जीवन को यदि मोटी दृष्टि से देखा जाए तो वह एक ऐसा खिलवाड़ जान पड़ता जिससे ज्यों-त्यों करके काटा जाता है। निर्वाह की व्यवस्थाएँ जुटाने एवं प्रतिकूलताओं से मोर्चा लेने में ही माथापच्ची करते-करते समय पूरा हो जाता है। चारों ओर अभाव एवं संकट ही नजर आते हैं। नीरस-निरर्थक जीवन जीते हुए- अपने दुर्भाग्य का रोना रोते हुये- व्यक्ति अपना समय समाप्त कर मौत के मुँह में चला जाता है। साधारण जीवन की यही एक छोटी-सी झाँकी है जो विपरीत परिस्थितियों में तो अन्य प्राणियों से भी इसे गया-बीता बना देती है।
इससे ऊपर की स्थिति वह है जैसे असामान्य जीवन कहते हैं। सफल, समर्थ और समुन्नत स्तर को प्राप्त व्यक्ति साधारण मनुष्यों को सौभाग्यशाली प्रतीत होते हैं, वैसी स्थिति प्राप्त करने को उनका मन भी ललचाता है। पिछड़े और समुन्नत मनुष्य समूहों के मध्य यह अन्तर देखने से आश्चर्य होता है कि एक जैसी काया में रहने वाले मनुष्य प्राणियों की स्थिति का इतना ऊँचा-नीचा होने का, इस असमानता का क्या कारण हो सकता है। सृष्टा का पक्षपात- अविवेकपूर्ण व्यवहार भी इसे नहीं कह सकते। यदि वहाँ व्यतिक्रम रहा होता तो यह अव्यवस्था प्रकृति के हर घटक में उच्छृंखलता के रूप में दृष्टिगोचर होती।
मानव-मानव के बीच पाये जाने वाले इस अन्तर का जब कारण ढूंढ़ते हैं तो एक यह तथ्य हाथ लगता है कि जीवन की उथली परतों तक ही जिनका वास्ता रहा है, उन्हें हमेशा छिलका ही हाथ लगा है। जिन्होंने गहराई में प्रवेश किया है, वे बहुमूल्य रत्न पा सकने में सफल हुए हैं। गहराई में उतरने को ही अध्यात्म की भाषा में ‘साधना’ कहते हैं। साधना किसकी? इसका उत्तर है उस देवता की जो मानव जीवन के रूप में हर व्यक्ति को सहज रूप में मिला है। इस कल्पवृक्ष की जो जितनी साधना कर लेता है, वह उतना ही समर्थ-सफल एवं ऊँचे स्तर का बनता चला जाता है। इसकी गरिमा न समझ पाना, ‘स्व’ का बोध न होने से परावलम्बी स्वभाव का होना ही वस्तुतः वह अभिशाप है जो कई व्यक्तियों को गई-बीती, नर-पशु जैसी, स्थिति में रहने को विवश कर देता है। सृष्टा ने बीज रूप में वैभव का भाण्डागार अपनी इसी मानवी काया में सँजोकर रखा है। भूल इतनी ही होती है कि न इसे खोजा जाता है, न काम में लाने का बात ही बनती है। जब इस भूल के परिमार्जन के प्रयास चल पड़ते हैं तो इसे ‘आत्म ज्ञान’ कहते हैं। यदि जागृति जब सक्रिय होकर महानता की दिशा में मोड़ लेने लगती है तो इसे आत्मोत्कर्ष की साधना कहा जाता है।
जीवन प्रत्यक्ष देवता है। उसकी साधना कर सकने वाले सुनिश्चित रूप से भौतिक सिद्धियाँ और आत्मिक ऋद्धियाँ उपलब्ध करते हैं। दूसरे भ्रमग्रस्त तो कल्पित देवी देवताओं के सामने नाक रगड़ते, मनुहार करते, दाँत निपोरते और अन्ततः निराश होकर खीजते अनास्था व्यक्ति करते देखे जाते हैं। विवेकवानों को वास्तविकता ही वरण करनी चाहिये भले ही वह कठोर या कष्टसाध्य ही क्यों न हो। नियति की व्यवस्था एक सुसंचालित सत्ता के हाथ में है। उसे किसी आतुर लालची की इच्छानुसार नहीं बदला जा सकता। प्रतिभा अर्जित किये बिना बहुमूल्य सफलताएँ यदि ऐसे ही पूजा-पाठ जैसे ‘शार्टकटों’ में मिल जाया करें तो फिर संसार में एक भी मनुष्य व्यक्तित्व उभारने- उत्कृष्टता अपनाने का कष्टसाध्य मार्ग अपनाने का साहस न करेगा। अपना आपा ही सब कुछ है। यदि इसे साथ लिया, इसकी उपासना कर ली तो सब कुछ पाया जा सकता है- इस तथ्य को जितनी गहराई से समझा जा सके- उत्तम है। जो इस सनातन सत्य को जितना जल्दी अंगीकार कर सके, उन्हें उतना ही बड़भागी माना जायेगा। मनुष्य जनम से जुड़े हुये अनेकानेक उपहारों से लाभान्वित हो सकने का अवसर मात्र ऐसे ही लोगों को मिलता रहा है। भविष्य में भी उन्हीं के लिये सुनिश्चित रहेगा।
देवता भीतर से उगते हैं। सामने तो वे खड़े भर दीखते हैं। मनःस्थिति अदृश्य है, आँतरिक है। परिस्थिति उसकी दृश्यमान परिणति है। विषाक्तता रक्त में रहती है। व्रण-अर्बुद के रूप वह फूटती भर है। पेड़ के पल्लव, फल-फूल ऊपर आसमान से नहीं टपकते, वे दृष्टि से ओझल रहने वाली जड़ों द्वारा भूमि से रस रूप में खींचे जाते हैं। विभूतियाँ अन्तर में से निकलती हैं। आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि कुपात्रता के रहते किसी दैवी शक्ति ने मात्र पूजा पत्री से प्रसन्न होकर किसी के साथ पक्षपात किया हो और योग्यता से अधिक अनुपात में अनुग्रह उड़ेल दिया हो।
मनुष्य की संरचना कुछ ऐसी विशिष्ट है कि वह आत्म-सम्पदा के सहारे सजातीय परिस्थितियों एवं व्यक्तित्वों को अनायास ही अपने निकट जमा कर लेता है। पेड़ अपनी आकर्षण शक्ति से बादलों को खींचते हैं और बरसने के लिये विवश कर देते हैं। खदानें अपने सजातीय कणों को दूर-दूर तक आमंत्रण भेजती हैं और उन्हें अपने निकट खींच बुलाती हैं। यह चुम्बकत्व है जो जहाँ जितना अधिक होगा, सजातियों को उसी स्तर का आह्वान-निमन्त्रण मिलेगा। फलतः वे तेज गति से दौड़कर उससे आ मिलते हैं। खिलते फूल का चुम्बकत्व मधुमक्खियों, तितलियों और भौरों को आमंत्रण देता है। खिलते-उभार की ओर अग्रसर यौवन से अनेकों आंखें आकर्षित होती हैं। प्रतिभा अनेकों को प्रशंसक एवं अनुयायी बनाती है। यह चुम्बकत्व का चमत्कार है। ठीक इसी प्रकार साधक का चुम्बकत्व दैवी शक्तियों को अदृश्य रूप में आमंत्रित करता है और उन्हें अनुग्रह बरसाने के लिये सहमत विवश करता है।
जीव का छोटा अन्तराल लगभग उतना ही समर्थ है जितना ब्रह्म का विराट् विस्तार। जानकारों को पता होता है कि पेड़ तो मात्र कलेवर है, उसकी शोभा-समर्थता का स्त्रोत को अदृश्य जड़ों में ही पूर्णतया सन्निहित है। सौर मण्डल की समस्त प्रक्रिया सूक्ष्म रूप में नन्हें से परमाणु में यथावत् गतिशील रहती है। वृक्ष का विशालकाय ढाँचा छोटे से बीज में सुनिश्चित रूप में विद्यमान रहता है। ठीक इसी प्रकार मानवी काया के जर्रे-जर्रे में विराट् विश्वात्मा की झाँकी मिलती है। हर कण कितना सामर्थ्यवान है, असीम सम्भावनाओँ से भरपूर है- यह जानकर आश्चर्य होता है। पर विडम्बना यह है कि इसी आत्म गरिमा से- असंख्य व्यक्ति अनभिज्ञ होते हैं। इसी कारण गयी-बीती जिन्दगी जीते हुये इस अनमोल रत्न को कौड़ी के मोल तक में बेचने की तैयार रहते हैं।
इस स्थिति में मुक्ति पाकर- मानवी गरिमा का बोधकर- एवं इसकी समुचित सुनियोजित व्यवस्था बनाकर- चलने वाला व्यक्ति सामान्य से असामान्य की स्थिति में जा पहुँचता है। परावलम्बन से आत्मावलम्बन की ओर चिंतन को चलने लगना इसी प्रगति का चिन्ह है। हर काम में बाहर से सहारा, दैवी अनुकम्पा चाहने वाला व्यक्ति जब ‘स्व’ परायण होकर अपने ‘सुपर चेतन’ को जगाने का पुरुषार्थ आरम्भ करता है तो उसका महामानव बनने का पथ-प्रशस्त होता चला जाता है। सिद्धान्त सब मिलाकर एक ही है कि व्यक्ति स्वयं को जाने- अपनी प्रसुप्त क्षमता को जगाये एवं आत्म परिष्कार की- व्यक्तित्व निर्माण की- प्रक्रिया से अपनी जीवन साधना आरम्भ करे। हर दृष्टि से फलितार्थ इसी तथ्य के रूप में निकल कर आता है कि जिसने व्यक्तित्व के विकास की- अन्तः की सामर्थ्यों को जगाने- विकसित करने की- साधना कर ली, वही ‘सिद्ध पुरुष’ बन गया।
अभी मानवी मस्तिष्क की जितनी भी जानकारी वैज्ञानिकों को है- वह मात्र उसका 10 प्रतिशत भाग है। इसी सक्रिय भाग की विद्युत का मापन कर मस्तिष्क रूपी कम्प्यूटर को विलक्षण माना जा चुका है। प्रसुप्त जो है, वह कितना सामर्थ्यवान होगा, उसकी तो मात्र कल्पना ही की जा सकती है। गुणसूत्रों की बनावट व क्रिया-कलापों के विषय में जो भी कुछ जाना जा सका है, विलक्षण है। जीव-कोष- उसकी संरचना, प्रक्रियाएँ डी.एन.ए- आर.एन.ए. इनकी जब गौरव गाथा पढ़ते हैं तो आश्चर्यचकित रह जाते हैं। परमाणु के नाभिक की असीम सम्भावनाओं की तरह शरीर का हर जर्रा अपरिमित विशेषताओं से भरा हुआ है। इन्हीं काय-घटकों के माध्यम से व्यक्तियों ने ऐसे-ऐसे असम्भव काम कर दिखाये हैं जिन्हें देखकर आश्चर्य से दांतों तले अंगुली दबानी पड़ती है। ऐसे व्यक्ति जो प्रारंभ में घटिया स्तर के थे ‘स्व’ की गरिमा को बोध होने से- आगे कुछ से कुछ बन गये। यह दुस्साहस- असम्भव को कर दिखाने की ललक जहाँ से उठती है- वह मूल स्त्रोत अपना अन्तःकरण ही है। जहाँ से वे हिलोरें सतत् उठती रहती हैं जो जीवात्मा को उठने, जागने और ध्येय तक पहुँचने के लिये गतिशील होने को प्रेरित करती हैं। इसे ही अन्तरात्मा की पुकार, भगवान की आवाज, ‘कन्सायन्स’ या ‘जमीर’ नाम से अलंकृत किया जाता है। इसे सुनकर जो अपने पराक्रम को सही मोड़ दे देता है, वही महानता का पथ पा लेता है।
शरीर की दृष्टि से बली दुस्साहसियों की यहाँ चर्चा नहीं हो रही है। जीवट के धनी, मनःस्थिति से परिस्थिति को बदलने वाले, अपने अन्तः की साधना से अपना नया संसार बनाने वाले- ऐसे नर पुंगव इतिहास में अनेकों हुये हैं। महात्मा गाँधी शरीर की दृष्टि में तो क्षीण-दुर्बल थे। मात्र 16 पौंड की काया, पर प्रचण्ड मनोबल के धनी इस महामानव ने अपनी जीवन साधना से भारत का नव-निर्माण कर दिखाया। अब्राहम लिंकन, मार्टिन लूथर एवं जार्ज वाशिंगटन भी ऐसे ही सामान्य व्यक्तियों में से थे। जीवनोद्देश्य को पहचान कर जब उन्होंने अपनी दिशा को मोड़ा तो ऐसे चले कि फिर पलटकर नहीं देखा। सारी प्रतिकूलताओं से अकेले ही मोर्चा लेने की यह सामर्थ्य उनके भीतर से ही तो उपजी।
वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों, समाज सेवियों को जो यश-सम्मान मिलता है- वह उनकी प्रतिभा साधना मनोयोग पूर्वक श्रम से अर्जित उपलब्धियों के कारण। इसके लिये उन्हें दैवी मनुहार नहीं करनी पड़ी। अपने अन्दर उन्होंने स्वयं को टटोला- एक विपुल रत्नराशि का भण्डार पाया तथा स्वयं को उसके सदुपयोग की ओर नियोजित कर दिया। हंफ्री, डेवी, एलेग्जेंडर फ्लेमिंग, मैडम क्यूरी, एडीसन, आइन्स्टीन, कार्ल मार्क्स, सी.वी. रमन, जगदीश चन्द्र वसु, बाबा साहब आमरे, बाबा राघवदास जैसे कुछ उदाहरण ऐसे व्यक्तियों के हैं जिन्होंने वास्तविक अर्थों में जीवन देवता की साधना की।
इस प्रकार प्रसुप्त शक्तियों के जगने-उभरने-उफनने पर उसी तरह की प्रवाहधारा बहने लगती है जैसी कि यमुना, नर्मदा जैसी नदियाँ कुंडों से निकलकर भूतल पर प्रवाहित होती हैं। इतना होने पर ब्रह्म की दिव्य शक्तियाँ साधक पर अंतरिक्ष से घटाओं की तरह बरसती हैं। यह दोनों ही सौभाग्य हर किसी के लिये सहज सुलभ हैं। स्वयं हो इस योग्य बनाकर इस संसार में कुछ भी पाया जा सकता है। सामान्य स्थिति में तो सब कुछ अनगढ़-सा, बेढंगा-सा बना रहता है। जीवन देव की साधना अन्तरंग और बहिरंग दोनों पक्षों को स्वस्थ समुन्नत बनाती है। झाड़ियों के स्थान पर उद्यान लगाना- वन्य पशुओं को पालतू बनाना- अनगढ़ को सुगढ़ में बदल डालना- ही संस्कृति है। इसी का चमत्कार इस दृश्य जगत में सर्वत्र बिखरा पड़ा है। अपने आपे को सद्गुणी की संपदा से लदा कल्पवृक्ष बना लेना- यही साधना का उद्देश्य है। यही वह तत्त्वदर्शन है जो एक नितान्त सामान्य जीवन जीने वाले को मात्र एक ही मोड़ मिलते ही असामान्य बना देता है।