“साधना से सिद्धि” का अकाट्य एवं शाश्वत सिद्धान्त

June 1983

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सामान्य जन, अनेकानेक क्षुद्र योनियों के कुसंस्कारों से लदे होते हैं। शिश्नोदर परायण पशु प्रवृत्तियों में ही उनका मन रमता और प्रयत्न चलता है। इस स्तर से उबर कर मानवी गरिमा के क्षेत्र में प्रवेश करने की प्रक्रिया अध्यात्म तत्वज्ञान और साधना विधान के सहारे ही सम्भव होती है। उसका आलोक अन्तराल में प्रवेश करता है तो पुण्य परमार्थ की दो प्रवृत्तियाँ उभरती हैं। पुण्य अर्थात् आत्म संयम, परमार्थ अर्थात् सत्प्रवृत्ति संवर्धन में उत्साह। इन्हीं के समन्वय को देवत्व कहते हैं। महामानवों का यह कार्यक्षेत्र है। उनकी विचारणा एवं तत्परता इन्हीं दो प्रयोजनों पर केन्द्रित होती है। फलतः वे स्वयं कृत-कृत्य होते हैं और अपने संपर्क क्षेत्र में शालीनता का वातावरण उत्पन्न करने में चन्दन वृक्ष का उदाहरण बनते हैं। यह अध्यात्म क्षेत्र ही देव मानवों की नर-रत्नों की खदान है। इस विधा का जब जितना प्रचलन विस्तरण होता है तब उसी अनुपात से वैयक्तिक प्रखरता और सामूहिक समर्थता की अभिवृद्धि होती है। सर्वतोमुखी प्रगति का पथ-प्रशस्त होता है। चेतना में उत्कृष्टता का स्तर बढ़ने से स्वल्प साधनों को मिल बाँटकर खाया और सन्तोषपूर्वक रहा जा सकता है। जबकि इसमें कमी पड़ने पर लोग आपस में टकराते और नारकीय दुष्प्रवृत्तियों से सर्वत्र अशान्ति उत्पन्न करते हैं। भले ही सम्पदा के पर्वत इर्द-गिर्द ही क्यों न खड़े रहें।

इन तथ्यों पर ध्यान देने से अध्यात्म तत्वज्ञान और साधन विधान की व्यावहारिक गरिमा प्रकट होती है। यह प्रतिफल ऐसे हैं, जिन्हें अपनाये जाने पर मनुष्य में देवत्व का उदय होना निश्चित है। जहाँ सज्जनता बढ़ेगी वहाँ अपनी इसी धरती पर स्वर्ग जैसा वातावरण बिखरा-बिखरा फिरेगा। यही है अध्यात्म की विभूतिवान् परिणति; जिसके लिए उसे विचारशीलों द्वारा असाधारण महत्व दिया गया है और उसके महात्यों का वर्णन अलंकारिक आकर्षणों सहित व्यक्त किया है।

इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि चेतना को नरक से उवार कर स्वर्ग में पहुँचाने वाली इस विधा को जादूगरी बाजीगरी की पंक्ति में बिठा दिया गया है। प्रचलन में अध्यात्म का अर्थ कौतुक, कौतूहल, चमत्कार जैसा माना जाता है और उस आधार पर छुटपुट-सी हथफेरी करने पर विपुल सम्पदाएँ मनमानी सफलताएँ पाने का सपना देखा जाता है। अकर्मण्य लोग पुरुषार्थ के बल पर वैभव खरीदने में सफल नहीं होते तो इन हथकण्डों के सहारे सम्पत्तिवान और यशस्वी बनने की बात सोचते हैं। कइयों को चित्र-विचित्र दृश्यों के देखने की बाल-सुलभ उत्सुकता रहती है। कोई देवी-देवताओं को अपने इर्द-गिर्द नाचने-कूदने का दृश्य देखना चाहते हैं। कुछ की कुण्डलिनी सर्पिणी को फुसकार सुनने आँखों के आगे आज्ञाचक्र घूमने, आकाश से पुष्प वर्षा होने जैसे कौतूहलों का मजा लूटने की इच्छा रहती है। कुछ हवा में हाथ मार कर इलाइची जलेबी आदि मँगाने और उन मुफ्त की वस्तुओं का स्वाद चखना चाहते हैं। संक्षेप में यही है ऋद्धि-सिद्धि का कौतुक कौतूहल। जिसके आधार पर किसी को गढ़ा खजाना बता देने का प्रलोभन और किसी को मरण मोहन का भय दिखा कर उँगली के इशारे पर नचाया जाता है। कुछ देवताओं के सोल ऐजेन्ट बनते हैं और कुछ भविष्य वक्ता भाग्य विधाता होने का करते हुए अपने को सिद्ध पुरुष के रूप में चमत्कारी घोषित करते हैं। अब अणिमा, महिमा जैसी हवा में उड़ने, पानी पर चलने और अदृश्य बनने जैसी करामातों के दावेदार तो नहीं रहे, पर बाजीगरों की तरह वालों में से बालू निकालने वालों की अभी भी कमी नहीं है। आश्चर्य होता है कि यह सारा भ्रम-जंजाल अध्यात्म के साथ कैसे जुड़ गया। देवता के साथ मलीनता का यह अम्बार किस प्रकार चिपक गया?

अध्यात्म क्षेत्र के साधनों को जहाँ दूरदर्शी विवेकवान होना चाहिए था। तथ्य और सत्य की परख में रस लेना चाहिए। संयमी और परोपकारी जैसी प्रवृत्ति से उन्हें विभूतिवान् रहना चाहिए था। वहाँ मुफ्त में मनोकामनाएँ पूरी कराने और कौतूहल देखने की ललक से उनका मनःक्षेत्र किस कारण इतना दिग्भ्रांत और कलुषित हो गया? पुरातन उदाहरणों में अध्यात्म क्षेत्र के साधक और प्रवक्ता ऋषि स्तर के ही दीख पड़ते हैं उन्हें ऋषि कल्प जीवनयापन करते और अहिर्निश लोक सेवा में प्राण-पण से बिरत पाते हैं, पर आज तो सब कुछ उलटा है। तथाकथित साधु सन्तों की मनःस्थिति और परिस्थिति को कसौटियों पर कसने से प्रतीत होता है कि महानता के साथ-साथ प्रवंचना और विडम्बना ने बुरी तरह आधिपत्य जमा रखा है।

चमत्कारवाद की घुसपैठ इस क्षेत्र में कैसे हुई? इसका आधार तपश्चर्या के आधार पर उपलब्ध होने वाली अतीन्द्रिय क्षमता के साथ जुड़ता या दीखता है। अन्तराल की गहन परतों में साधना के आधार पर प्रवेश करने वाले निस्सन्देह अतीन्द्रिय क्षमताएँ अर्जित करते रहे हैं। अति मानोस का निखार होने पर व्यक्ति अति मानव बनता है। ऐसों के पास देवोपम स्तर की क्षमताएँ होनी चाहिए। होती भी हैं। पर प्रश्न यह है कि उनका प्रदर्शन कौतुक कौतूहल प्रदर्शित करने के लिए क्यों है? क्यों न उस विशिष्टता के आधार पर लोक-मंगल को सामयिक एवं महत्वपूर्ण आवश्यकताओं को पूरा किया जाय। पुरातन काल की ऋषि परम्परा यही थी। आत्म बल के धनी एकोंएक महामानव ने अपने उपार्जन को सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए प्रयुक्त किया है। किसी को चमत्कार तमाशे नहीं दिखाये। फिर आज उस प्रदर्शन की आवश्यकता क्यों पड़ गई?

यह तथ्य है कि किसी क्षेत्र में असाधारण पुरुषार्थ करने पर उसकी असाधारण उपलब्धि भी हस्तगत होती है। सामान्य तथा स्थूल शरीर ही व्यवहार में आता है और उससे सम्बन्धित बलिष्ठता, बुद्धिमत्ता, सम्पन्नता प्रतिभा जैसी सम्पदाएँ उपार्जित की जाती हैं। सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर के क्षेत्र और भी अधिक महत्वपूर्ण विभूतियों के भरे पड़े हैं। उनमें सृष्टा का समस्त वैभव बीज रूप से प्रतिष्ठित है। प्रयत्न कर्त्ता उस सम्पदा को कुरेदने, उभारने और बटोरने में समर्थ हो सकते हैं अतीन्द्रिय क्षमता का भण्डार हस्तगत कर सकते हैं और देव मानव स्तर के चमत्कारी सिद्ध पुरुष बन सकते हैं। अध्यात्म क्षेत्र के वरिष्ठों में ऐसी ऋद्धि-सिद्धियों के समय-समय पर दर्शन होते भी रहते हैं। इससे इतना तो सिद्ध होता है कि तपश्चर्या एवं योग साधना के सहारे सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर की क्षमता को देवोपम स्तर तक उभारा उठाया जा सकता है।

इतना जानने वालों को इतना और भी जानना चाहिए कि जिनके पास ऐसी विभूतियाँ होंगी वे उनका प्रदर्शन कौतुक कौतूहल दिखाने जैसी आत्मश्लाधा एवं बालक्रीड़ा कभी भी न करेंगे और न ठगों की चापलूसी से प्रभावित होकर कुपात्रों की मनोकामना के निमित्त लुटाने की भूल करेंगे। उन्हें ध्यान रहता है कि इस उपार्जन का सदुपयोग मात्र लोक मंगल एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन के निमित्त ही हो सकता है। ऐसी दशा में कौतुक देखने वालों और मुफ्त का वरदान बटोरने वालों का पक्ष हेय रहने से उन्हें निराश ही रहना पड़ता है। अध्यात्म क्षेत्र के सुसम्पन्नों में से प्रत्येक का स्तर एवं प्रयास यही रहा है। उनका उच्चस्तरीय उपार्जन व्यक्ति विशेष को इन्द्र कुबेर बनाने का नहीं वरन् मात्र लोक मंगल के लिए नियोजित रहा है। पुरातन काल के ऋषियों से लेकर मध्यकालीन बुद्ध, शंकर, समर्थ, परमहंस, गाँधी जैसे सच्चे अध्यात्मवादी अपनी शक्ति को महान प्रयोजन में ही निरत रखे रहे हैं। सुपात्रों को सत्प्रयोजनों के लिए ही उनने अपने अनुदान हस्तान्तरित किये हैं। किसी भी लुटेरे की दाल उनके आगे नहीं गली। व्यक्तिगत सम्पन्नता पाने और गुलछर्रे उड़ाने के लिए कोई भी धूर्त उनकी जेब काट लाने में कुछ भी विडम्बना रच कर सफल नहीं हो सका। सन्त सामान्य जनों की मनोदशा मोड़ते और सुधारते हैं। सस्ती चापलूसी के बदले अपने बहुमूल्य भण्डारों को कुपात्रों को लुटाने या चित्र-विचित्र करामातें दिखाने की भूल सच्चे अध्यात्मवादियों में से आज तक किसी ने भी नहीं की है। जिनकी जेब खाली है उन्हें ही करोड़पति जैसी शेखी बघारने और विडंबना रचने में संलग्न देखा जाता है। विभूतिवान् जिस घोर तप साधना से सिद्धियों को अर्जित करते उसी जिम्मेदारी के साथ उसका उपयोग भी फूँक-फूँक कर करते हैं। लुटाने का पाखंड रचने वालों में से शत-प्रतिशत ढपोर शंख ही होते हैं।

अतीन्द्रिय क्षमताओं की ऋद्धि-सिद्धियाँ, ऋषि स्तर के विशिष्ट व्यक्तियों के पास ही होती हैं और उनका प्रयोग विशिष्ट प्रयोजनों के लिए ही होता है। सार्वजनीन सिद्धियाँ वस्तुतः तीन ही हैं- (1) आत्म सन्तोष (2) जन सहयोग (3) दैवी अनुग्रह। इन तीनों को हर कोई सच्चा अध्यात्मवादी हाथोंहाथ प्राप्त करता है। उनके महत्व प्रतिफल का रसास्वादन करते हुए अपने आपको कृत-कृत्य अनुभव करता है। यह सिद्धियाँ ऐसी हैं जिन्हें पारस, कल्पवृक्ष और अमृत की उपमा निःसंकोच दी जा सके।

आत्म सन्तोष के लिए ही लोग दिन रात श्रम करते और भले-बुरे कामों में हाथ डालते हैं। सम्पन्नता, बुद्धिमत्ता, प्रतिभा कितनी ही अधिक अर्जित करने पर उनका लाभ शरीर भर को मिलता है। आत्मा की क्षुधा पिपास आन्तरिक उत्कृष्टता एवं उदार सेवा, साधना से ही तृप्त होती है। सच्चे अध्यात्मवादी को इन्हीं दो प्रयत्नों में सर्वतोभावेन निरत होना पड़ता है फलतः अजस्र मात्रा में आत्म सन्तोष मिलता है। जड़ें मजबूत एवं गहरी होने से ही वृक्ष सुविकसित होता है। आत्मा के समर्थन एवं आशीर्वाद से ही व्यक्तित्व की महानता उभरती है। फलतः साहस, उत्साह और संकल्प की कमी नहीं रहती। आत्म सन्तोष और आत्मबल अन्योन्याश्रित है। जहाँ एक होगा वहाँ दूसरा भी रहेगा। अंतर्द्वंद्व ही आत्मबल को नष्ट करते हैं। जहाँ आत्मा और परमात्मा की व्यक्ति और आदर्श की एकता है वहाँ हर घड़ी प्रसन्नता बनी रहेगी और उल्लास भरी उमँग उठती रहेगी।

आत्मबल संसार का सबसे बड़ा बल है। जहाँ-जहाँ होता है वहाँ अन्य बल भीतर से उपजते बढ़ते भी हैं और बाहर से खिंचते भी चले आते हैं। आत्म सम्पदा के धनी लोगों को भौतिक सम्पन्नता की भी कमी नहीं रही। जहाँ क्षुद्रता से घिरे लोग कुकर्म करते और हंस स्तर अपनाने पर भी दरिद्र उद्विग्न बने रहते हैं। वहाँ आत्मबल के धनी बुद्ध और गाँधी की तरह हर स्तर की विभूतियों से घिरे रहते हैं। यह बात दूसरी है कि वे क्षुद्रजनों की तरह अपना पराया सब कुछ उदरस्थ ही नहीं करते रहते वरन् उसे सत्प्रयोजन के निमित्त भगवान के खेत में बोते रहते हैं ताकि अदृश्य स्तर की दिव्य विभूतियों से उनका कोष हजारों गुना बढ़ता रहे। जिसे खिलाने का मजा आ गया वह खाने में कटौती करता है ईश्वर चन्द्र विद्यासागर की तरह दूसरों को खिलाता रहता है। शबरी इसी आधार पर कृत-कृत्य हुई थी। गोपियों ने यही नीति अपना कर भगवान को ललचाया और आँगन में नचाया था। क्षुद्रजन खाना ही खाना जानते हैं जबकि महान खिलाने का आनन्द लूटते और आत्म-संतोष आत्मबल के धनी बनते हैं।

(2) अध्यात्म क्षेत्र की दूसरी सिद्धि है- लोक सम्मान, जनसहयोग। हर किसी की इच्छा लोक सम्मान पाने की होती है। सजधज, ठाट-बाट में ढेरों समय और धन इसीलिए लगता है कि लोगों की आँखों में चकाचौंध उत्पन्न हो, वरिष्ठता स्वीकारें, प्रभावित हों और वाह-वाह कहने लगें। इस ललक की पूर्ति के लिए मनुष्य निरन्तर लालायित रहता है। ‘स्टेट्स’ बनाना ‘स्टैण्डर्ड मेन्टेन’ करना इसी को कहते हैं। इस विडम्बना में मनुष्य का अधिक चिन्तन, श्रम एवं उपार्जन खप जाता है फिर भी पल्ले कुछ नहीं पड़ता, वरन् उल्टे ईर्ष्या का शिकार होना पड़ता है। अपव्ययजन्य तंगी और उसकी पूर्ति के लिए अनीति अपनाने का एक कुचक्र अलग ही चल पड़ता है।

अध्यात्मवादी को आत्म परिष्कार और लोक मंगल में संलग्न सत्प्रवृत्तियां जन-जन का मन जीत लेती हैं। सहज श्रद्धा उत्पन्न करती हैं। श्रेष्ठता को सदा वरिष्ठता मिलती है और उसे हार्दिक स्नेह सम्मान मिलता है। शत्रु भी उसकी प्रशंसा करते हैं। इसी आधार पर मनुष्य प्रामाणिक बनता है। जो प्रामाणिक है उसे भरपूर सम्मान मिलता है। यह तथ्य भी स्मरण रखने योग्य है कि सम्मान के साथ सहयोग भी जुड़ा हुआ है। जो जिसकी इज्जत करेगा उसका अनायास ही सहयोग करेगा सहयोग ही वह आधार है जिसके सहारे बहुमुखी प्रगति के पथ पर अग्रसर होना किसी के लिए सम्भव होता है। महामानवों को सफलताएँ इसी आधार पर सम्भव हुई हैं। उन्होंने अपनी टाँगों से छलाँग नहीं लगाई वरन् लोगों ने कंधों पर बिठाकर उन्हें ऊँचा उठाया और सफल बनाया है। इस स्तर की सफलता भले ही आँखों से तत्काल प्रत्यक्ष न दीखती हो, पर उसकी परोक्ष परिणति को तनिक-सी गहराई में उतरने पर सहज ही जाना परखा जा सकता है। इस स्तर की सफलताओं को सच्चे अर्थों में सिद्धि कहा जा सकता है। इससे अपना ही नहीं दूसरे असंख्यों का भी भला होता है। अगणितों को अनुकरण की प्रेरणा मिलती है और वातावरण में उत्कृष्टता का पक्षधर उभर आता है।

(3) दैवी अनुग्रह तीसरी सिद्धि है। सत्प्रयोजन में आमतौर से सर्वसाधारण का व्यंग, उपहास, असहयोग विरोध ही रहता है। प्रचलन के विपरीत कदम बढ़ाने वाले के मार्ग में लोग पग-पग अड़ंगे अटकाते, निरुत्साहित करते और विपरीत परामर्श देते हैं। ऐसी दशा में श्रेय पथ के पथिक को आत्मविश्वास के सहारे एकाकी आगे बढ़ता होता है। स्पष्ट है कि विरोध में सारा वातावरण और प्रयास में साधन रहित एकाकी। फिर सफलता कैसे मिले? इस संदर्भ में सदा दैवी शक्तियाँ सहायता करतीं और प्रतिकूलता में अनुकूलता से बदलती देखी गई हैं। इन्हीं के समर्थन से आदर्शवादी संकल्प को स्थिर रखने एवं साहस बनाये रहने में समर्थ होता है। आदर्शवादियों की सफलता का यही परोक्ष इतिहास है। उन्हें दैवी अनुग्रह के सहारे ही भँवरों को पार करते हुए पार पहुँचने का सौभाग्य मिला है। इतना ही नहीं उसने अपनी नाव खेते हुए अगणित अन्यान्यों की भी पार उतारा है।

अणिमा, महिमा लघिमा आदि सिद्धियाँ सम्भव हैं या नहीं? चमत्कार दिखाने और निहाल बनाने की जादूगरी का अध्यात्म से कोई सम्बन्ध है, या नहीं? इसका निर्णय हर विज्ञजन को अपने विवेक से करना चाहिए। किन्तु इस तथ्य को निश्चित रूप से गिरह बाँध लेना चाहिए कि अध्यात्म मार्ग का अवलम्बन करने पर व्यक्तित्व में उत्कृष्टता के अभिवर्धन का जो लाभ मिलता है, उसके सहारे आत्म सन्तोष, जन सहयोग एवं दैवी अनुग्रह की अजस्र वर्षों निश्चित रूप से होती है।


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