गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान

June 1983

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गायत्री मन्त्र के सम्बन्ध में एक शंका अक्सर उठाई जाती है कि उसके कई रूप हैं। कई लोग भिन्न-भिन्न ढंग से उसका उच्चारण करते या लिखते हैं। वस्तुतः शुद्ध रूप क्या है? इस सम्बन्ध में सारे ग्रन्थों का अध्ययन करने पर निष्कर्ष यही निकलता है कि गायत्री में आठ-आठ अक्षर के तीन चरण एवं चौबीस अक्षर हैं। भूः, भुवः, स्वः के तीन बीज मन्त्र- ओजस् तेजस् और वर्चस् को उभारने के लिए अतिरिक्त रूप से जुड़े हुए हैं। प्रत्येक वेद मन्त्र के आरम्भ में एक ॐ लगाया जाता है। जैसे किसी व्यक्ति के नाम से पूर्व सम्मान सूचक ‘श्री’ मिस्टर, पण्डित, महामना आदि सम्बोधन जोड़े जाते हैं, उसी प्रकार ॐकार- तीन व्याहृति और तीन पाद समेत पूरा और सही गायत्री मन्त्र इस प्रकार लिखा जा सकता है- “ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।” कई व्यक्ति इसी घटाने-बढ़ाने में अपनी-अपनी तिकड़म भिड़ाते देखे जाते हैं। कोई तीन ॐ- कोई पाँच ॐ लगाने की बात कहते हैं। कोई-कोई हर चरण के साथ एक ॐ जोड़ते हैं। कोई ब्राह्मणों की- क्षत्रियों की- वैश्यों की अलग-अलग गायत्री बताते हैं। यह अपनी-अपनी मनगढ़न्त है। वस्तुतः गायत्री का शुद्ध स्वरूप उतना ही है जितना कि ऊपर बताया गया। आर्ष ग्रन्थों में कहीं-कहीं तीन या सात व्याहृतियों के प्रयोग की, बीज मन्त्रों को भी साथ जोड़ने की चर्चा है। यह अपने-अपने विशेष प्रयोग उपचार हैं। शुद्ध गायत्री मात्र उतनी ही है जिसका उल्लेख किया गया।

वेदों में अनेकों मन्त्र हैं, फिर गायत्री को ही प्रमुखता क्यों दी गयी? इस पर विचार करने पर मत यही बनता है कि इस मन्त्र की अपनी विशेष गरिमा है। इसका उल्लेख वेदों में स्थान-स्थान पर हुआ है तथा अन्यान्य धर्मग्रन्थों में भी माहात्म्य सहित प्रमुखता दी गयी है। देव संस्कृति के दो प्रतीकों- शिखा और सूत्र (यज्ञोपवीत) को भी गायत्री का ही बहिरंग पर आरोपित स्वरूप माना जा सकता है। एक को सिर पर धर्म ध्वजा के रूप में तथा दूसरे को कन्धे पर उत्तरदायित्व अनुशासन के रूप में धारण किया जाता है। यह गौरव किसी भी अन्य मन्त्र को प्राप्त नहीं है।

हर धर्म का एक प्रतीक बीज मन्त्र होता है। इस्लाम में कलमा, ईसाई में वपतिस्मा, जैन धर्म में नमोंकार मन्त्र आदि का प्रचलन है। भारतीय धर्म का आस्था केन्द्र- गायत्री को माना गया है। इसे इसके अर्थ की विशिष्टता- सन्निहित प्रेरणा के कारण विश्व आचार संहिता का प्राण तक माना जा सकता है। वेदों की सार्वभौम शिक्षा लगभग सभी धर्म सम्प्रदायों में भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट हुई है। गायत्री रूपी बीज के तने, पल्लव ही वेद शास्त्रों के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। इसी कारण उसे ‘वेदमाता’ कहा गया है। वेदमाता अर्थात् सद्ज्ञान की गंगोत्री। इसे देवमाता कहा गया है- अर्थात् जनमानस में देवत्व का अभिवर्धन करने वाली। विश्वमाता भी इसे कहते हैं अर्थात् “वसुधैव कुटुम्बकम्” के तत्व दर्शन तथा नीति-निर्धारण का पोषण करने वाली। ये विशेषण इसकी प्रमुखता के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

एक अन्य चर्चा इस उपासना के सम्बन्ध में की जाती है कि गायत्री मन्त्र गुप्त है। इसका उच्चारण निषिद्ध है। यह प्रचार वर्ण के नाम पर स्वयं को ब्राह्मण कहने वाले धर्म मंच के दिग्गजों ने अधिक किया है। विशेषकर दक्षिण भारत में यह भ्रान्ति तो सर्वाधिक है। वस्तुतः गुप्त तो मात्र दुरभि सन्धियों को रखा जाता है। श्रेष्ठ निर्धारणों को खुले में कहने में कोई हर्ज नहीं। गायत्री में सदाशयता की रचनात्मक स्थापनाएँ हैं। उन्हें जानने-समझने का सबको समान अधिकार है ऐसे पवित्र प्रेरणायुक्त उपदेश को उच्चारणपूर्वक कहने-सुनने में भला क्या हानि हो सकती है? पर्दे के पीछे व्यभिचार, अनाचार जैसे कुकर्म ही किये जाते हैं। षड्यन्त्रों में काना-फूसी होती है। किसी को पता न चलने देने की बात वहीं सोची जाती है जहाँ कोई कुचक्र रचा गया हो। सद्ज्ञान का तो उच्च स्वर से उच्चारण होना चाहिए। कीर्तन-आरती जैसे धर्म कृत्यों में वैसा होता भी है।

तन्त्र विधान की कुछ विधियाँ गुप्त रखी गयी हैं। ताकि अनधिकारी लोग उसका दुरुपयोग करके हानिकार परिस्थितियाँ उत्पन्न न करने पाएँ। मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण, स्तम्भन जैसे आक्रामक अभिचारों के विधि-विधान तथा तन्त्र को इसी दृष्टि से कीलित या गोपनीय रखा गया है। एक तरह से इन्हें सौम्य साधना का स्वरूप न मानकर इन पर ‘बैन’ लगा दिया गया है ताकि लोग भ्रान्तिवश इनमें भटकने न लगें। वैदिक प्रक्रियाओं में ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं। गायत्री वेदमन्त्र है। उसका नामकरण ही “गाने वाले का त्राण करने वाली” के रूप में हुआ है। फिर उसे मुँह से न बोलने, गुप्त रखने, चुप रहने, कान में कहने जैसा कथन सर्वथा उपहासास्पद है। ऐसा वे लोग कहते हैं जो तन्त्र और वेद में अंतर नहीं समझते। गायत्री मन्त्र का उच्चारण व्यापक विस्तृत होने से उसकी तरंगें वायु मण्डल में फैलती हैं और जहाँ तक वे पहुँचती हैं, वहाँ लाभदायक परिस्थितियाँ ही उत्पन्न करती हैं। उच्चारण न करने पर तो उस लाभ से सभी वंचित रहेंगे।

क्या गायत्री की उपासना रात्रि में की जा सकती है? इस विषय पर भी भाँति-भाँति के मत व्यक्त किये जाते हैं एवं जन-साधारण को भ्रान्ति के जंजाल में उलझा दिया जाता है। वस्तुतः गायत्री का दाता सूर्य है सूर्य की उपस्थिति में की गयी उपासना का लाभ अधिक माना गया है। किन्तु ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं कि सविता देवता की अनुपस्थिति में- रात्रि होने के कारण उपासना की ही न जा सकेगी। ब्राह्ममुहूर्त को भी एक प्रकार से रात्रि ही कहा जा सकता है। उसमें तो सभी को जल्दी उठकर उपासना करने और सूर्योदय होने पर सूर्यार्घ देकर उसे समाप्त करने की साधारण विधिव्यवस्था है। वस्तुतः सूर्य न कभी अस्त होता है और न देवता शयन करते हैं। इसलिए रात्रि में उपासना करने में कोई हर्ज नहीं। किसी को बहुत ही सन्देह हो तो मौन, मानसिक जप तो बिना संकोच कर सकता है। मानसिक जप पर तो स्नान, स्थान जैसा भी प्रतिबन्ध नहीं है।

एक और अहम् प्रश्न है कि गायत्री के साकार एवं निराकार रूपों में से किस-किस प्रकार से उपासना प्रयोजन के लिये प्रयुक्त किया जाय? इसका समाधान मात्र यही है कि जिन्हें निराकार रुचता हो, वे सविता के ‘भर्गः’ स्वरूप का ध्यान करें। सूर्य का तेज- प्रकाशवान स्वरूप उसका प्रतीक है। प्रभातकालीन स्वर्णिम सूर्य को सविता की आकृति माना जाता है। यह मात्र आग का गोला नहीं है। वरन् अध्यात्म की भाषा में ब्रह्म भर्ग से युक्त एवं सचेतन है। उदीयमान सूर्य से तो मात्र उसकी संगति बिठाई जाती है। इसके लिए सूर्य के स्थान पर दीपक को, धूपबत्ती की अथवा गायत्री मन्त्र जिसकी किरणों के साथ जुड़ा हो ऐसे सूर्य चित्र को भी प्रयुक्त कर ध्यान नियोजित किया जा सकता है।

साकार उपासना में गायत्री को माता के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है। माता होते हुए भी उसका स्वरूप नवयौवना के रूप में दो कारणों से रखा गया है। एक तो इसलिए कि देवत्व को कभी वार्धक्य नहीं सताता। सतत् उसका यौवन रूपी उभार ही झलकता रहता है। सभी देवताओं की प्रतिमाओं में उन्हें युवा सुदर्शन रूप में ही दर्शाया जाता है। यही बात देवियों का चित्रण करते समय भी ध्यान में रखी जाती है और उन्हें किशोर निरूपित किया जाता है। दूसरा कारण यह है कि युवती के प्रति भी विकार भाव उत्पन्न न होने देने- मातृत्व की परिकल्पना परिपक्व करते चलने के लिये उठती आयु को इस अभ्यास के लिये सर्वोपयुक्त माना गया है। कमलासन पर विराजमान होने का अर्थ है- कोमल, सुगन्धित, उत्फुल्ल कमल पुष्प जैसे विशाल में उसका निवास होने की संगति बिठाना। यही है विभिन्न रूपों में उसकी उपासना का तात्विक दर्शन।

स्त्रियों को गायत्री का अधिकार है या नहीं, यह आशंका सभी उठाते देखे जाते हैं- धर्माचार्य भी तथा शोषक पुरुष समुदाय भी। वस्तुतः नर और नारी भगवान के दो नेत्र, दो हाथ, दो कान, दो पैर के समान मनुष्य जाति के दो वर्ग हैं। दोनों की स्थिति गाड़ी के दो पहियों की तरह मिल-जुलकर चलने और साथ-साथ सहयोग करने की है। दोनों कर्त्तव्य और अधिकार समान हैं। प्रजनन प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए एक का कार्य क्षेत्र परिवार, दूसरे का उपार्जन- उत्तरदायित्व इस रूप में बँट गए हैं। इस पर भी वह कोई विभाजन रेखा नहीं है। सामाजिक, आर्थिक, साहित्य, राजनीति आदि में किसी भी वर्ग पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। इसी प्रकार धर्म-अध्यात्म क्षेत्र में- साधना-उपासना के क्षेत्र में भी दोनों को स्वभावतः समान अधिकार प्राप्त हैं।

नर और नारी को- सवर्ण और असवर्ण को ऊंचा-नीचा मानना, एक को अधिकारी- दूसरे को अनधिकारी ठहराने का प्रचलन मध्यकालीन अन्धकार युग की देन है। उसमें समर्थों ने असमर्थों को पैरों तले रौंदने, उनसे मनमाने लाभ उठाने और विरोध की आवाज न उठा सकने के लिए जहाँ डण्डे का उपयोग किया, वहाँ पण्डिताऊ प्रतिपादन भी लालच या भय दिखाकर अपने समर्थन में प्राप्त कर लिये। शूद्रों को- स्त्रियों को नीचा या अनधिकारी ठहराने के पीछे मात्र एक ही दुरभि सन्धि है कि समर्थों को मनमाने लाभ मिलते रहें और किसी विरोध- प्रतिरोध का सामना न करना पड़े। बहुपत्नी प्रथा चलते हुए यह आवश्यक हो गया कि इसकी प्रतिक्रिया से नारी को भी तनकर खड़े न होने देने के लिए धार्मिक मोर्चे पर मनोवैज्ञानिक दीवार खड़ी की जाय और उन्हें अपनी विवशता को भगवद् प्रदत्त या धर्मानुकूल मानने के लिए बाधित किया जाय। सती प्रथा- पर्दा प्रथा- जैसे प्रचलन नारी को अपनी विवशता- नियति प्रदत्त मानने के लिये स्वीकार करने हेतु कुचक्र भर थे। इसी सिलसिले में धार्मिक अधिकारों से उन शोषित वर्गों को वंचित करने की बात कही जाने लगी। शस्त्रों में भी जहाँ-तहाँ ये अनैतिक प्रतिपादन ठूँस दिये गए और भारतीय संस्कृति की मूलाधार को उलट देने वाले प्रतिपादन चल पड़े। धार्मिक कृत्यों से वंचित रखने की बात भी उसी सामन्ती अन्धकार युग का प्रचलन- आधुनिक संस्करण भर है। वस्तुतः नर-नारी के बीच शास्त्र परम्परा के अनुसार कहीं राई-रत्ती भर भी अन्तर नहीं है।

प्राचीन काल में वेद-ऋचाओं की दृष्टा प्रतिपादनकर्त्ता ऋषियों की तरह ऋषिकाएँ भी हुई हैं। गायत्री वेदमन्त्रों का सिरमौर है। स्त्री, शूद्रों को वंचित करने के सिलसिले में गायत्री का वेदमन्त्र होने के कारण प्रतिबन्ध लगाया जाता है, जिसका किसी तर्क, तथ्य, न्याय, औचित्य की कसौटी पर कसने वाला कोई भी विज्ञजन समर्थन नहीं कर सकता।

गायत्री नारी रूप है। माता से पुत्रियों को कैसे दूर किया जा सकता है। बेटे को दूध पिलायें और बेटी को कचरे में फेंक दें, ऐसे निष्ठुर तो मात्र पिशाच ही होते हैं। गायत्री माता का ऐसा पिशाचिनी स्वरूप नहीं हो सकता। नर को नारी के क्षेत्र में प्रवेश से रोकने का मर्यादा के नाते कोई तुक भी हो सकता है पर नारी-नारी के क्षेत्र में प्रवेश न कर सके इसका तो लोक व्यवहार की दृष्टि से भी कोई औचित्य नहीं है। इस शंका का सर्वथा निर्मूल कर नर और नारी समान रूप से इसकी उपासना करते रह सकते हैं। ( क्रमशः )


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