन्नता के माध्यम बनते हैं। ठीक इसी प्रकार मृतात्मा को मरणोत्तर जीवन के विश्राम काल में ऐसी भली-बुरी अनुभूतियाँ होती हैं जिन्हें स्वर्ग या नरक कहा जा सके। अचेतन मन जिस प्रकार अपनी संचित कुत्साओं, कुण्ठाओं का निराकरण स्वप्न के माध्यम से करते हुए चेतना पर चढ़ा हुआ भार हलका करता है उसी प्रकार मरणोत्तर काल की विश्राम बेला में भी ऐसी स्वप्न शृंखला चलती रहती है जिसमें भली या बुरी- सुखद कष्टकारक अनुभूतियों का अवसर मिलता रहे। परामनोविज्ञानियों में से जो आस्तिक स्तर के हैं वे इस संदर्भ में अपना प्रतिपादन इसी रूप में प्रस्तुत करते हैं।
प्रत्यक्षवादियों ने पूर्व जन्म के भले-बुरे कर्मों का प्रतिफल जन्मजात अपंगताओं एवं प्रतिभाओं के रूप में प्रतिपादित किया है। वे कहते हैं कि कितने ही लोग अपने जन्मकाल से ही कुछ असामान्य प्रकृति साथ लेकर आते हैं। इनमें विलक्षण मेधावानों के कलाकारों के उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं। जो बिना प्रशिक्षण एवं वातावरण के भी ऐसा प्रतिभा का परिचय देने लगे जिनकी प्रस्तुत परिस्थितियों के साथ कोई संगति नहीं बैठती। वंशानुक्रम, सुविधा साधन, सहयोग, अवसर आदि के आधार पर ही आमतौर से किसी की विशेष प्रतिभा या प्रगति का तारतम्य जोड़ा जाता है। पर जहाँ ऐसा कुछ भी न हो किन्तु बचपन से ही अनोखापन दृष्टिगोचर होने लगे तो यही कहना पड़ता है कि पूर्व संचित पुण्य या सुसंस्कार अनायास ही फलित होने लगे।
नरक के सम्बन्ध में भी इस क्षेत्र का प्रतिपादन यही है। कुछ बालक जन्म से ही अपंग, असमर्थ, मूढ़मति एवं कुसंस्कारी होते हैं। यह उन्हें वहाँ से नहीं मिली होती जहाँ कि वे जन्मे। वैसी विपन्नता का कोई प्रत्यक्ष कारण दृष्टिगोचर न होने पर यही मानकर सन्तोष करना पड़ता है कि यह पूर्व जन्मों के शुभ-अशुभ संस्कारों की जन्मजात प्रतिक्रिया है।
मनोविज्ञानी इस प्रसंग में प्रत्यक्ष उदाहरण मनोविकारों की शारीरिक और मानसिक सभ्यता की परिणित के रूप में कर्मफल का प्रतिपादन करते हैं और इसी को हाथों-हाथ मिलने वाला स्वर्ग नरक बताते हैं।