“मनीषा” आत्मिकी के क्षेत्र में प्रवेश करे

June 1983

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व्यक्ति और समाज को भौतिक शक्तियों और सम्पदाओं के सहारे प्रगति पथ पर अग्रसर होने एवं सुखी समुन्नत बनने का अवसर मिला है। यह एक सुनिश्चित तथ्य है। आदिमकाल में जबकि इस स्तर की उपलब्धियाँ नहीं मिल सकी थीं तो व्यक्ति कितना असमर्थ और समाज कितना अस्त-व्यस्त रहा होगा इसकी कल्पना करने में किसी को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिये।

आग, पहिया, कृषि, पशुपालन, वस्त्र, आच्छादन, चिकित्सा, उच्चारण, लेखन जैसी वे उपलब्धियाँ जो आज दैनिक जीवन का अविच्छिन्न अंग बन गई हैं, किसी समय इन सबकी उपलब्धि तो दूर किसी को इनकी जानकारी तक नहीं होगी। उन दिनों का आज के साथ तुलना करने पर मानवी सत्ता की स्थिति में जमीन आसमान जैसा अन्तर दीखता है। उन दिनों डार्विन के उस प्रतिपादन पर किसी को भी सन्देह करने की गुंजाइश नहीं थी कि मनुष्य बन्दर की औलाद है। सचमुच ही उन दिनों बन्दर और मनुष्य में कोई विशेष अन्तर नहीं रहा होगा।

मानवी प्रगति में उसकी बुद्धि को सराहा और प्रमुख माध्यम कहा जाता है, पर यह भुला दिया जाता है कि बुद्धि को विकसित एवं प्रखर बनाने के लिए भी कोई क्षेत्र या आधार चाहिए। कहना न होगा कि समृद्धि और प्रगति की सुखद उपलब्धियों के निमित्त ही मनुष्य की ललक जागी और इसके लिये उसने भौतिक क्षेत्र का मन्थन आरम्भ कर दिया। इस प्रयास में सफलता मिली और वह क्रमशः अधिकाधिक समृद्ध, सशक्त एवं समुन्नत होता चला गया।

मानवी सत्ता ने भौतिकता के समुद्र में गहराई तक प्रवेश करने और उसमें से बहुमूल्य मणि मुक्तक ढूँढ़ निकालने की तत्परता बरत कर ही प्रगति के उस स्तर तक पहुँचने में सफलता पाई है जहाँ कि वह आज है। बुद्धि वैभव भी इसी आधार पर बढ़ा है। अन्य प्राणी अपने निर्वाह भर से सन्तुष्ट रहे और जो सहज सरलता से उपलब्ध था, उसी पर सन्तोष करके दिन गुजारते रहे। जबकि मनुष्य ने प्रकृति के साथ घनिष्ठता जोड़ी और उसके साथ तादात्म्य स्थापित कर बहुमूल्य पयपान आरम्भ कर दिया। यही वह कौशल है, जिसके सहारे उसे प्रगतिशीलता का सृष्टि के मुकुटमणि-ईश्वर के राजकुमार होने का श्रेय सौभाग्य मिल सका। इस प्रयत्नशीलता को अब उस दिशा में चल पड़ना चाहिए जिससे सुविधाओं का उपयोग शालीनता के साथ कर सकना सम्भव हो सके। यह सब कैसे सम्भव हो- प्रयासों को किस आधार पर नियोजित किया जाय, इसी के आधार पर मानव जाति का भावी जीवन क्रम निर्धारित किया जा सकता है। इसके लिये पिछले पृष्ठ भी उलटने होंगे- विज्ञान की श्रेष्ठता को भी स्वीकारना होगा तथा पूर्वाग्रहों से मुक्ति पाकर एक सुनिश्चित दिशाधारा बनानी होगी।

आदिम युग से लेकर आज के युग में मानव को पहुँचाने, उसे प्रकृति का स्वामी- अधिष्ठाता बनाने में विज्ञान की महत्वपूर्ण भूमिका को दृष्टिगत रख उसे देवाधि देव कहना किसी भी प्रकार अत्युक्तिपूर्ण नहीं होगा। मानवी प्रकृति भी इतनी विलक्षण है कि सम्भावनाओं के स्रोत सामने देख प्राप्य लाभों से वह कभी वंचित न होना चाहेगी। यही कारण है कि इस खदान से मणि-मुक्तकों को ढूँढ़ तलाशने का क्रम रुका नहीं है। निरन्तर नूतन शोध प्रयास इस क्षेत्र में चल रहे हैं और मनुष्य संसाधनों से स्वयं को सम्पन्न बनाता चला जा रहा है। उपलब्धियों के सदुपयोग तक तो बात मानी जा सकती है। परन्तु यदि इस सफलता को अति उत्साह में आकर असन्तुलित दोहन की स्थिति में पहुँचा दिया जाय तो इससे अनेकानेक संकट उत्पन्न होंगे। ऐसा ही कुछ इन दिनों हो भी रहा है। अमर्यादित उपयोग से महाप्रलय जैसी चुनौती मानव के सामने आ खड़ी हुई है, उसके पीछे यही दुर्बुद्धि काम करती दिखाई देती है। विज्ञान क्षेत्र के मूर्धन्य मनीषी इसी असमंजस से ग्रस्त हैं कि मनुष्य को अधिक सुखी-समुन्नत बनाने के लिये कैसे इन उपलब्ध संसाधनों को सदुपयोग की ओर मोड़ा जाय? यदि समाधान न मिला तो विज्ञान का देव रूप समाप्त होकर प्रलयंकर स्वरूप जन्म ले लेने की स्थिति आ सकती है। नियति किसी भी स्थिति में औचित्य का सीमा उल्लंघन स्वीकार नहीं कर सकती।

कैसे इस दुरुपयोग को रोका जाय और उपयोगी पक्ष को अपनाया जाय, यह आज के युग की सबसे बड़ी समस्या है जो तुरन्त समाधान चाहती है। समग्र मंथन करने पर एक ही निष्कर्ष निकलता है कि विज्ञान को आत्मिकी का सुदृढ़ सम्बल प्रदान किया जाय। निर्धारण की कसौटी ‘उत्कृष्ट आदर्शवादिता’ को मानकर चला जाय, तभी विज्ञान की अमृतोपम उपलब्धियों का सही सदुपयोग सम्भव है। चिन्तन में उत्कृष्टता एवं व्यवहार में औदार्य पूर्ण सहकारिता की सत्प्रवृत्तियों को हम ‘आध्यात्मिक’ नाम दे सकते हैं।

असीम प्राप्त करते चले जाना और एक विशिष्ट वर्ग को उसके निहित स्वार्थों की पूर्ति में प्रयुक्त करना यदि निषिद्ध ठहराया जा सके, जो उपलब्ध है, उसे औचित्य की मर्यादा में मिल बाँट कर प्रयुक्त किये जाने की बात विचारी जा सके तो इतने भर से प्रस्तुत समस्याओं की विभीषिकाओं का सहज समाधान हो सकता है। तब फिर विश्व व्यवस्था का रूप ही दूसरा होगा। “वसुधैव कुटुम्बकम्” की नीति को जब, जितना, जहाँ भी जिस प्रकार भी अपनाया जायगा वहाँ से उसी अनुपात में विग्रहों और संकटों की जड़ कटती चली जायेगी। प्रलोभन एवं दमन की सामयिक शक्ति को स्वीकार करते हुए भी यह मानना होगा कि सुख-शान्ति की चिरस्थायी साधना के लिये उदार आदर्शवादिता को व्यवहार में उतारे बिना और कोई मार्ग है नहीं। प्रकृति के अनुदान और विज्ञान के वरदान अब तक इतनी अधिक मात्रा में उपलब्ध हो चुके हैं कि उनके सहारे मानव समुदाय के 450 करोड़ सदस्य ही नहीं, अन्यान्य प्राणियों और वृक्ष पादपों को हरीतिमा से परिपूर्ण मात्रा में सुसम्पन्न कर सकते हैं और इस दुनिया को सुख सुविधा से ही नहीं, स्नेह सौजन्य के आदान-प्रदान से कृतकृत्य कर सकते हैं। उस स्थिति में आज की अपनी आशंका, अविश्वास और आतंक से भयभीत दुनिया कल शान्ति, समृद्धि एवं प्रगति के आनन्द उल्लास का भरपूर रसास्वादन कर सकती है। दृष्टिकोण बदलने भर की देर है। अध्यात्मवादी उत्कृष्टता को यदि नीति-निर्धारण का आधार माना जा सके तो दरिद्रता, अशिक्षा, उच्छृंखलता, रुग्णता, दुर्बलता, आशंका जैसी एक भी विपत्ति को पैर जमा सकना सम्भव न हो सकेगा। बारीकियों में जाने की इस समय जरूरत नहीं, व्यवहार में उतारने के लिये कार्यक्रम बना डालने वाले विज्ञजन हर क्षेत्र में भरे पड़े हैं। उन्हें यदि विश्वास दिलाया जा सके कि उपलब्धियों का विनियोग उत्कृष्टता की पक्षधर आदर्शवादिता की- ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की- आध्यात्मिकता की नीति अपना कर किया जाना है तो नई दुनिया का ऐसा नक्शा बनने में देर नहीं लगेगी जिसमें न कहीं विग्रह होंगे, न अभाव, न अनाचार। सर्वत्र स्नेह सौजन्य का बसन्ती वातावरण छाया दिखेगा और उस परिस्थिति में हर व्यक्ति उसी अपनी धरती पर तथाकथित स्वर्ग लोक जैसी गुदगुदाने वाली अनुभूतियों का आनन्द लेता हुआ जीवनयापन करेगा। यहाँ यह भी ध्यान रखने योग्य है कि उस दिशा में उपेक्षा ही बरती जाती रही है और प्रचलित उच्छृंखलता को यथास्थान बनाये रखा गया तो इतना और नोट करना चाहिये कि राजनीति, अर्थनीति, बुद्धि कौशल, विज्ञान, वैभव आदि के सहारे जो भी समाधान प्रयत्न चल रहे हैं, वे क्षणिक चमत्कार भर दिखा सकने की फुलझड़ी छोड़ते रहेंगे। सघन तमिस्रा का आत्यन्तिक समाधान मात्र उस औचित्य एवं औदार्य को अपनाये बिना और किसी प्रकार सम्भव नहीं है, जिसे पिछले दिनों अध्यात्म के नाम से जाना जाता रहा है।


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