विनोबाजी के साथ-साथ बहुधा कोई सम्बन्धी या मित्र बालक भी उनके घर में रहा करता था। उस बालक को भी घर में विनोबा ही सुविधायें मिला करती थीं। भोजन आदि भी साथ-साथ समान स्तर का मिलता था। कभी-कभी घरों में बासी भोजन बचा रहना भी स्वाभाविक है। उनकी माता भोजन फेंके जाने के विरुद्ध थीं अस्तु वह भोजन मिल-जुलकर थोड़ा-थोड़ा खा लिया जाता था। ऐसे अवसर पर माता विनोबा को बासी भोजन देकर दूसरे को ताजा खिलाने का प्रयास करती थीं। विनोबा को इस पर कोई आंतरिक विरोध नहीं था, सहज सद्भावना का शिक्षण उन्हें प्रारंभ से मिला था। किन्तु परिहास में एक दिन उन्होंने माँ से कहा- “माँ, आपके मन में अभी भेद है।” माँ प्रश्नवाचक दृष्टि से उनकी ओर देख उठी। विनोबा ने कहा- “हाँ देखो न, आप मुझे बासी भोजन देती हैं तथा अमुक साथी को ताजा।”
माँ की उदारता को पक्षपात की संज्ञा देकर विनोबा ने परिहास किया था। किन्तु माता ने उसे दूसरे ढंग से लिया। बोली- तू ठीक कहता है। मानवीय दुर्बलताएं मुझमें भी हैं तू मुझे अपना बेटा दीखता है तथा अभ्यागत अतिथि। इसे ईश्वर रूप अतिथि मानकर सहज ही मेरे द्वारा यह पक्षपात का व्यवहार हो जाता है। तुझे बेटा मानने के कारण तेरे प्रति अनेक प्रकार का स्नेह मन में उठता है। जब तुझे भी सामान्य दृष्टि से देख सकूँगी तब पक्षपात की आवश्यकता नहीं रह जायेगी।”
विनोबा को प्रसन्नता हुई। माता का एक और उज्ज्वल पक्ष उनके सामने आया था। समाज के सन्तुलन तथा आध्यात्मिकता की पकड़ का महत्वपूर्ण सूत्र उन्हें मिल गया था। लोग सन्तुष्टि के प्रयास में असन्तुष्ट होते क्यों दिखाई दिया करते हैं। इसका कारण वह खोजा करते थे। आज उन्हें उसका एक विशिष्ट पक्षी दीखा। पक्षपात मनुष्य के अन्तःकरण को सहन नहीं होता। व्यक्ति अभाव स्वीकार कर लेता है, पक्षपात नहीं। अपने को पक्षपात से मुक्त अनुभव करने वाला अन्तःकरण ही सन्तोष का अनुभव करता है। विनोबा ने माता की शिक्षा गाँठ में बाँध ली।