अध्यात्म का सही स्वरूप एवं उसका उपयोग

June 1983

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सामान्यतः अध्यात्म प्रयोजनों से भौतिक लाभ उपलब्ध होने की बात कही जाती रही है और इसी के माहात्म्य बताये जाते रहे हैं। उनमें प्रायः आदि और अन्त का ही वर्णन दीख पड़ता है। मध्यवर्ती प्रयासों का विस्तृत उल्लेख कदाचित इसलिए नहीं किया गया है कि जिन दिनों शास्त्र रचे गये अथवा आप्त वचन कहे गये उन दिनों सर्वसाधारण का चिन्तन और चरित्र उच्चस्तरीय था। यह कहने की आवश्यकता नहीं समझी गई कि इस क्षेत्र के प्रवेशकर्ताओं का व्यक्तित्व की दृष्टि से पवित्र एवं प्रखर होना आवश्यक है। इस आरम्भिक शर्त से उन दिनों सभी परिचित थे। अस्तु उसकी चर्चा विस्तारपूर्वक करने की आवश्यकता नहीं समझी गई और आदि तथा अन्त बताते हुए यह अनुमान लगा लिया गया कि मध्यवर्ती प्रक्रिया तो सर्वविदित है उसे तो लोग सामान्य बुद्धि से ही समझ रहे होंगे। फिर पिसे को पीसने से क्या लाभ?

बन्दूक का घोड़ा दबाने और लक्ष्य बेधने का आदेश ही कप्तान देते हैं। वे जानते हैं कि इस प्रयोजन के लिए सिपाही कारतूस को बन्दूक में भरने की आवश्यकता से अवगत होंगे ही। इसमें भूल होने की आदेश देने वाले को आशंका नहीं रहती। कोई सिपाही कारतूस भरे बिना ही घोड़ा दबादे और निशाने पर गोली न लगने पर लक्ष्य, बन्दूक, कप्तान आदि को दोष देने लगे तो उसका आक्रोश निरर्थक माना जायगा और कहा जायगा कि नली में कारतूस डालने का सामान्य ज्ञान क्यों भुला दिया गया।

औषधि खाने और रोग अच्छा होने की ही आमतौर से चर्चा होती रहती है। निदान, पथ्य, परिचर्या मात्रा, अनुपान आदि का विस्तार उस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन नहीं किया जाता क्योंकि हर कोई जानता है कि इलाज कराना है तो यह बातें तो ध्यान में रखनी ही होती हैं, उनको तो हर हालत में अपनाना ही होता है।

डाक्टर बनने के लिए मेडिकल कालेज में प्रवेश- इंजीनियर बनने के लिए इंजीनियरिंग कालेज में भर्ती हेतु दौड़-धूप करनी होती है। अभिभावक और विद्यार्थी यह जानते हैं कि डाक्टर या इंजीनियर बनने पर धन, यश, पद आदि की दृष्टि से सन्तोषजनक स्थिति प्राप्त होती है। कालेजों में दाखिला मिलने पर सदा ध्यान केन्द्रित रहता है। दौड़-धूप होती है और प्रवेश मिलने पर सन्तोष की साँस ली जाती है। उत्साह से आँखें चमकने लगती हैं। इस माहौल में कोई यह प्रसंग नहीं उभारता कि पाँच वर्ष तक मनोयोगपूर्वक पढ़ना पड़ेगा।

उपयुक्त जोड़ी, विवाह निर्धारण और सुखी गृहस्थ जीवन की संगति बिठाते हुए आयोजनकर्ता प्रसन्न होते हैं। इसकी मध्यवर्ती एक शर्त भी है कि वर-वधू अपने-अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों का नियमित रूप से पालन करते रहें। इसकी उपेक्षा पर तो चयन निर्धारण कितना ही उपयुक्त क्यों न हो, विवाह सफल नहीं हो सकता और सुखी गृहस्थ की आशा नहीं बँधती। फिर भी विवाह निर्धारण के लिए दौड़-धूप करते समय उपयुक्त चयन ही पर्याप्त मान लिया जाता है। इसकी चर्चा नहीं होती कि वे दोनों किस प्रकार गृहस्थ की गाड़ी चलायेंगे। सभी जानते हैं कि वर-वधू इतना तो स्वयं ही समझते होंगे।

उपरोक्त उदाहरण इसलिए दिये गये हैं कि अध्यात्म क्षेत्र की साधनाओं का स्वरूप और उनका सिद्धि प्रतिफल बताते समय भी आदि और अन्त का ही वर्णन किया जाता रहा है। इसकी बहुत अधिक चर्चा नहीं की गई कि हर साधक को उत्कृष्ट चिन्तन, आदर्श चरित्र और उदात्त व्यवहार को अपनाने की शर्त पूरी करने पर ही साधक कहलाने का अधिकार मिलता है। ओछा और घिनौना व्यक्तित्व बनाये रखकर कोई मात्र पूजा पाठ के मन्त्र-तन्त्र के सहारे उन सफलताओं को प्राप्त नहीं कर सकता जो माहात्म्य प्रतिपादन में बताई गई हैं।

योग साधन का प्रथम सोपान “यम और नियम” जिनका तात्पर्य है जीवनचर्या में सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों का समुचित समावेश। भक्ति साधना में “नामापराध” का निर्धारण है। नाम तो जपा पाय पर चरित्र दोषों से लिप्त रहा जाय तो उस पर भगवान का नाम बदनाम करने का अपराध लगेगा और छद्म करने का दण्ड सहना पड़ेगा। भक्ति भावना का सत्परिणाम मिलना तो दूर- उलटा भगवान के क्रोध का भागी बनना पड़ेगा। साधनात्मक कर्मकाण्डों की फलश्रुतियों को सुनाते, समझाते समय इस तथ्य के प्रतिपादनकर्त्ताओं को उतना जानकार तो माना ही होगा कि उन्हें इस प्रयास में दृष्टिकोण में उत्कृष्टता और व्यवहार में आदर्शवादिता का उच्चस्तरीय समावेश स्वयं करना एक अनिवार्य शर्त है। इसकी उपेक्षा करने पर तो शेखचिल्ली की तरह उपहासास्पद बनना पड़ेगा। वह बेचारा यह तो भूल करता रहा कि आदि और अन्त की बात सोची, मध्यवर्ती क्रिया प्रक्रिया की उपेक्षा करके रंगीन सपने दीखने लगा और बिना पंखों के उड़ान उड़ने लगा। यह भूल वे लोग भी करते हैं जो मन्त्र जप मात्र से सम्पदाओं और विभूतियों से घर भर लेने के दिवास्वप्न देखते रहते हैं। शिर और पैर ही सब कुछ नहीं हैं, मध्यवर्ती धड़ की भी उपयोगिता और महत्ता है। इस तथ्य से हर किसी को अवगत होना चाहिए। साधना और सिद्धि के मध्य में चिन्तन और चरित्र की उत्कृष्टता- संयम और सेवा की जीवन साधना अनिवार्य रूप से आवश्यक है, यह एक अकाट्य तथ्य है, जिसे समझा जाना चाहिए।

भूल यह होती रही है कि विकृत भ्रमग्रस्तता द्वारा यह समझा या समझाया गया कि देवी देवता पूजा-पाठ के बिना भूखे बैठे रहते हैं और उतना-सा लालच दिखाकर उन्हें कुछ भी कराने के लिए वशवर्ती किया जा सकता है। उपासना को जादूगरी बाजीगरी के समतुल्य ठहराया गया और सोचा गया कि उससे कौतुक कौतूहल देखने दिखाने वाले दृश्य सामने दौड़ने लगते हैं। मनोकामना सिद्धि के लिए यह सस्ते नुस्खे बाल-बुद्धि को बहुत सुहाये। बिना पात्रता और परिश्रम के ऐसे ही हाथों की हेरा-फेरी- जीभ से कुछ कहते रटते भर रहने से ऋद्धि-सिद्धियां छप्पर फाड़कर घर में कूदेंगी, ऐसे ही कुछ अनगढ़ सपने तथाकथित साधकों के सिर पर छाये रहते हैं।

इन्हें सच मानने में मनुष्य की वह मनोवैज्ञानिक दुर्बलता सहायता करती है जिसके अनुसार वह कम परिश्रम से अधिक लाभ कमाने की विडम्बनाएँ रचता रहता है और इस चिन्तन को परिपुष्ट करते-करते दुरभि सन्धियाँ- दुष्प्रवृत्तियाँ अपनाने के लिए कटिबद्ध हो जाता है। जुआ, सट्टा,लाटरी, गढ़ा खजाना आदि की ललक इसी आधार पर उभरती है। उत्तराधिकार में- दान दहेज में विपुल धन मिलने की लिप्सा भी इसी कारण प्रचंड बनती और लूट खसौट को अधिकार मानती- उसके लिए हठ करती देखी गई है। एक कदम और आगे बढ़ने पर मनुष्य छल प्रपंच रचता या अपराध आक्रमण पर उतारू होता है। मुफ्तखोरी अनैतिकता- अवाँछनीयता की जन्मदात्री है। वह जिस कारण भी पनपे उस पूरे परिवार की निन्दा की जानी चाहिए।

इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि जिस अध्यात्म तत्वज्ञान की संरचना- जिस साधना विधान की निर्धारणा- मात्र व्यक्तित्व में पवित्रता और प्रखरता का अनुपात बढ़ाने के लिए हुई थी उसका आधार ही उलटा जा रहा है। वह बिना मूल्य चुकाये, जिस-तिस प्रकार सम्पदाएँ सफलताएँ बटोरने के लिए व्यक्ति को प्रोत्साहित करता है। जबकि इससे ठीक उलटा होना चाहिए था। अध्यात्मवादी को अपरिग्रही स्वल्प सन्तोष एवं औसत भारतीय स्तर का निर्वाह अपनाने वाला होना चाहिए था, औचित्य का पक्षधर एवं न्यायनीति का समर्थन करना चाहिए था। मनोकामना सिद्धि का तात्पर्य एक ही है- योग्यता और श्रमशीलता की मर्यादाओं को छलाँगकर- तुर्त-फुर्त- नैतिक या अनैतिक उपाय से मनचाही सुविधाएँ हस्तगत कर लेना। जहाँ भी ऐसी प्रवृत्ति उभरती हो, समझना चाहिए कि नीतिमत्ता पर कुठाराघात हुआ और साथ ही अध्यात्म तत्वज्ञान के आधार को समाप्त कर देने वाला कुचक्र चल पड़ा।

भगवान, सिद्ध पुरुष, धर्मानुष्ठान, साधना विज्ञान सभी इस मर्यादा में बँधे हैं ताकि न्याय एवं औचित्य का निर्वाह होता रहे। सत्प्रवृत्तियों को उच्चस्तरीय निर्धारणों को मान्यता मिलती रहे। उनकी प्राण प्रतिष्ठा दिन-दिन गहरी बनती चले। इसके विपरीत यदि वह समुदाय तनिक-तनिक से प्रलोभनों से मनुहारों से प्रभावित होकर तथाकथित भक्तजनों के साथ पक्षपात बरतने लगे तो समझना चाहिए औचित्य के आदर्श का अन्त होने जा रहा है। भगवान भी यदि ऐसा करेंगे, सिद्ध पुरुष भी यदि इतने ओछे सिद्ध होंगे तो फिर न्याय नीति की रक्षा कौन करेगा? औचित्य को संरक्षण कहाँ मिलेगा? यदि रिश्वत और चापलूसी भगवान को भी वशवर्ती कर सकती है। न्याय की, पात्रता की- उपेक्षा करके यदि व्यक्तिगत कृपा अकृपा का सिलसिला चल पड़े तो फिर सामान्य लोगों को रिश्वत, खुशामद, भाई-भतीजावाद, पक्षपात जैसे अमान्य अधारों से विरत करने की बात कैसे बनेगी।

सामान्य निर्धारण है उचित मूल्य चुकाकर उचित उपलब्धियाँ प्राप्त करना। यदि यही आधार उच्चस्तरीय सत्ताओं ने निरस्त कर दिया और भक्तजनों को उसकी छूट दे दी तो फिर समझना चाहिए कि औचित्य के आधार पर कुछ पाने की कष्टसाध्य प्रक्रिया कोई क्यों अपनाता रहे? तब तप त्याग की- संयम पराक्रम की शोधन, परिष्कार की- कष्टसाध्य प्रक्रिया अपनाने की कोई उपयोगिता आवश्यकता ही न रहेगी। सभी’ शार्ट कट’ ढूंढ़ेंगे। इसकी प्रतिक्रिया का प्रत्यक्ष स्वरूप होगा- अनौचित्य का प्रचलन और अनुशासन का समापन। यदि यह क्रम चल पड़ा तो समझना चाहिए कि पूजा पाठ और अनौचित्य का ठाट-बाट यही दो इस संसार में शेष रहेंगे। उस आधार का समापन ही हो जाएगा जिसके लिए कि धर्म, अध्यात्म, की- भक्त और भगवान की- आवश्यकता अनुभव की गई।

संकट में एक दूसरे की सहायता करना- उठाने और बढ़ाने में सहायता करना मानवी गरिमा का एक पक्ष है। उसे यथावत् चलना चाहिए। जिनके पास आत्म बल की सम्पदा है वे उसे सहायता के लिए भी प्रयुक्त करते हैं पर साथ ही औचित्य का भी ध्यान रखते हैं। जिस-तिस की उचित-अनुचित मनोकामनाओं की पूर्ति में सस्ती वाहवाही के बदले उसे खर्च करने लगे तो समझना चाहिए कि ‘सिद्ध पुरुष’ कहलाने की अध्यात्म गरिमा से वे लोग बहुत नीचे आ गये। दाता और याचक के बीच में औचित्य की कसौटी रहती है। उसे समाप्त नहीं किया जा सकता। तथाकथित भक्तजन और सिद्ध पुरुष मिलकर भी ऐसे भ्रष्टाचार की मान्यता नहीं दिला सकते। विश्व व्यवस्था के कुछ मूलभूत सिद्धान्त हैं और उसमें उचित मूल्य चुकाकर उचित उपलब्धियाँ प्राप्त करने की भी एक परम्परा है। सस्ते मोल महंगे साधन समेट लेना विश्व व्यवस्था से सर्वथा बाहर की बात है।

अध्यात्म विज्ञान के विद्यार्थियों को यह तथ्य गिरह बाँध लेना चाहिए कि यह विधा चिन्तन एवं चरित्र में उत्कृष्टता का समावेश करने तथा व्यक्तित्व में पवित्रता प्रखरता भर देने की सुव्यवस्था का दूसरा नाम है। इस दिशा में जो जितना आगे बढ़ता है, उसकी पात्रता प्रामाणिकता का स्तर उतना ही ऊँचा उठता जाता है। फलतः आत्मवत् के रूप में साहस, संकल्प एवं पुरुषार्थ के सत्प्रयोजनों में तत्परतापूर्वक निरत देखा जाता है। सद्भावना और सत्प्रवृत्तियों से व्यक्तित्व भरा-पूरा दीखता है। जहाँ ऐसी स्थिति होगी वहाँ आत्मिक ही नहीं, भौतिक सम्पदाओं की भी कमी न रहेगी। जिसे आत्म विश्वास उपलब्ध है, जिसने जन सम्मान और जन सहयोग अर्जित कर लिये। उसके लिए भौतिक सफलताएँ एवं सम्पन्नताएँ प्राप्त कर लेने में तनिक भी कठिनाई नहीं रहती। हाँ, साथ ही इतना भी अवश्य होता है कि अध्यात्मवादी- साधनारत व्यक्ति उपार्जित या प्राप्त वैभव का उपयोग नहीं करता। उपार्जन कितना ही क्यों न करते, उसमें से औसत नागरिकों जैसा ही निर्वाह स्वीकार करता है, शेष को उदारता पूर्वक उस लोक-मंगल के लिए हाथों -हाथ वापस कर देता है। जिसके कन्धों पर कि सर्वजनीन सुख-शान्ति का आधार टिका हुआ है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118