आजाद हिन्द फौज के संगठन के लिए सुभाषचन्द्र बोस एक बार बैंकाक भी गये। वहाँ पर्याप्त मात्रा में रहने वाले प्रवासी भारतीयों ने उनका भव्य स्वागत किया। एक विशाल सभा में नेताजी ने परतन्त्र भारत की दयनीय स्थिति का वर्णन करते हुए भारत भूमि की स्वतन्त्रता के लिए प्रवासी भारतीयों को प्रेरित किया। नेताजी का एक-एक शब्द इतना मार्मिक था कि उसने वहाँ भारतीयों को कुछ करने की प्रेरणा से उद्देलित कर दिया। असंख्य प्रवासी भारतीयों ने भारतभूमि को स्वतंत्र कराने का दृढ़ संकल्प लिया।
नेताजी का उद्देश्य यहीं पूरा नहीं हो जाता था। उन्हें आजाद हिन्द फौज के संगठन के लिए धन की भी सख्त जरूरत थी। धन के अभाव में सेना के लिए अस्त्र-शस्त्र खरीदने में बाधा हो रही थी। परन्तु नेताजी समझ नहीं पा रहे थे कि इस बात को कैसे कहें?
कुछ महिलाओं ने नेताजी के इस संकोच को समझ लिया। उन्होंने मंच पर आकर अपने आभूषण दान देने प्रारम्भ कर दिये। चार-छह महिलाओं ने भावभीने स्वरों में अपनी यह श्रद्धांजलि अर्पित की फिर तो एक भव्य वातावरण ही बन गया। महिलाओं में यह होड़-सी लग गयी कि कौन पहले आकर अपने आभूषण दे। यहाँ तक कि बैंकाक की महिलाओं ने भी अपने गहने देने प्रारम्भ कर दिये।
यह देखकर नेताजी भावाभिभूत हो गये। यह वहीं मंच था जहाँ कुछ दिनों पूर्व रासबिहारी बोस को बड़ा प्रयास करने के बाद भी एक हजार पौंड की राशि कठिनाई से हो प्राप्त हुई थी। नेताजी ने रूंधे हुए कण्ठ से बोले- ‘पुत्र कुपुत्र हो सकता है, माता कुमाता नहीं हो सकती। मुझे यहाँ निराश, दुःखी और लाचार देखकर सैकड़ों रूपों में मेरी माँ मेरी लाज छिपाने के लिए यहाँ भी आ गयी। माँ के दो हाथों से ही मैंने अभी तक दुलार पाया था किन्तु आज तो माँ का ऐसा प्रेम मुझ पर उमड़ा है कि हजार हाथों से मेरी माँ मुझे दुलारते मेरा रूप संवारने के लिए आ गयी है। भारत देश की आजादी के दर्शन मेरे भाग्य में बदे हैं या नहीं, मैं नहीं जानता। किन्तु आजादी के इस अभियान में मुझे माँ की महिमा के दर्शन हो गये, मैं सचमुच कृतार्थ हो गया।’ मातृ रूप की इस महिमा को सुनकर वहाँ उपस्थित प्रत्येक श्रोता की आँखें श्रद्धा से सजल हो उठीं।