आस्तिकता जीवन की अनिवार्य आवश्यकता

November 1981

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आस्तिकता के दो अपरिहार्य अंग हैं- आशा और प्रसन्नता। ईश्वर की सत्ता पर विश्वास रखने वाला सदा आशा का दीपक जलाए रखता है। निराशा की अँधेरी रात्रि से वह हमेशा दूर रहता है। वह यह मानकर चलता है कि प्रकृति के अनुदान, मानव शरीर एवं सहयोगी समाज देकर ईश्वर ने उस पर बड़ा उपकार किया है। जब उसने इतना किया है, तो भविष्य में भी सदा हमारा ध्यान रखेगा। ईश्वर महान् है, तो उसकी कृति भी महान ही होगी। यही सोचकर एक आस्तिक व्यक्ति सदा प्रसन्न भाव बनाए रखता है।

अपनी महान् सम्भावनाओं पर अटूट विश्वास ही सच्ची आस्तिकता है। स्वामी विवेकानन्द ने आत्मविश्वास की इस मानव प्रवृत्ति को ही सच्ची आस्तिकता का द्योतक बताया है। ‘अरस्तू’ के अनुसार-नास्तिकता व निराशा पर्यायवाची है। जिसने उज्ज्वल भविष्य की आशा छोड़ दी, मान लेना चाहिए कि उसका ईश्वर पर से विश्वास हट गया।

पर मनुष्य छोटे-मोटे अवरोधों- मामूली प्रतिकूलताओं से ही क्षणमात्र में विचलित होकर अपनी नास्तिकता का परिचय देने लगता है। वह भूल जाता है कि सदैव एक रस और अनुकूल परिस्थितियाँ हमें स्थगनशील बनाती और उन्नति तथा विकास के द्वारों को अवरुद्ध कर देती हैं। जिस तरह दिन एवं रात्रि का होना दैनिक जीवन में समस्वरता बनाए रखता है, उसी तरह परिस्थितियों की अनुकूलता-प्रतिकूलता भी मानवी पुरुषार्थ को चुनौती देकर उसे विकार-ऊर्ध्वगमन के लिए प्रेरित करती है। अतः आने वाली परिस्थितियों को आशा भरी दृष्टि से देखना और जो गुजर गया उससे खिन्न व अप्रसन्न न होना ही श्रेयस्कर है।

ईश्वर विश्वास का अर्थ है- ईश्वरीय क्रिया-कलाप के पीछे छिपे सौंदर्य की अनुभूति। ईश्वर की इच्छा के अनुरूप हम अपनी इच्छा को मोड़ लें, यही ईश्वर के प्रति सच्चा समर्पण है। इस समर्पण में व्यक्तिगत लाभ-हानि की बात गौण हो जाती है और मनुष्य अपने को प्रतिपल किसी महान शक्ति की छत्रछाया में सुरक्षित-अनुप्राणित अनुभव करने लगता है।

इस शक्ति को कोई ईश्वर निष्ठा का बल कहता है, कोई अध्यात्म बल एव कोई आत्मबल। इस बल की सतत् अनुभूति करने वाला ईश्वर भक्त हर स्थिति में प्रसन्न रहता है। वह अपने आस-पास की वस्तुओं से व्यर्थ का मोह नहीं जोड़ता। अपितु उपलब्ध पदार्थों के श्रेष्ठतम सदुपयोग की युक्ति ही खोजता है। क्षणिक परिवर्तन उसे उद्वेलित नहीं करते, क्योंकि उसके पीछे काम करने वाली ईश्वरीय इच्छा उसे सहज शिरोधार्य होती है।

सच्ची आस्तिकता का व्यक्ति के जीवन में समावेश देखना हो, तो सघन आशावादिता और सतत् मुस्कान युक्त प्रसन्नता के रूप में उसकी परख करना चाहिए। इन्हीं दोनों के सहारे सूक्ष्म अभौतिक उपलब्धियों से व्यक्तियों का जीवन सरस, सरल, आनन्दमय हो जाता है। अभाव, हानि एवं वियोग की अप्रिय परिस्थितियाँ उसके समक्ष आती रहती हैं। किन्तु ऐसा व्यक्ति अपने परिष्कृत दृष्टिकोण के कारण इन साँसारिक परिवर्तनों से प्रभावित नहीं होता। हल्की-फुल्की जिन्दगी जीता हुआ वह बदली परिस्थितियों के अनुरूप अपने को ढाल लेता है। वह कभी रोता खीझता नहीं है। आस्तिकता-ईश्वरीय व्यवस्था के प्रति अटूट निष्ठा उसे उज्ज्वल भविष्य का सुनिश्चित आश्वासन देती रहती है।

विपन्न परिस्थितियों में मनुष्य कोई समर्थ सहारा चाहता है और वह सत्ता ईश्वर की ही हो सकती है। जिसके अवलम्बन से आशा का संचार होता है। प्रेरणा एवं शक्ति मिलती है। जब भी निराशा के बादल हमारे चारों ओर मँडराने लगते हैं एवं हम अपने को असहाय अनुभव करते हैं, ऐसे अवसरों पर ही ईश्वर हमें शक्ति एवं प्रेरणा देता है।


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