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November 1981

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“नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकांतमनश्नतः, न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन। युक्ताहार विहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु, युक्तस्वप्नाबोध्स्य योगो भवति दुःखहा॥ (गीता 3।16।17)

ज्यादा खाने वाला या भूखा रहने वाला, बहुत सोने वाला बहुत जागने वाला इस योग को सिद्ध नहीं कर सकता। जिसके आहार, बिहार, निद्रा, कर्म, आदि सब व्यवहार सम्यक रूप से हैं, ऐसे पुरुष को योग की सिद्धि होती है।


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