स्वाध्याय मण्डल- प्रज्ञा संस्थान का संस्थापन संचालन

June 1983

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देखने में छोटा किन्तु परिणाम में दूरगामी परिणति उत्पन्न करने वाला एक कार्यक्रम सभी प्रज्ञा परिजनों के सम्मुख नियति ने प्रस्तुत किया है। वह है- स्वाध्याय मण्डलों का संस्थापन संचालन। अपने समय का यह सर्व सुलभ कार्य ऐसा है जिसमें युग समस्याओं का समाधान भली प्रकार खोजा और पाया जा सकता है।

प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत सभी जागृत आत्माओं को एक काम सौंपा गया है कि वे अपने-अपने संपर्क क्षेत्रों में युगान्तरीय चेतना का आलोक वितरण नियमित रूप से करते रहने की जिम्मेदारी उठायें। यदा-कदा धूमधाम कर देने से बात बनती नहीं। विद्या तब आती है जब पढ़ने का क्रम निरन्तर चलता रहे। कलाकार, शिल्पी, गायक, दुकानदार, कृषक, ग्वाले अपना कार्यक्रम निरन्तर जारी रखते हैं। एक दिन रोटी खाने और महीने भर के लिए निश्चित हो जाने जैसी बात कहाँ बनती है। संपर्क क्षेत्र की विचारणा को परिमार्जित करने का काम ऐसा नहीं है, जिसे किसी धूमधाम भरे सम्मेलन समारोह भर में सम्पन्न किया जा सके। यह नित्य की घिसाई, रगड़ाई जैसा प्रसंग है। झाडू लगाने, नहाने, कपड़े धोने, दाँत माँजने जैसे काम ऐसे हैं जिन्हें बार-बार आये दिन करते रहने की आवश्यक पड़ती है। चिरकाल से जमे हुए कुसंस्कारों और कुविचारों को झटके से नहीं वरन् रेती से रेत कर हलका करना पड़ेगा। पत्थर को लम्बे समय तक रगड़ते रहकर ही उसे चिकना बनाया जाता है। पगडण्डी के निशान एक बार की यात्रा भर से कहाँ बनते हैं। यह सभी कार्य समय साध्य है और निरन्तर का श्रम, समय एवं मनोयोग माँगते हैं।

प्रज्ञा साहित्य पिछले दिनों भी व्यक्ति और समाज की अनेकानेक समस्याओं का नितान्त गम्भीर पर्यवेक्षण करने के उपरान्त ऐसे समाधान प्रस्तुत करता रहा है, जो तथ्यपूर्ण भी हैं और व्यावहारिक भी। इसे जिनने पढ़ा है वे युग समस्याओं से अवगत ही नहीं, उनके समाधान सम्पन्न करने के लिए अनुप्रमाणित भी हुए हैं। यही कारण है कि इन दिनों तक प्रज्ञा परिवार मत्स्यावतार की तरह बढ़ते-बढ़ते प्रायः बीस लाख जितनी संख्या में जा पहुँचा है। यह पाठक, बाधक मात्र नहीं है। उनमें से अधिकाँश की चेतना उभरी है और किसी न किसी रूप में ये युग परिवर्तन की इस ऐतिहासिक प्रक्रिया में प्रत्यक्ष योगदान की भावभरी भूमिका निभा रहे हैं।

प्रज्ञा साहित्य के सृजन में इसी बसन्त पर्व से एक नई कड़ी जुड़ी है। मिशन के सूत्र संचालक ने हर दिन एक फोल्डर पुस्तिका लिखना आरम्भ किया है और उसका छपने का प्रबन्ध भी हाथों हाथ हो गया है। बड़ी पुस्तकें महँगी होती हैं, उनके खरीदने, पढ़ने की गति बहुत धीमी रहती है। समय की माँग है कि दूरदर्शी विवेकशीलता जगाने का प्रज्ञा अभियान धीमी गति से नहीं आँधी तूफान की तरह अग्रगामी बनाया जाय। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए युग समस्याओं के हर पथ पर प्रकाश डालने और समाधान बताने वाला साहित्य ऐसा हो जो सस्ता, टिकाऊ एवं व्यस्त लोगों के लिए भी जल्दी पढ़ लिये जाने जैसी सुविधा से सम्पन्न हो। हर दिन एक फोल्डर के लिखे जाने का इस वर्ष गुरुदेव द्वारा लिया गया व्रत इसी आवश्यकता की पूर्ति करता है। युगान्तरीय चेतना का यह आलोक ऐसा है, जिस घर-घर पहुँचने में हम सबका उत्साह मूर्धन्य रहना चाहिए।

इस प्रक्रिया को सुनियोजित रीति से सम्पन्न करने के लिए स्वाध्याय मण्डली की स्थापना पर पूरा जोर दिया गया ओर प्रत्येक प्रज्ञा परिजन को कहा गया है। कि वे अपनी स्वतन्त्र सृजन शक्ति का परिचय देने के लिए निजी प्रयत्न पुरुषार्थ के सहारे एक स्वाध्याय मण्डल स्थापित करें और उसे उमंग भरे वातावरण में सजीव सक्रिय रखें।

स्वाध्याय मण्डल स्थापना में एक व्यक्ति संस्थापक होता है। वह अपने चार साथी और तलाश करके पाँच की एक कार्यकारी समिति बना लेता है। यह पाँच सदस्य अपना एक कार्यक्षेत्र बनाते हैं, जिसके न्यूनतम पाँच सदस्य हों। पाँच संचालक पच्चास सहयोगी- इस प्रकार वह तीस की मण्डली बन जाती है। संचालक स्वयं नित्य प्रज्ञा साहित्य पढ़ते और अपने पाँच सहयोगियों से नियमित रूप से पढ़ाते रहते हैं इस प्रकार एक मण्डल के अंतर्गत प्रायः तीस सदस्य ऐसे होते हैं जो नियमित रूप से युग साहित्य के पढ़ने का क्रम चलाते हैं। उसमें संगठन भी है, संपर्क भी और प्रोत्साहन भी। विचारणा को गहराई तक हृदयंगम कराना हो तो न केवल उस विचारधारा के साथ नियमित संपर्क साधना पड़ता है वरद् साथ में व्यक्तिगत परामर्श, प्रोत्साहन का भी दबाव रहता है। प्रज्ञा साहित्य को इंजेक्शन की औषधि कहा जाय तो संपर्क परामर्श को उसे रक्त तक पहुँचाने वाली पैनी सुई मानना होगा। लाभ नियमितता से ही होता है, इस तथ्य को ध्यान में रखा जाना चाहिए। निरन्तरता ही फलवती होती है, उसे भुला नहीं दिया जाना चाहिए।

स्वाध्याय मण्डल का यह जन संपर्क कार्यक्रम हुआ। संचालक लोग अपना समय देकर इसे चलायें। इस संदर्भ में नया प्रज्ञा साहित्य मँगाते रहने की दूसरी आवश्यकता सामने आती है। इस निमित्त एक रुपया हर दिन का बजट रखा गया है। एक रुपया प्रतिदिन अर्थात् तीस रुपया मासिक। इस राशि से तीस व्यक्तियों को नियमित रूप से युग चेतना के साथ मुफ्त में हर दिन संपर्क साधते रहने का अवसर मिल जाता है। यह पैसा पाँचों सदस्य बीस-बीस पैसा नित्य एक ज्ञानघट में जमा करते हुए जुटा लिया करें। इस प्रकार थोड़ा-सा समयदान और अंशदान देने से कहीं भी यह स्थापना भली प्रकार सम्पन्न हो सकती है और उत्साह भरे वातावरण में नियमित रूप से चलती रह सकती है।

तीन व्यक्तियों के यह विचार परिवार हर जगह गठित होना चाहिए। प्रत्येक प्राणवान प्रज्ञा परिजन को इस स्थापना का श्रेय लेना चाहिए। यह ऐसा काम है जिसे कोई भी उत्साही, भावनाशील बिना किसी अड़चन के कहीं भी करता रह सकता है। पाँच साथी मिलने में कठिनाई हो तो वह कार्य अपने निज के बलबूते भी करते रहा जा सकता है। तीस व्यक्तियों तक प्रज्ञा साहित्य पहुँचाने वापस लेने का कार्य एक व्यक्ति भी कर सकता है। हर किसी को निजी कार्यों में अनेकों के साथ संपर्क साधना होता है। हर किसी के कुछ न कुछ मित्र परिचित होते हैं। उन्हें इस बहुमूल्य साहित्य को बिना कुछ खर्च किये पढ़ते रहने भर का कार्य ऐसा नहीं है जिसमें कोई विघ्न आये या संकट खड़ा हो। इसी प्रकार एक रुपया प्रतिदिन का बजट भी ऐसा नहीं है जिसे कोई भावनाशील व्यक्ति अपने अन्यान्य खर्चों में कटौती करके उसे जुटा न सके। इन दिनों अस्सी पैसे की एक कप चाय आती है। इतनी राशि अपनी जेब से सब स्वजन सम्बन्धियों से थोड़ा-थोड़ा इकट्ठा करके सहज ही पूर्ति हो सकती है। दोनों ही कार्य ऐसे हैं जिन्हें कोई एक प्रतिभावान भली प्रकार करता रह सकता है। फिर समयदान या अंशदान में अन्य लोग भी हाथ बटाने लगे तब तो कहना ही क्या?

इन दिनों हर महीन तीस फोल्डर- पुस्तिकाएं प्रकाशित होती हैं। प्रकाशन, मुद्रण, विक्रय का कार्य युग निर्माण योजना मथुरा से होता है इसलिए जिन्हें मँगाना हो वहीं से मँगायें। प्रत्येक का मूल्य चालीस पैसा है। इस प्रकार महीने में बारह रुपये की फोल्डर पुस्तिकाएँ तथा अठारह रुपये की अन्य पुस्तिकाएँ मिलाकर तीस रुपये मासिक का बजट पूरा हो जाता है। बसन्त से अब तक की 75 पुस्तिकाएँ छप चुकीं जिनका मूल्य 30 रु. है। पहली बार की किश्त में इन्हें मँगाया जा सकता है और स्वाध्याय परिवार के जितने सदस्य आरम्भ में बने, उन्हें एक-एक करके नित्य एक पुस्तिका पढ़ाने का क्रम नियमित रूप से चलाया जा सकता है। आगे से सामान्य क्रम चलेगा। बारह रुपये के फोल्डर और अठारह रुपये की पुस्तकें। युग निर्माण योजना मथुरा के पते पर पत्र भेजकर पुस्तक की सूची मँगाई जा सकती है। जुलाई से दिसम्बर तक के छः महीनों के लिए उसमें से यह चुना जा सकता है कि किस महीने किन पुस्तकों का पार्सल पहुँचे। फोल्डरों के नाम पूछने की आवश्यकता नहीं है। वे तो हर महीने तीस की संख्या में नये लिखे जाते और प्रकाशित होते ही रहेंगे।

स्वाध्याय मण्डलों के साथ प्रज्ञा संस्थान नाम को भी जोड़ा गया है। इनका पूरा नाम है ‘स्वाध्याय मण्डल प्रज्ञा संस्थान’। उन्हें बिना इमारत के छोटा प्रज्ञापीठ समझा जाना चाहिए। उनके जिम्मे भी वही कार्यक्रम सौंपे गये हैं जो बड़े प्रज्ञा पीठों को बड़े रूप में वहन करने पड़ रहे हैं। स्वाध्याय से शुभारम्भ होने के कारण उसकी प्रधानता रखी गई है। पर जड़ जमते ही पेड़ों से नई पत्तियाँ निकल पड़ेंगी। पंचसूत्री कार्यक्रम इन दिनों प्रायः सभी प्रज्ञा संस्थानों को चलाना पड़ रहा है। (1) शिक्षितों को नित्य नियमित रूप से प्रज्ञा साहित्य पढ़ाना वापिस लेना (2) जन्म दिवसोत्सव के माध्यम से परिवार निर्माण की ज्ञान गोष्ठियाँ चलाना (3) स्लाइड प्रोजेक्टर एवं टेप रिकार्डर के माध्यम से हर गली मुहल्ले में सत्संग की व्यवस्था (4) दीवारों पर आदर्श वाक्य लेखन एवं घर कमरों में उन्हें कलण्डरों की तरह लटकाना (5) पर्व त्यौहारों के अवसर पर विशेष प्रज्ञा आयोजन, उस अवसर पर बुराइयाँ छुड़वाने, अच्छाइयाँ अपनाने के लिए संकल्प। यह कार्य ऐसे हैं जिसके सहारे जन जागरण के लिए जन संपर्क का एक सुनिश्चित कार्यक्रम चलता है। इसके बिना जन समर्थन जनसहयोग मिल नहीं सकेगा और नव सृजन के निमित्त जो बहुमुखी गतिविधियाँ हाथ में लेनी हैं, उनका सरंजाम जुटेगा नहीं। स्वाध्याय मण्डल यदि उपरोक्त पंचसूत्री संपर्क योजना का प्रथम चरण पूरा कर लेते हैं तो उनमें इतनी सामर्थ्य उभरेगी कि सृजन और सुधार के लिए जो अगले चरण निर्धारित हैं, उन्हें भली प्रकार सम्पन्न कर सकें।

अगले दिनों प्रौढ़ शिक्षा, बालकों की संस्कार पाठशालाएँ, वृक्षारोपण, हरीतिमा सम्वर्धन, स्वास्थ्य सम्वर्धन, व्यायामशालाओं की स्थापन, श्रमदान से स्वच्छता अभियान, गृह उद्योगों का प्रचलन, खर्चीली शादियों का विरोध, नशा निवारण, परिवार नियोजन, जाति-पाँति के नाम पर ऊँच-नीच की मान्यता, पर्दा प्रथा आदि कितने ही सृजनात्मक एवं सुधारात्मक काम हाथ में लेने हैं। स्वाध्याय मण्डल जैसे-जैसे जन समर्थन प्राप्त करते चलने में सफल होंगे वैसे-वैसे उन्हें लोक-मानस के परिष्कार तक सीमित न रहकर सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन, दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के उभयपक्षीय कार्यक्रम हाथ में लेने एवं सफल कर दिखाने होंगे। 500 करोड़ मनुष्यों के भाग्य का निर्धारण इन्हीं दिनों होना है। उसके लिए सृष्टा की परिवर्तन व्यवस्था में सभी प्रज्ञा परिजनों को अपनी भूमिका निभानी है। इसके लिए एक सुनियोजित मंच चाहिए जिसके माध्यम से क्रमिक गति से आगे बढ़ते हुए विश्व का अभिनव निर्माण के लक्ष्य तक पहुँच सकना सम्भव हो सके।

इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए 30 अतिरिक्त फोल्डर प्रश्नोत्तरी के रूप में जुलाई से प्रकाशित होंगे। उनके आधार पर परीक्षा भी ली जायेगी ताकि यह पता चल सके कि वर्तमान प्रज्ञा परिजनों में से कितनों को मिशन के स्वरूप एवं कार्यक्रम की सही जानकारी है कितनों में नहीं। इस आधार पर आधी अधूरी जानकारियों को पूरा किया जायेगा और जिन्हें समग्र जानकारी है उन्हें अपने-अपने क्षेत्र में तद् विषयक शिक्षण सत्र चलाने को कहा जायेगा। जो लोक शिक्षण के उपयुक्त ज्ञान संचय कर चुके हैं, उन्हें ‘उपाध्याय’ उपाधि से अलंकृत करने का निश्चय किया है ताकि वह पुरोहित वर्ग आज के जन समुदाय को मार्गदर्शन कर सकने की स्थिति में समझा जा सके और उससे उपयुक्त काम लिया जा सके।

अखण्ड-ज्योति के प्रत्येक विचारशील पाठक को प्रज्ञा परिजन के नाम से सम्बोधन किया जाता है। उन्हें पाठक या वाचक नहीं समझा जाता वरन् यह आशा की जाती है कि युग सत्र में उनकी छोटी बड़ी भूमिका अवश्य होगी। वे मूक दर्शक नहीं रहेंगे। युग धर्म का निर्वाह करेंगे और युगान्तरीय चेतना का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रज्ञा अभियान को व्यापक बनाने में कुछ उठा न रखेंगे।

इन दिनों प्रत्येक प्रज्ञा परिजन को यह काम सौंपा जा रहा है कि वह एक स्वतन्त्र स्वाध्याय मण्डल प्रज्ञा संस्थान का गठन करे। उसे सुसंचालित रखे और सफल बनाये। इस सुलभ व सरल किन्तु परिणति की दृष्टि से उच्चस्तरीय प्रक्रिया को संपन्न करने में किसी को भी पीछे नहीं रहना चाहिए।


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