अन्तःकरण का विकास और उज्ज्वल भविष्य

November 1981

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मनः शास्त्री अब इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि व्यक्तित्व की उत्कृष्टता- निकृष्टता का केन्द्र बिन्दु उसके अंतराल का स्तर ही है। मनःसंस्थान की इस सबसे गहरी-अन्तिम परत को ‘सुपर चेतन’ कहा गया है। सुपर इसलिए कि उसकी मूल प्रवृत्ति मात्र उत्कृष्टता से ही भरपूर है। उसे यदि अपने वास्तविक स्वरूप में रहने दिया जाय- अवांछनियताओं के घेरे में जकड़ा न जाय तो वहाँ से अनायास ही ऊँचे उठने- ऊंचे बढ़ने की ऐसी प्रेरणाएँ मिलेंगी जिन्हें आदर्शवादी या उच्चस्तरीय ही देखा जा सके। प्रकारान्तर से ‘सुपर चेतन’ को ‘ईश्वर’ के समतुल्य ही माना जा सकता है। वेदान्त दर्शन में ‘अयमात्मा ब्रह्म’-‘प्रज्ञानं ब्रह्म’-‘चिदानन्दोहम्’-‘शिवोऽहम्’ ‘तत्वमसि’- आदि सूत्रों में जिस आत्मा को परमतत्व परमात्मा माना है वह परिष्कृत अन्तःकरण ही है। उसी को विज्ञान की भाषा में सुपर चेतन कहते हैं।

इसी परत को विकसित करने के लिए भक्ति योग का आश्रय लिया जाता है। कर्मयोग में शरीर, ज्ञान योग में मस्तिष्क और भक्तियोग में अन्तःकरण की साधना की जाती है। अन्तःकरण को ब्रह्मा- मनःसंस्थान को विष्णु और काय कलेवर को रुद्र की उपमा दी गई है। यही तीनों व्यक्तिगत त्रिदेव हैं जिनके वरदान अभिशाप पर उत्थान-पतन की सारी सम्भावनाएँ अवलम्बित हैं।

मनोविज्ञानी मनःसंस्थान को अत्यधिक महत्व देते हैं और उसे अचेतन से भी कहीं अधिक उच्चस्तरीय मानते हैं। कार्य-कौशल से लोक-व्यवहार बनता है। बुद्धि वैभव से उपयुक्त निर्णय होते हैं। किन्तु अन्तःकरण तो समूचे व्यक्तित्व का ही अधिष्ठाता है। उसकी परिष्कृत स्थिति ही सामान्य स्थिति के मनुष्य को महामानव, ऋषि, देवात्मा, देवदूत स्तर तक पहुँचाने में समर्थ होती है। अपने ही भीतर विद्यमान इस देवलोक का माहात्म्य अध्यात्मवेत्ता सदा से ही बताते और उसकी अनुकम्पा उपलब्ध करके जीवन लाभ लेने वाले विभिन्न प्रतिपादनों द्वारा समझाते रहे हैं। सिद्धान्त और प्रयोग दोनों ही इन प्रयोजनों के लिए उनने गढ़े-परखे और प्रचलित किये हैं।

मनोविज्ञानी, नीति शास्त्री, तत्व-विज्ञानी, समाजशास्त्री, भौतिकवादी सभी इस मिले-जुले निष्कर्ष पर पहुँच रहे हैं कि पतन पराभव से छूटने और वरिष्ठता, उत्कृष्टता, उपलब्ध करने के लिए ‘सुपर चेतन’ की उच्चस्तरीय परतें खोजी, कुरेदी जानी चाहिए। ‘पैरा साइकोलॉजी-मैटाफिजिक्स’ आदि माध्यमों से पिछले दिनों अचेतन की महत्ता बखानी जाती रही है और उसे जगाने उभारने के लिए तरह-तरह के प्रयोगों की चर्चा होती रही है। दूर दर्शन, दूर श्रवण, विचार संचालन, प्राण प्रत्यावर्तन, भविष्य ज्ञान जैसे कितने ही कला-कौशल इस संदर्भ में खोजे और परखे गये हैं। इस दिशा में प्रयास चालू रखते हुए भी मूर्धन्य स्तर के मनीषी इस बात पर जोर दे रहे हैं कि अचेतन में भी असंख्य गुनी उच्चस्तरीय सम्भावनाओं से भरे-पूरे सुपर-चेतन को नये सिरे से समझा-खोजा और उसके अभ्युदय का अभिनव प्रयास किया जाय। वे मानने लगे हैं कि उस क्षेत्र की उपलब्धियां व्यक्ति और समाज में उच्चस्तरीय परम्पराओं का समावेश और नये युग का नया सूत्रपात कर सकने में समर्थ हो सकती हैं।

‘एमिली मारकाल्ट’ ने अपनी “साइकोलॉजी आफ इन्ट्यूशन” नामक पुस्तक में अन्तःकरण की चर्चा करते हुए कहा है- “यह शरीर एवं व्यक्तित्व की चेतना का अति सूक्ष्म एवं उच्चस्तरीय भाग है। ज्ञानेन्द्रियों और तर्क बुद्धि से जो निष्कर्ष निकाले जाते हैं उनसे भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण समाधान उच्च चेतन मन ही सहायता से मिल सकता है। इस तन्त्र को उजागर कार लेने का अर्थ है एक ऐसे देवता का साथ पा लेना जो उपयोगी सलाह ही नहीं देता, महत्वपूर्ण सहायता भी करता है।

‘हम्फ्री’ अपनी पुस्तक ‘‘वेस्टर्न ए प्रोच टू मैन” में कहते हैं कि बुद्धि वैभव के माध्यम से अब तक संसार की जो सेवा हुई है उसकी तुलना में उच्च चेतन की सहायता से थोड़े से लोगों ने जो कार्य किया है उसकी कोई तुलना नहीं हो सकती। एक महामानव हजार प्रवक्ताओं से बढ़कर होता है। इसी प्रकार एक महा मनस्वी के द्वारा बनाया गया वातावरण हजारों अधिकारियों तथा अध्यापकों की तुलना में अधिक प्रभावोत्पादक सिद्ध होता है। मनीषियों का कर्त्तव्य है कि जिस प्रकार प्रकृति के रहस्यों की खोज कर सुविधा सम्पन्नता वृद्धि की गयी है उसी प्रकार वे अन्तराल की उत्कृष्टता को खोजने, बढ़ाने तथा लाभान्वित होने के लिए जन साधारण का पथ-प्रशस्त करें।

“जुँग” कहते हैं कि मात्र अचेतन ही सब कुछ नहीं है वरन् इससे भी आगे की परत “उच्च चेतन” का भी अलग अस्तित्व है। आदर्शवादी प्रेरणाएँ एवं उमंगें वहीं से उठती हैं। अचेतन तो अभ्यस्त आदतों का संग्रह समुच्चय भर है। वे बुद्धि एवं साहसिकता से भी अग्रणी संकल्प शक्ति का गुणगान करते हैं और कहते हैं कि व्यक्तित्व को विनिर्मित करने में मनुष्य के विश्वासों का ही प्रमुख योगदान रहता है।

‘एडलर’ के मतानुसार- अचेतन की सुदृढ़ता देखते हुए उसके सुधार संदर्भ में किसी को निराश नहीं होना चाहिए। स्वसंचित संकल्प, आत्म-विश्वास और आदर्शों के प्रति आस्थावान बनने से उन मूल प्रवृत्तियों में भी परिवर्तन कर सकना सम्भव है जिन्हें चिर संचित, दुराग्रही, एवं अपरिवर्तनशील माना जाता है।

विलियम मैकडूगल कहते हैं- अचेतन से भी ऊँची परत ‘अति चेतन’ या ‘उच्च चेतन’ की अभी जानकारी भर मिली है। अगले दिनों उसे अधिक अच्छी तरह जाना समझा जा सकेगा और यह कहा जायेगा कि सामान्य जीवन-क्रम का सूत्र संचालन करने वाले अचेतन की कुँजी इस ‘अति चेतन’ के पास ही है। अगले दिनों जब उच्च चेतन का स्वरूप और उपयोग ठीक प्रकार समझा जा सकेगा तब व्यक्तित्वों में क्रान्तिकारी परिवर्तनों के सम्बन्ध में वैसी कठिनाई न रहेगी जैसी आज है।

प्लूटो लिखते हैं “जब हमारा शुद्धीकृत “स्व” से साक्षात्कार होता है तब हमें अपने स्वरूप का- अपने त्रिआयामीय विस्तार का भान होता है। इस स्थिति में आने पर व्यक्ति परमतत्व से एकरूप हो जाता है एवं उसे किसी प्रकार के मार्ग दर्शन, हाथ पकड़कर राह दिखाने वाले की आवश्यकता नहीं पड़ती।

‘फ्रीडरिक नीत्से’ ने घोषणा की थी कि “स्वयं से परे हटकर स्वयं को देखना ही वस्तुतः सही ज्ञान की प्राप्ति है।” क्या यह सम्भव है? क्या हम स्वयं को अपने शरीर चिन्तन की परिधि से निकाल बाहर कर सकते हैं। जो शान्त चुपचाप खड़ा हो हमारी हर गतिविधि, हर परिस्थिति का अवलोकन करता रहे। वस्तुतः यह हमारे भीतर है- जिसे हम ‘सुपर माइंड’ कहते हैं जो एक लाइट हाउस की तरह दूर-दूर अपनी घुमावदार किरणें (रिवाल्विंग बीम) छोड़ता रहता है। हिमखंडों, तूफानों से जहाजों को बचाता है, पर स्वयं शान्त बिना विचलित हुए खड़ा रहता है।

दार्शनिक ‘हेनरी बर्सो’ का कथन है- ‘समय की जटिलताओं को न सुविधा संवर्धन से सुलझाया जाय और न दाँव पेच से। प्रवीण बुद्धि कौशल ही पतन पराभव का निराकरण कर सकेगा। प्रस्तुत जटिलताओं और विभीषिकाओं का समाधान पाने के लिये उस ‘महाप्रज्ञा’ के जगाने की आवश्यकता है जो अन्तःकरण की गहराई में बसती है और ईश्वरीय प्रेरणाओं से मनुष्य को अवगत कराती है।

“मार्टिन ट्रिनबी’ ने लिखा है- विचार बुद्धि की उपयोगिता कितनी ही क्यों न हो पर वह रहेगी अपर्याप्त ही। चेतना की पूर्णता का केन्द्र-मस्तिष्क नहीं अन्तःकरण है। अब तक प्रकृति को खोजा और पाया- दोहा गया है। अब परमात्मा की खोज और उसको पाने की बारी है। ऐसा संपर्क सधने के लिए एकमात्र स्थान मानवी अन्तःकरण है। सहृदयता इसी केन्द्र में बसती है।

हेनरी गाल्डर ने अपने ग्रन्थ- ‘‘एवोल्यूशन एण्ड मैन्सल्पेस इन नेचर” में लिखा है “विकास की दिशा में किये जा रहे प्रयास में एक कड़ी और जुड़नी चाहिए कि मनुष्य के हृदय की विशालता एवं गहराई को भी बढ़ाया आय। वस्तुओं का लाभ जिसे उठाना है। उसकी अन्तः चेतना यदि निष्कृष्टता परायण रही तो सम्पदा का दुरुपयोग ही होगा। सम्पदा कितनी ही क्यों न बढ़े पर यह ध्यान तो रहे कि उपभोक्ता की गरिमा ही साधनों का सत्परिणाम प्रस्तुत कर सकती है।”

‘पियरे टेल चार्डिन’ अपनी पुस्तक ‘दि फिनोमेना आफ मैन’ में लिखते हैं- विग्रहों को सहकार में- खीज को मुस्कान में बदलने का एक ही तरीका है कि मनुष्य के वर्तमान चिन्तन और रुझान में भारी परिवर्तन किया जाय। यह महान कार्य सामान्य प्रयासों से सम्भव नहीं उसके लिए अन्तःकरण को टटोलने और उसमें ईश्वर प्रदत्त महानता को उभारने की आवश्यकता पड़ेगी। परिस्थितियों से जुड़ी हुई विभिन्नता का परिशोधन सहृदयता उगाने एवं जगाने से ही सम्भव हो सकता है। सभी प्रख्यात भौतिकविद् मनीषी इस बात पर जोर देते रहे हैं कि कब सहृदयता उभारने के लिए मानवी अन्तःकरण में नई तैयारी के साथ नई कृषि की जानी चाहिए। इस क्षेत्र की उपार्जित फसल से ही मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और आत्मिक भूख बुझेगी।

“मैन द अननौन” और ‘रिफलेक्शन आफ लाइफ’ के नोबेल पुरस्कार प्राप्त लेखक अलेक्सिस कैरेल ने कई स्थानों पर इस एक ही बात को दुहराया है कि प्रकृति दोहन से भी बढ़ा क्षेत्र अन्तःकरण की गरिमा उभारने का है। उस उपेक्षित क्षेत्र को नये सिरे से समझा एवं समुन्नत बनाया जाना चाहिए। मनुष्य के उच्च चेतन का विकास होने पर ही समस्याओं के समाधान और अभ्युदय का आधार खड़ा हो सकेगा। विश्व मनीषा को अपना ध्यान एक ही केन्द्र पर एकत्रित करना चाहिए कि मनुष्य को सहृदय बनाने के लिए उसकी प्रस्तुत अन्तःचेतना की किस प्रकार जागृत किया जाय।

असंख्य प्रतिपादनों में से कुछ की झाँकी ऊपर की पंक्तियों में करने के उपरान्त इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि व्यक्ति और समाज को वर्तमान से उबारने और उज्ज्वल भविष्य के निकट पहुँचाने के लिए मानवी अन्तरात्मा को समझा और जगाया जाना उसी प्रकार आवश्यक है जिस प्रकार सामान्य जीवन में निर्वाह के साधन जुटाना।


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