महर्षि दयानन्द ने किसी व्यक्ति को निःसंकोच प्रश्न पूछने की स्वीकृति दी और उसने पूछा- “कभी ऐसा भी समय आया है आपके जीवन में जब आपने काम पीड़ा अनुभव की हो?” स्वामी जी ने उत्तर दिया- “आज तक मेरे मन में कभी ऐसा विकार नहीं आया। मेरे विचार कभी काम से प्रभावित ही नहीं हुए तो वह शरीर में प्रविष्ट कैसे होते।”
“स्वप्न में भी नहीं?”
“जब कामुक विचारों को शरीर में प्रवेश करने का अवसर ही नहीं मिला तो वे क्रीड़ा कहाँ करते। कुविचार ही तो विकारों के जनक होते हैं। जब कुविचार नहीं तो विकार भी नहीं।”