अदृश्य सूक्ष्म शक्तियों का ज्ञान न होने से मनुष्य उनका लाभ नहीं उठा पाता। शरीरबल, बुद्धिबल तथा अन्यान्य भौतिक सम्पदाएँ जो प्रत्यक्ष दिखायी पड़ती हैं, प्रायः उन्हें ही करतलगत करने का प्रयास किया जाता है, पर कुछ ऐसे भी होते हैं जो समुद्र से मोती निकालने जैसे दुस्साहसी कार्य की तरह शक्ति अर्जित करने के लिए अधिक गहराई में डुबकी लगाने का जोखिम उठाते और उनमें से थोड़े सफल होते भी देखे जाते हैं। शक्ति का भाण्डागार प्रकृति और चेतना दोनों ही क्षेत्रों में भरा पड़ा है। अनुसंधान एवं उससे जुड़ी उपलब्धियों के लिए प्रकृति एवं चेतना से समन्वित एक सर्वांगपूर्ण प्रयोगशाला मानवी काया के रूप में हर व्यक्ति को मिली हुई है, जिसमें एक से बढ़कर एक सम्भावनाएँ निहित हैं, जो हर पुरुषार्थी के मानस पटल पर दस्तक देतीं तथा उन्हें हस्तगत करने के लिए मूक आह्वान करती हैं।
पदार्थ की स्थूल शक्ति की तुलना में परमाणु की सूक्ष्म शक्ति कितनी अधिक प्रचण्ड, सामर्थ्यवान् हो सकती है, यह सत्य सदियों तक तो अविज्ञात रहा, पर अब किसी से छुपा नहीं रह गया है। शरीर और उससे जुड़ी इन्द्रियों की बनावट ही ऐसी है कि मनुष्य दृश्य अथवा प्रत्यक्ष लाभ देने वाले भौतिक घटकों को ही अधिक महत्व देता है। फलतः उनसे सीमित ही लाभ उठा पाता है। शरीरबल एवं बुद्धिबल का मानव ने महत्व समझा और उनसे एक सीमा तक लाभान्वित हुआ है। पर इतने पर भी सूक्ष्म शक्ति स्रोतों का महत्व कम नहीं हो जाता। उनकी गरिमा एवं सामर्थ्य यथावत् है। शरीर एवं बुद्धि की तुलना में मन अधिक सूक्ष्म विलक्षण एवं सामर्थ्यवान है, पर उसकी क्षमता का विकास बिरले कर पाते तथा बिरले ही उससे लाभ उठा पाते हैं। व्यक्तित्व के सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं समर्थ घटक के उपेक्षित पड़े रहने से ही अधिकाँश व्यक्तियों का जीवन व्यर्थ भटकाव में व्यतीत होता तथा शरीर एवं बुद्धि से समर्थ होते हुए भी वे अपने जीवन को सही दिशा एवं प्रेरणा देने में प्रायः असमर्थ सिद्ध होते हैं।
भारतीय ऋषियों की पहुँच प्रकृति एवं चेतना के गहन परतों तक थी। उन्होंने भौतिक जगत एवं उससे जुड़े उपादानों को उतना ही महत्व दिया जितना कि शरीर व्यापार को गतिशील रखने के लिए आवश्यक था। शरीर एवं बुद्धि का मन न केवल संचालक है, वरन् मनुष्य के उत्थान-पतन का कारण भी है, यह वे भली-भाँति जानते थे। उनका उद्घोष था-
- “तस्मान्मनः कारणमस्त जन्तोर्बन्धस्य मोक्षस्य च वा विधाने। (विवेक चूणामणि)
अर्थात्- जीव के बन्धन और मोक्ष के विधान में मन ही प्रधान कारण है।
यही कारण था कि उनकी अधिकाँश चेष्टाएँ- जप तप की प्रक्रियाएँ मानसिक परिष्कार एवं विकास के लिए चला करती थीं। शोधन, अभिवर्धन से प्रचण्ड मनोबल एवं प्राण ऊर्जा का अभ्युदय होता था, जिसके सहारे वे न केवल अपने व्यक्तित्व को ऊँचा उठाते थे, वरन् उनसे मानव जीवन की अगणित समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते थे। स्वस्थ, सभ्य एवं सुसंस्कारी समाज की संरचना इसीलिए हो सकी थी कि हर व्यक्ति जीवन की गरिमा एवं उसका लक्ष्य समझता था तथा यह भी जानता था कि शरीर एवं बुद्धि की लगाम मन के हाथों में है। यदि उसका सुधार, सम्भाल एवं विकास कर लिया जाय तथा उसकी शक्ति को जीवन लक्ष्य की दिशा में नियोजित कर लिया जाय तो मनुष्य के लिए कुछ भी असम्भव न रह जाय। अतिमानवी शक्तियों का प्राकट्य भी उस युग में इसी कारण सम्भव हो सका था।
बुद्धिवादी युग की यह विडंबना ही है कि मन जैसे चैतन्य, विलक्षण एवं व्यक्तित्व के सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक को जानने एवं उसकी शक्तियों का लाभ उठाने का प्रयास नहीं किया जा रहा है। आधुनिक मनोविज्ञान ने मन की चेतन अचेतन परतों की बनावट एवं क्रिया प्रणाली की जो सीमित जानकारियाँ दी हैं उनसे मन की विशिष्ट सम्भावनाएँ उजागर नहीं होतीं। उल्टे मूर्धन्य मनःशास्त्री फ्रायड के प्रतिपादित सिद्धान्तों से यही भ्रांति अधिकाँश बुद्धिजीवियों में बनी हुई है कि मनुष्य मूल प्रवृत्तियों का गुलाम है, सैक्स ही प्रमुख प्रेरक शक्ति है, पर प्रगति के इस युग में वे मान्यताएँ जो भ्रान्तिपूर्ण हैं, अधिक समय तक अपनी जड़ें जमाये नहीं रख सकतीं। अतीन्द्रिय सामर्थ्य के प्रमाण में आयी अनेकानेक साक्षियों, इच्छाशक्ति के चमत्कारों भविष्य बोध की सामर्थ्य जैसी घटनाओं ने यह सिद्ध कर दिया है कि मनुष्य की सम्भावनाएँ असीम हैं। मन के भीतर ही शक्ति का सागर लहलहा रहा है- चैतन्य ऊर्जा का वह केन्द्र है। इससे मानवी सत्ता की गरिमा समझने तथा उसकी महानता में विश्वास रखने वाले मनःशास्त्रियों को मन के सम्बन्ध में नये सिरे से शोध करने की प्रेरणा मिली है। जैसे-जैसे वे खोज की गहराई में उतर रहे हैं, यह मान्यता सप्रमाण परिपुष्ट होती जा रही है कि मन एक प्रचण्ड ऊर्जा का स्रोत है। वह न केवल शरीर एवं बुद्धि का नियन्त्रण कर्ता है वरन् मानवी उत्थान पतन का माध्यम भी है।
मनुष्य की महानता में विश्वास रखने वाले मनःशास्त्री मैस्लो का कहना है कि “मन एक प्रकार का एंप्लिफायर है जिसके सहारे हमें दृश्यों, घटनाओं अथवा तथ्यों को समझने में मदद मिलती है। वह ठीक तरह से चलता रहे तथा सही दिशा में उसकी ऊर्जा नियोजित रहे तो जीवन सन्तुलित, सुव्यवस्थित तथा प्रसन्नचित बना रहता है। जबकि परेशानी, चिन्ता, भय आशंका की घड़ियों में उस ऊर्जा का प्रवाह अवरुद्ध हो जाता तथा अनेकानेक प्रकार की समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं और मनुष्य को अनायास ही बेतरह परेशान करती है। मन के एंप्लिफायर को जब कोई चिन्तित, भयभीत व्यक्ति चालू करता है तो उसकी कठिनाइयाँ बढ़ने के स्थान पर घटनी आरम्भ हो जाती हैं। मस्तिष्क का प्रीफ्रन्टलल्यूकोटामी भाग इस एम्प्लिफायर के तार का काम करता है। फलतः मस्तिष्क भी मन की प्रेरणाओं, सन्देशों से सक्रिय बन जाता है। सक्रियता की विधेयात्मक स्थिति में अशान्तिकारक अवरोध अपने आप दूर हो जाते हैं। रचनात्मक कार्यों में व्यस्त रहने पर उस एम्प्लिफायर से शक्ति मिलती रहती है।
मनः एम्प्लिफायर का स्वरूप स्पष्ट करते हुए मनोवैज्ञानिक मैस्लो कहते हैं- “यह एक प्राण ऊर्जा का सरोवर है। इस सरोवर में नदी के जल प्रवाह की तरह प्राण ऊर्जा सतत् प्रवाहित होती रहती है।” मैस्लो के अनुसार- “आनन्ददायक घड़ियों में जिसे उन्होंने मनोविज्ञान की भाषा में ‘पिक एक्सपेरिमेन्स’ नाम दिया है, यह ऊर्जा संचित-संग्रहित होती रहती है तथा भावी उपयोग में काम आ सकती है। प्राण ऊर्जा ही- ‘ओवर फ्लो’ होकर दूसरों को आकर्षित-प्रभावित करती तथा उन्हें सहयोगी बनाकर असम्भव व कार्य को भी सम्भव करने कराने में समर्थ होती है।” मैस्लो के अनुसार- “प्राण ऊर्जा का सतत् गतिशील रहना स्वास्थ्य सन्तुलन तथा व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक है। यह गतिशीलता विधेयात्मक चिन्तन एवं संरचनात्मक कार्यों में निरत रहने से ही बनी रह सकती है।
फ्रायड की मान्यता से ठीक विपरीत मैस्लो का कहना है कि- “मूल प्रवृत्तियों में ऐसी एक भी नहीं है जिन पर मनुष्य नियन्त्रण न कर सके। हर पशु प्रवृत्ति का परिष्कार, सुधार मनुष्य के लिए सम्भव है। असम्भव इसलिए लगता है कि वह मन की सामर्थ्य से अपरिचित रहता है तथा उसके चिन्तन में निषेधात्मक तत्वों का बाहुल्य होता है। अपने प्रति अपनायी गयी निषेधात्मक दृष्टि ही मनःऊर्जा की गति एवं प्रवाह को अवरुद्ध करती तथा प्रगति पथ को अवरुद्ध कर देता है।” उनका मत है कि “व्यापक स्तर पर जन समुदाय में ऐसा निषेधात्मक दृष्टि बनाने में जिम्मेदार वे तथाकथित दर्शन भी हैं जो डार्विन तथा फ्रायड जैसे नियतिवादी दार्शनिकों द्वारा दिये गये हैं। भ्रान्त करने वाले उस वैचारिक जाल से मनुष्य को बाहर निकलना होगा तथा अपने ही भीतर महानता के बीजों को टटोलना-खोजना होगा जो हर व्यक्ति के मन की अदृश्य सूक्ष्म परतों में विद्यमान है और विकास के लिए मनुष्य से समुचित खाद पानी की अपेक्षा करते हैं। मानसिक परतन्त्रता की यह स्थिति ही इस युग की हर समस्या के लिए जिम्मेदार है जिसके पाश को तोड़ना एवं उससे निकलना आगे बढ़ने ऊँचे उठने की दिशा में पहला साहसिक कदम है।”
स्वास्थ्य, सन्तुलन एवं विकास का मानसिक स्वतन्त्रता से कितना गहरा सम्बन्ध है, इसका एक निष्कर्ष मनःशास्त्री फ्रैंकल ने प्रस्तुत किया है। एक प्रयोग अध्ययन में उन्होंने देखा कि कुछ कैदियों को आजीवन कारावास की सजा मिली तथा कुछ को उसी केस में कुछ वर्षों की कैद के बाद छूटने का दण्ड मिला। जिन्हें जीवन भर कैद मिली, उनका स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन गिरता गया विक्षिप्तों जैसी स्थिति बन गयी। कुछ ने तो थोड़े समय बाद ही दम तोड़ दिया। पर जिन्हें छूटने की आशा थी, उनके ऊपर विशेष प्रभाव नहीं पड़ा।” फ्रैंकल कहते हैं कि “मनुष्य पशु-प्रवृत्तियों का गुलाम है इस मान्यता ने समाज के अधिकाँश व्यक्तियों को मानसिक पराधीनता की जंजीरों में बुरी तरह जकड़ दिया है। फलतः वह आत्मविश्वास गवाँ बैठा है। न केवल मनोविज्ञान ने वरन् आधुनिक ज्ञान की अन्य राजनीति, साहित्य, दर्शन, इतिहास जैसी विधाओं ने भी उन्हीं निषेधात्मक तथ्यों को उभारा और प्रश्रय दिया है। ये सब सम्मिलित रूप से मिलकर मानवी प्रकृति के लगभग आधे हिस्से को पंगु बना देते हैं। मात्र शेष आधी के बल पर ही मनुष्य अपनी पहचान एवं अस्तित्व बनाये हुए है। मानसिक पंगुता की इस स्थिति में मनुष्य अपनी महानता तथा भीतर सन्निहित असीम अद्भुत सम्भावनाओं को उजागर कर सकेगा, यह असम्भव है। सम्भावना मनः सामर्थ्य को समझने तथा उसके सहारे प्रसुप्त आत्मविश्वास को जगाने से ही बन सकती है।
व्यावहारिक धरातल पर यह कैसे बन पड़े? मनःशास्त्री फ्रैंकल का मत है। सर्वप्रथम यह विश्वास सुदृढ़ करना होगा कि मनुष्य की मानसिक क्षमता शारीरिक की तुलना में न केवल समर्थ है वरन् हर समस्या का समाधान प्रस्तुत करने में समर्थ है। अस्त-व्यस्त रहने तथा असंयमित दिनचर्या के कारण शरीर की शक्ति खोखली हो जाती है। उससे भी अधिक बर्बादी निरुद्देश्य चिन्तन के भटकाव के कारण मनःऊर्जा की होती है। क्योंकि हमारी अधिकाँशतः इच्छाएँ और चेष्टाएँ अनुपयुक्त और अदूरदर्शितापूर्ण होती हैं। सुनिश्चित उच्चस्तरीय आदर्श एवं दिशाधारा का चयन और निर्धारण हो सके तो उस फुलझड़ी की भाँति व्यर्थ उड़ जाने वाली मनःशक्ति का सुनियोजित और सदुपयोग सम्भव हो सकता है। श्रेष्ठ आदर्श का निर्धारण और उसकी पूर्ति की उत्कट आकाँक्षा स्वयं में एक ऐसी प्रेरक शक्ति है जो प्रेरणा के साथ-साथ दूरदर्शी विवेक को जगाती है। दूरदर्शी विवेक का अभ्युदय एक ऐसी महान उपलब्धि है जिसके सहारे मनुष्य के सामान्य से असामान्य महामानव बनने तक की सम्भावना बन जाती है।
दूरदर्शिता से मानसिक सन्तुलन बनता और मनःशक्ति का सुनियोजन होने लगता है। तब मनुष्य परिस्थितियों की गुलामी कभी स्वीकार नहीं करता। हर स्थिति में सदा सन्तुष्ट प्रसन्नचित, और प्रफुल्लित रहने वाली मनःस्थिति की अनुभूतियों को ही मनःशास्त्री मैस्लो ने ‘पिक एक्सपेरिमेन्स’ नाम दिया है। इस स्थिति को सदा कैसे बनाये रखा जाय? मैस्लो अपनी पुस्तक “न्यू डायमेन्शन्स ऑफ साइकोलॉजी” में लिखते हैं कि “सदा दूरगामी, विधेयात्मक बातें सोची जायं। साथ ही डिप्रेशन, निराशा, हतोत्साह उत्पन्न करने वाले निषेधात्मक बातों को मन में जड़ न जमाने दिया जाय। जब कभी भी वे मानसिक परतों पर अड्डा जमाने की कोशिश करें, विधेयात्मक विचारों की सुसज्जित सेना से उन्हें खदेड़ कर बाहर कर दिया जाय।”
मनःशास्त्री मानसिक परिष्कार सन्तुलन एवं विकास के जो विचार एवं सिद्धान्त प्रस्तुत कर रहे हैं, भारतीय ऋषि सदियों पूर्व से उनका प्रतिपादन करते चले आ रहे हैं। देवासुर संग्राम का वर्णन पौराणिक गाथाओं में मिलता है। यह मन में चलने वाले विधेयात्मक निषेधात्मक, रचनात्मक- ध्वंसात्मक विचारों के युग्म का अलंकारिक चित्रण है। निषेधात्मक चिन्तन से बचने, दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा पाने, सत्प्रवृत्तियों की प्रतिष्ठापना करने के लिए उन्होंने मनःशास्त्रियों की तरह मात्र वैचारिक स्तर पर ही समाधान प्रस्तुत नहीं किया। वरन् उन्हें आदत व्यवहार एवं आचरण का अंग बनाने की दृष्टि से सुनिश्चित उपाय भी सुझाया है जो हर युग के लिए शाश्वत एवं अपरिवर्तनीय है।
जप, तप की साधना उपासना की सामान्य तथा कठोर अध्यात्मिक उपचार मनःशक्ति के परिशोधन एवं उसमें सन्निहित प्रचण्ड-ऊर्जा जिसे मनोबल, संकल्प बल के नाम से जाना जाता है, के लिये किये जाते थे। अभ्यास में- संस्कारों में घुल न पाने के कारण सद्विचार मानवी विकास में उतने सहायक नहीं सिद्ध हो पाते। उन्हें आचरण में उतारने की दृष्टि से पुनरावृत्ति होना आवश्यक है। प्रतीक क्रियाओं एवं माध्यमों से उनका अभ्यास किया जाता है। तप तितीक्षा से संकल्पबल मजबूत होता मनोबल उभरता तथा सद्मार्ग पर चलने का आधार सुदृढ़ बनता है। सद्विचारों को आचरण में- व्यवहार में- उतारने का यही एक मार्ग है। भारतीय योग मनोविज्ञान वैचारिक समाधान प्रस्तुत करता है, तो योगाभ्यास- साधना, उपासना, तप, तितीक्षा की प्रक्रियाएँ अन्तःकरण में जड़ जमाये कुसंस्कारों के परिशोधन तथा सुसंस्कारों की प्रतिष्ठापना का प्रयोजन पूरा करती है। जिनका अवलंबन लेकर हर कोई न केवल मन की उपयोगिता- उपादेयता को समझने में समर्थ हो सकता है वरन् मनःशक्ति को उभरने- विकसित करने में भी सफलता प्राप्त कर सकता है।
मनःशास्त्री फ्रैंकल का यह कहना अत्यन्त सारगर्भित है कि “शरीर एवं बुद्धि के संचालक मन की उपेक्षा का ही परिणाम है कि समाज के अधिकाँश व्यक्ति भौतिक सुविधाओं से सुसम्पन्न होते हुए भी मानसिक रूप से बीमार हैं। यह बढ़ती हुई स्थिति हमें निराशामय भविष्य की ओर ही ले जा रही है। अतएव इस युग की सबसे प्रमुख आवश्यकता है मन की सामर्थ्यों को समझना- उभारना तथा अति मानसिक शक्तियों को उजागर करना। इसके बिना भौतिक अन्यान्य शक्तियों का सही रूप से लाभ उठा सकना मानव जाति के लिए सम्भव न होगा।”