युग समस्याओं से निपटने के लिए विज्ञान और अध्यात्म का सहयोग आवश्यक

November 1981

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मनुष्य जितना सत्य के निकट पहुँचता जाता है उतना ही उसे संतोष होता और समाधान मिलता है। अन्यथा भ्रम जंजालों की भटकन में मनःस्थिति संदिग्ध, शंकित एवं असमंजस भरी ही रहती है। अस्तु सदा से यह चाहा जाता रहा है कि सत्य की समीपता का आनन्द मिले और वस्तुस्थिति को समझते हुए तद्नुरूप निर्धारण किया और कदम उठाया जाता रहे। इस संदर्भ में विज्ञान ने मनुष्य की भारी सेवा-सहायता की है। उसने दार्शनिक एवं काल्पनिक मान्यताओं से पीछा छुड़ाकर प्रत्यक्षवाद की एवं तर्क, तथ्य प्रमाण की कई कसौटियों पर कसने के उपरान्त यथार्थता को सर्वसाधारण के सामने रखा है। फलतः उसकी साख बढ़ी है। जो उसके द्वारा प्रतिपादित किया गया उसे प्रामाणिक ठहराया गया। इसी कारण अपने युग को बुद्धिवादी, तर्कवादी, प्रत्यक्षवादी कहा जाता है। पुरातन काल की अगणित, अनगढ़ मान्यताओं को अवास्तविक ठहराने से लेकर वस्तुस्थिति से अवगत कराने और यथार्थता के सहारे मार्ग निर्धारण करने में विज्ञान ने मनुष्य की जो सहायता की है उसके लिए वह अनन्त काल तक कृतज्ञ रहेगा।

पुरातन काल में शास्त्र लेख एवं आप्त वचन ही सत्य के प्रतिपादन में पर्याप्त माने जाते रहे हैं। कभी वह स्थिति सही भी थी। उन दिनों प्रतिपादन कर्ता महामनीषी ही होते थे। अपनी शोध, पवित्रता एवं प्रखरता के कारण वे वही कहते जो उनकी दृष्टि से सही होता था। किन्तु यह स्थिति देर तक नहीं रही। अप्रामाणिक एवं निहित स्वार्थों ने भी मनीषा का जामा पहना तो असमाधान कारक भ्रम जँजाल ही बढ़ता गया कसौटियों पर वे कथन जैसे-जैसे अवास्तविक सिद्ध होते चले गये, वैसे-वैसे अश्रद्धा बढ़ी और अमान्य ठहराने की प्रखरता उभरी। आज बौद्धिक जगत में ऐसी ही असमंजस एवं विद्रोह भरी स्थिति का वातावरण छाया हुआ है। अपने युग को अनास्था युग कहा जाय तो कुछ भी अत्युक्ति न होगी। यह अनास्था यदि दार्शनिक परिधि में रहती तो कोई हर्ज नहीं था। पर जब वह नीति, सदाचार, सद्भाव एवं कर्त्तव्य उत्तरदायित्व जैसे शाश्वत सत्यों पर भी आक्रमण करने लगी है तो उसकी परिणति विषैली विभीषिकाओं के रूप में सामने आ रही है। यह चिन्ता जनक है। होना यह चाहिए था कि विज्ञान अपनी प्रखरता एवं प्रामाणिकता के आधार पर मात्र भ्रान्तियों मर्यादाओं की परिपुष्टि करता जो मानवी गरिमा एवं प्रगति की आधार शिला एवं अद्यावधि प्रगति में धुरी जैसी भूमिका निभाती रही हैं। किन्तु यह विवेक सन्तुलन रहा नहीं। प्रगतिशीलता के अत्युत्साह ने ऐसा दुधारा चलाया जो मात्र भ्रान्तियों के उन्मूलन तक सीमित नहीं रहा वरन् उन पैरों पर भी चोट मारने लगा जिन पर कि प्रयोक्ता का अपना अस्तित्व ही खड़ा था।

अपने समय की एक चिन्ताजनक बात यह है कि प्रत्यक्षवाद ने उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्शवादी आचरण की प्रेरणा देने वाली अध्यात्मवादी आस्थाओं को अवास्तविक ठहराना, उन्हें निरर्थक कहना आरम्भ कर दिया है। फलतः विज्ञान समर्थित प्रत्यक्षवाद से प्रभावित लोकमानस ने उसे सहज स्वीकार करना आरम्भ कर दिया है। इन दिनों नैतिक मूल्यों का बेतरह ह्रास हो रहा है। उससे अर्थतन्त्र में विकृति, सामाजिक अव्यवस्था, शासकीय भ्रष्टता, दरिद्रता, अशिक्षा जैसे अनेकों अभिशाप जुड़ चले हैं। पर उन क्षेत्रों में जो भी अवांछनियता अपनाई जाती है, वह अपने पक्ष का खुला समर्थन नहीं करती, कुकृत्यों पर पर्दा डाले रहती है और कम से कम प्रदर्शन एवं कथन में तो नीतिगत मान्यताओं का ही समर्थन करती है। वैयक्तिक प्रत्यक्षवाद की स्थिति इससे भिन्न है, वह नीति दर्शन की आधारभूत मान्यताओं पर ही कुठाराघात करता है- ऐसी दशा में जन-मानस में यदि “ऋणं कृत्वा सुरां पिवैत” का औचित्य पनपे तो इसमें कुछ भी आश्चर्य की बात नहीं है।

ईश्वर, आत्मा, कर्मफल, पुनर्जन्म जैसी मान्यताएँ कुल मिलाकर मनुष्य को नीति समर्थक एवं उदार बनने की प्रेरणा देती हैं। यदि उनका उच्छेदन कर दिया जाय और कहा जाय कि “मनुष्य मात्र चलता फिरता पेड़ है, मरण के उपरान्त उसका कोई अस्तित्व शेष नहीं रहता। स्वसंचालित अणुओं का संयोग वियोग ही मनुष्य जीवन है।’’ तो फिर समझना चाहिए कि प्रकारान्तर से उन सभी मान्यताओं का खंडन हो गया जो मनुष्य को संयमी, सदाचारी, कर्त्तव्य परायण, उदार एवं सदाशयता के समर्थन में कष्ट तक उठाने की, उदारता बरतकर प्रसन्न होने की प्रेरणा देती हैं। कहना न होगा कि आदर्शों से रहित- निरंकुश मानवी बुद्धि के लिए तब उद्धत स्वार्थ साधन के लिए पूरा द्वार खुल जायेगा। ऐसी दशा में जंगल का कानून ही चलेगा। तब बड़ी मछली छोटी को निगलेगी। बड़ा पेड़ समीपवर्ती पौधों की खुराक खींचने में कोई संकोच न करेगा। “जिसकी लाठी उसकी भैंस” का, “सर्वाइवल आफ दी फिटेस्ट” का सिद्धान्त सही और स्वाभाविक ठहराये जाने पर मानवी सभ्यता की कैसी दुर्दशा हो सकती है, मनुष्य की बुद्धि उन मान्यताओं को अपनाकर किस सीमा तक अनाचरण पर उतर सकती है- इसकी आज तो एक झाँकी भर मिल रही है। वह दिन दूर नहीं जब इस अभिनव प्रतिपादन के परिपूर्ण रूप होने पर हिम-युग एवं खण्ड प्रलय से भी अधिक भयानक स्थिति उत्पन्न होगी। आज तो लुक-छिपकर अनाचरण बरते जाते हैं किन्तु अगले दिनों नृशंस स्वेच्छाचारी शासकों की तरह सर्वत्र कत्लेआम मचाते दृष्टिगोचर होंगे। अन्तःकरण की पुकार से लेकर मानवी गरिमा तक के उन आदर्शों के लिए कहीं कोई स्थान रह नहीं जायेगा जिनके कारण “बन्दर की औलाद” कहाये जाने वाले मनुष्य ने विश्व का मुकुटमणि बनने की स्थिति तक पहुँचने में प्रगति की है।

यह सब पारस्परिक सहयोग और उदार अनुदान की नीति अपनाने से ही सम्भव हुआ है। सामाजिक सभ्यता और वैयक्तिक संस्कृति का प्रादुर्भाव तथा उत्थान इन्हीं उत्कृष्टता की- पक्षधर आस्थाओं के सहारे सम्भव हुआ है। यदि यह आधार नष्ट हो गया तो हमें फिर आदिम युग की ओर वापिस लौटना होगा। शायद वह भी न बन पड़े क्योंकि बुद्धि कौशल के रहते आदर्शहीन व्यक्ति मात्र पिशाच ही बन सकते हैं। पशुता के स्तर तक उतर कर संतोष कर लेने के लिए भी उन्हें सहमत न किया जा सकेगा। इस सम्भावना की आँशिक झाँकी आज भी हो रही है। अनास्था युग के बाल्यकाल में जब स्वार्थपरता का विस्तार निष्ठुरता से लेकर आततायी प्रवृत्तियों के रूप में बेतरह विकसित हो रहा है तो फिर जब प्रौढ़ता आयेगी तो हर व्यक्ति अपने समीपवर्तियों की गर्दनें नापता हुआ दूरवर्तियों का सफाया करेगा। फलतः सृष्टि विकास के समय उपजे अनगढ़ महागजों, महासरीसृपों, महाव्याघ्रों की तरह अभावों और आक्रमणों की आग में जल कर समाप्त होना पड़ेगा।

सम्भावना काल्पनिक नहीं है। अपने युग में संपत्ति, शिक्षा, सुविधा और शक्ति की पूर्वकाल की तुलना में भारी वृद्धि हुई है। फिर भी सदाशयता, दूरदर्शिता और उदारता के तत्व घट जाने से मनुष्य अपेक्षाकृत हर क्षेत्र में पिछड़ा है। स्वास्थ्य, सन्तुलन, सन्तोष, सहकार के क्षेत्रों में निरन्तर गिरावट हुई है और पारिवारिक सामाजिक जीवन क्रमशः अधिक असन्तोषजनक होता चला गया है। हर ओर खिजाने वाली परिस्थितियाँ दृष्टिगोचर होने पर मनुष्य अपने को असहाय, एकाकी, चक्रव्यूह में फँसा हुआ एवं निराश, उद्विग्न अनुभव करता है। यही है वह वास्तविकता जिसका सामना हर धनी, दरिद्र, शिक्षित, अशिक्षित को समान रूप से करना पड़ रहा है। हर किसी को वर्तमान की उद्विग्नता और भविष्य की आशंका बेतरह डराने लगी है। व्यापक तनाव इसी महाव्याधि का नाम है। इससे जर्जरता एवं खिन्नता बढ़ती ही चली जा रही है। रक्तचाप, मधुमेह, अपच, अनिद्रा, अर्ध-विक्षिप्तता, जैसे अनेकानेक शारीरिक, मानसिक, रोगों की बाढ़ इसी अस्त-व्यस्तता की परिणति है, जो बढ़ती हुई अनास्था ने मनुष्य को आदर्श विहीन बनाकर उत्पन्न की है। यह प्रवाह अभी मंथर गति से बहा है। अगले दिनों उसमें तूफानी उभार आने की पूरी-पूरी सम्भावना है। तब क्या स्थिति होगी इसकी सम्भावना दार्शनिक बर्टेंड रसेल के शब्दों में “सामूहिक आत्म-हत्या” के रूप में निरूपित की जा सकती है।

विज्ञान को अपने युग का वरदान कहने में इसलिए किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती कि उसने भ्रान्तियों से निकालकर सत्य की समीपता तक पहुँचाने में दार्शनिक क्षेत्र की असाधारण सेवा की है। इतना ही नहीं उसने प्रकृति के अन्तराल को मथकर अनेकानेक सुविधा साधन प्रदान करने में भी भूरि-भूरि प्रशंसा के योग्य योगदान किया है। इसके लिए समूची मानवता उसकी ऋणी भी है। इतने पर भी अमृत के साथ मिले हुए विष को कैसे निगला जाय जिसने आदर्शवादी मूल्यों को अमान्य ठहराने वाले प्रत्यक्षवादी तक प्रस्तुत किये और प्रगति की समूची आधारशिला को ही झकझोर कर रख दिया।

कोसने से काम चलने वाला नहीं। दोषारोपण मात्र से कभी किसी गुत्थी का हल नहीं निकला। प्रत्यक्षवाद के वृक्ष का आश्रय लेकर पनपी और चोटी तक चढ़ गई विष बेल को अलग करने में ही लाभ है। यह कठिन कार्य अध्यात्मवाद की उन मान्यताओं को उभारने से ही सम्भव हो सकता है जो न केवल प्रगतिशीलता की जन्मदात्री आदर्शवादिता का समर्थन करती है वरन् उन्हें हर कसौटी पर प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए भी तत्पर है। इस चुनौती को स्वीकार करना विज्ञान का काम है। उसे लोक मान्यता मिली है इसीलिए वही इन दिनों स्वभावतः वरिष्ठ भी है।

ऐसी दशा में उसका कर्त्तव्य है कि प्रति पक्ष की चुनौती स्वीकार करे और यह देखे कि आदर्शवादी आस्थाएँ प्रत्यक्षवाद की कसौटियों पर कहाँ तक खरी सिद्ध होती हैं। साथ ही अध्यात्म को भी समझना होगा कि अब उसकी सुरक्षा, शास्त्र कथन एवं आप्त वचन की गुदड़ी ओढ़कर होती रहने वाली नहीं है। उसे युग मान्यता प्राप्त प्रत्यक्षवाद की कसौटी पर अपनी प्रामाणिकता खरी सिद्ध करने के लिए तत्पर होना होगा। “साँच को आँच नहीं” का सिद्धान्त यदि सही है तो फिर कोई कारण नहीं कि उन उत्कृष्टतावादी आस्थाओं को तर्क, तथ्य, प्रमाण एवं उदाहरणों का ऐसा समर्थन न मिल सके जो प्रत्यक्षवाद का भी आधारभूत अवलम्बन है।

निस्संदेह मध्यकाल में धर्म, व्यवहार एवं अध्यात्म दर्शन के क्षेत्र में भ्रान्तियों एवं विकृतियों का कूड़ा-करकट इतना अधिक बढ़ गया था कि तथ्य की तुलना में छद्म का भार कहीं अधिक विशालकाय दीखने लगा। अध्यात्म और विज्ञान की जाँच-पड़ताल का एक नया लाभ यह होगा कि तत्व दर्शन पर चढ़ी हुई मलीनताएं दूर होंगी और उसे खरे सोने की तरह हर दुकान पर स्वागत भरा सम्मान मिलेगा। फिर कोई उसे न तो उपेक्षित कर सकेगा और न तिरस्कृत। वरन् मनीषा का हर घटक उसे उसी तरह स्वीकार- शिरोधार्य करेगा जिस तरह कि विज्ञान के सिद्धान्त एवं प्रयोगों की प्रसन्नता पूर्वक अपनाया जाता है।


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