मनुष्य में एक विलक्षण विद्युत शक्ति है जिसे ओजस् कहते हैं। इसी को प्राण भी कहते हैं। उसका ध्रुव स्थान कुण्डलिनी केन्द्र में है, जिसे मूलाधार भी कहते हैं। इसकी स्थिति तो सुषुम्ना क्षेत्र के अन्तरंग गह्वर में है, पर उसका दृश्य प्रतीक जननेन्द्रिय के रूप में दृष्टिगोचर होता है। इस क्षेत्र में जब उत्तेजना उत्पन्न होती है तो सारा मनःसंस्थान उन्माद जैसी स्थिति में जा पहुँचता है। कामोन्माद की चर्चा तक उत्तेजक होती है और ऐसा आवेश उत्पन्न करती है जिसमें प्राणी विवेक से विमुख होकर कृत्य अकृत्य कुछ भी करने पर उतारू हो जाता है। इस आवेश का समाधान ढूँढ़ने के लिए ही प्रायः विवाह किया जाता है। यद्यपि सभी जानते हैं कि इस बन्धन में बँधने के उपरान्त इतने उत्तरदायित्व सिर पर लदते हैं जिनको ढोते-ढोते समूची जिन्दगी खप चले।
प्राण विद्युत यों समूचे शरीर में संव्याप्त है और उसके सूत्र संचालन का कार्य मनःसंस्थान द्वारा होता है। तो भी उसका उद्गम जननेन्द्रिय क्षेत्र को ही माना गया है। अध्यात्म भाषा से उसे सुषुम्ना मूल, कुण्डलिनी केन्द्र, मूलाधारचक्र आदि नामों से जाना जाता है। शरीर शास्त्र के अनुसार यह प्रजनन और रति कर्म का स्थान है। मनोविज्ञानी यहाँ की उत्तेजना को कला, विनोद, उल्लास एवं साहस का उद्गम मानते हैं। नपुँसक को न सेना में भर्ती किया जाता है और न ही उसका पौरोहित्य के लिए वरण किया जाता है। सामान्य जीवन में भी वह अपंग लुँज-पुँज होकर रहता है और कोई बड़ा पुरुषार्थ कर सकने में समर्थ नहीं होता।
ब्रह्मचर्य के साथ शारीरिक बलिष्ठता और मानसिक प्रखरता भी जुड़ी हुई है। उसे अपनाने वाले ओजस्वी, मनस्वी और तेजस्वी बनते हैं। यह तथ्य है कि ऋषियों और मनीषियों में से अधिकाँश ब्रह्मचारी रहे हैं। जिन्हें अपनी बलिष्ठता और प्रखरता को कौड़ी मोल न बहाना हो- उन सम्पदाओं को किन्हीं उच्चस्तरीय प्रयोजनों में लगाना हो उनके लिए यही उचित है कि ब्रह्मचर्य का अधिकाधिक पालन करें साथ ही अन्य इन्द्रियों को भी वश में रखने का प्रयत्न करें। शास्त्रकारों ने इस तथ्य के समर्थन में बहुत कुछ कहा है। यथा-
आयुस्तेजोबलं वीर्य प्रज्ञाश्रीश्च महद्यशः। पुण्यं च प्रीतिमत्वं च हन्यतेऽब्रह्मचर्यया॥
अर्थात्- आयु, तेज, बल, वीर्य, बुद्धि, लक्ष्मी, कीर्ति, पुण्य, प्रीति आदि सभी विभूतियाँ ब्रह्मचर्य न पालने पर पलायन कर जाती हैं।
अथर्ववेद 1।5।19 की ऋचा है-
ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्यु मुपाघ्नतः। इन्द्रो ब्रह्मचर्येण देवेभ्यः स्वरा भरत॥
अर्थात्- ब्रह्मचर्य रूपी तप का आश्रय लेकर देवताओं ने मृत्यु को जीता। इन्द्र को उच्च पदासीन होने का श्रेय सौभाग्य ब्रह्मचर्य पालन के कारण ही मिला था।
शिव वचन है-
न पतस्तप इत्याहुर्ब्रह्मचर्य तपोत्तमम। ऊर्ध्व रेता भवेद्यस्तु स देवो न तु मानुषः॥
अर्थात्- शरीर कष्ट की तितीक्षा ही तप नहीं है। उत्कृष्ट तप तो ब्रह्मचर्य है। “ऊर्ध्वरेता” ब्रह्मचारी को मनुष्य नहीं देवता ही कहना चाहिए।
अथर्ववेद की एक अन्य ऋचा है-
रुजन् परिरुजन् मृणन् परिमृणन्। म्रोक्री मनीहा खनो निर्दाह आत्मदषिस्तन्द् षिः॥
अर्थात्- यह काम विकार मनुष्य को रोगी बनाने वाला है, बुरे-बुरे रोगों में फँसाता है। यह मारने वाला बधिक है। बहुत बुरी प्रकृति का बधिक है। यह अपने शिकार को उलटा घसीटता है। और बुद्धि का अपहरण कर लेता है। शरीर में से आरौग्य और बल की जड़ें खोदकर फेंक देता है। धातुओं को जलाता है। आत्मा को मलीन करता है और तेजस् को चुरा लेता है।
ब्राह्मण ग्रन्थों में इस संयम मर्यादा की चर्चा करते हुए कहा गया है-
‘व्रतेषु वै ब्रह्मचर्यम्।’
अर्थात्- व्रतों में सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मचर्य है।
‘ब्रह्मचर्य परं बलम्।’
अर्थात्- ब्रह्मचर्य उत्कृष्ट स्तर का बल है।’ योग दर्श साधन पाद 18 का वचन है-
‘ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां वीर्य लाभः।’
अर्थात्- ब्रह्मचर्य पालने से बलिष्ठता का लाभ मिलता है।
वीर्यं वै भर्गः। -शतपथ
अर्थात्- वीर्य निश्चय ही ब्रह्म तेज है।
सूत्र कृताँक 6।23 का वचन है-
तपेसु वा उत्तमं वंभचेरे।
अर्थात्- तपों में उत्तम तप ब्रह्मचर्य है।
वैकालिक सूत्र 6।17 का वचन है-
अवंभ चरियं घोरं पमायं दुरहिट्ठियं।
अर्थात्- ब्रह्मचर्य का व्यतिरेक प्रमाद भी है और पाप भी।
याज्ञवल्क्य संहिता में उल्लेख है-
कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थेसु सर्वथा। सर्वत्र मैथुन त्यागा ब्रह्मचर्य प्रचक्षते॥
अर्थात्- ब्रह्मचर्य वह है जिसमें क्रिया से ही नहीं, चिन्तन और कथन-श्रवण से भी कामुक प्रसंगों का परित्याग किया जाता है।
घेरंग संहिता के अनुसार शिव का वचन है- सिद्धे बिन्दौ महादेवि, किं न सिद्धयति भूतते।
अर्थात्- हे पार्वती, बिन्दु को सिद्ध कर लेने- ब्रह्मचर्य पालने पर इस धरती की कोई सिद्धि ऐसी नहीं जो प्राप्त न हो सके।
महाभारत के मोक्ष धर्म प्रकरण में शुकदेव, जनक को प्रबोधन करते हुए कहते हैं-
‘तपसा गुरुवृत्या च ब्रह्मचर्येण वा विभो।’
“उस विद्यार्थी का अध्ययन सार्थक होता है जो ब्रह्मचर्यपूर्वक, तपस्वियों जैसा जीवन जीता है और गुरु अनुशासन को पालता है।”
कामुकताजन्य शारीरिक उत्तेजना आवश्यकता नहीं वह विशुद्ध रूप से संकल्पजन्य है। अश्लील चिन्तन से ही कामोत्तेजना उत्पन्न होती है और मन को उस प्रसंग से विरत कर लेने पर उसका समाधान भी सरलतापूर्वक हो जाता है। महाभारत आपद्धर्म प्रसंग में उल्लेख है-
संकल्पाज्जायते कामः सेव मानो विवर्धते। यदा प्रात्तोविरमते तथा सथः प्रणश्यति॥
“चिन्तन से कामोत्तेजना उत्पन्न होती है। सेवन करने पर वह और भी अधिक प्रचण्ड हो उठती है। किन्तु जब विज्ञजन उस ओर से मन हटा लेते हैं तो उसके समाप्त होने में भी देर नहीं लगती।”
महाभारत आदि पर्व में एक कथा है- पाँचाल जाते समय मार्ग में मिले सोमापयाण नगर के समीप महाप्रतापी गंधर्वराज अंगारपर्ण के साथ भयंकर युद्ध होने का वर्णन है, जिसमें अन्ततः गंधर्व राजा हारे और अर्जुन जीते।
विजय के उपरान्त अर्जुन ने पराजित गंधर्व से पूछा “कहाँ हम साधारण मनुष्य और कहाँ आप दैव शक्तियों से सम्पन्न महाबली। फिर आप हारे कैसे, कृपया इसका रहस्य समझाइए।”
उस गंधर्व ने कहा-
ब्रह्मचर्य परो धर्मः स चापि नियतस्त्वपि।
यस्मात् तस्मादहं पार्थ रणेऽरि मविजित स्त्वया॥
हे पार्थ! ब्रह्मचर्य परम धर्म है। वह तुममें विद्यमान है। मैं उससे रहित होने के कारण हारा और तुम जीत गये।
वयोवृद्ध ययाति ने अपने पुत्र पुरु से यौवन माँगकर अपनी वासनात्मक तृप्ति का प्रयत्न किया। फिर भी उनकी वासना शान्त नहीं हुई कामना तृप्ति की कोई सम्भावना नहीं दीखी। तब उनने पुत्र को उसका यौवन वापस लौटा दिया और पश्चाताप करते हुए जो विचार व्यक्त किये। उसका उल्लेख महाभारत आदिपर्व में इस प्रकार है।
न जातु कामः कामानामुपभोगन शाम्यति। हविषा कृष्ण वर्त्मेवभूय एषाविवर्तते॥
अर्थात्- “हे पुत्र, इतना उपभोग कर लेने पर भी मेरी कामुकता शान्त नहीं हुई। कामना पूरी होने की अपेक्षा वह और भी अधिक अतृप्त रहने लगी। आग में घी डालने की तरह वह बढ़ती ही है।”
उर्वशी के प्रणय प्रस्ताव को अस्वीकृत करते हुए अर्जुन कहते हैं-
गच्छ मूर्घ्ना प्रपन्नोस्मि पादौ ते वर वर्णिनि। त्वंहि म मातृवत् पूज्या रक्षोऽहं पुत्रवत् त्वया॥
अर्थात्- “आपके चरणों में मस्तक रखकर मैं आपकी वन्दना करता हूँ। आप मुझे माता के समान पूज्य हैं। मुझे पुत्र मानकर वात्सल्य प्रदान करें और वापस लौट जाएँ।”
चिकित्साचार्य सुश्रुत के अनुसार आहार से रस, रस से रक्त, रक्त से माँस, माँस से मेद, मेद से अस्थि, अस्थि से मज्जा और मज्जा से वीर्य बनता है। इसमें से प्रत्येक प्रक्रिया पाँच-पाँच दिन में सम्पन्न होती है। इस प्रकार आहार चालीस दिन में वीर्य की स्थिति तक पहुँचता है।
कहा गया है कि 40 सेर भोजन का एक सेर रक्त और एक सेर रक्त का दो तौला वीर्य बनता है। एक बार के मैथुन क्षरण में डेढ़ तौला वीर्यपात का औसत माना जाता है। इस प्रकार मैथुन प्रक्रिया इतनी महंगी पड़ती है जिसमें आहार की लागत और शरीर के अनेकानेक अवयवों की इतने समय की मेहनत एक प्रकार से निरर्थक ही चली जाती है। अमृतोपम घृत को गन्दी नाली में बहाते रहना और अपने स्वास्थ्य मनोबल को खोखला करते रहना किसी भी प्रकार बुद्धिमानी नहीं है।
शिव वचन है-
यस्य प्रसादान महिमा ममाप्येता दशो भवेत्।
अर्थ- “मेरी इतनी महिमा ब्रह्मचर्य पालन के कारण ही हुई है।
और भी-
मरणं बिन्दु पातेन जीवनं बिन्दु धारणात्।
अर्थात्- “ब्रह्मचर्य जीवन है और उसका उल्लंघन मरण।”
ब्रह्मचर्य की शास्त्र प्रतिपादित महिमा को कोई भी नर-नारी अनुभव द्वारा प्रत्यक्ष देख सकता है। अविवाहित लड़की लड़के अपना स्वास्थ्य सौंदर्य लम्बे समय तक यथावत् बनाये रहते हैं परन्तु अतिक्रमण करने वालों को जवानी में ही वृद्धावस्था घेर लेती है। अतः ब्रह्मचर्य की मर्यादा का पालन व्यक्तित्व सम्पदा के अर्जन हेतु करना ही चाहिए।