उद्धत महत्वाकाँक्षाएँ अवाँछनीय

November 1981

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कथा सरित्सागर में एक रोचक कथा आती है- “चांडाल कुल में जन्मी एक कन्या को अपने कुलवंश से घृणा हो गई। युवावस्था में प्रवेश करते ही उसने निश्चय किया कि वह सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति से विवाह करेगी, अन्यथा आजीवन कौमार्य व्रत निभायेगी। इस महत्वाकाँक्षा से अभिप्रेरित होकर वह सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति की खोज में निकल पड़ी। एक नगर में उसने एक बड़ा जुलूस जाते देखा। स्वर्ण अलंकारों ये सुसज्जित हाथी पर राजा बैठा था। पीछे-पीछे हजारों की संख्या में सैनिक पैदल एवं घोड़े पर सवार राजा का अनुगमन कर रहे थे। कुछ युवतियाँ चँवर ढुला रही थीं। यह सोचकर कि सबसे बड़ा व्यक्ति यही हो सकता है कन्या प्रफुल्लित हो उठी और पीछे-पीछे चल पड़ी। राजा से विवाह करने का उसने निर्णय लिया। मार्ग में एक संन्यासी गुजरा। राजा की दृष्टि जैसे ही संन्यासी पर पड़ी वह हाथी से उतर पड़ा और उसके चरणों में नमन किया। कन्या सोचने लगी कि राजा से बड़ा तो संन्यासी है। मुझे विवाह संन्यासी से करना चाहिए। राजा को छोड़कर वह संन्यासी के पीछे चलने लगी। आबादी से दूर जंगल में स्थित संन्यासी एक मन्दिर में पहुँचा। देवमूर्ति को प्रणाम करके वह ध्यानस्थ हो गया। किंकर्तव्यविमूढ़ बनी वह अपने निर्णय पर पश्चात्ताप करने लगी। मूर्ति को बड़ा जानकर उससे विवाह की आकाँक्षा लिए वह वहीं बैठ गयी। कुछ समय बाद मन्दिर में एक कुत्ता आया, अपनी सहज प्रकृति के अनुसार उसने मूर्ति के ऊपर ही मूत्र त्याग किया। महत्वाकांक्षी कन्या पुनः पश्चाताप करने लगी। कुत्ता जैसे ही मन्दिर से निकला, विवाह के योग्य वाँछित पात्र जानकर वह उसके पीछे चल पड़ी। चलते-चलते कुत्ता एक चाँडाल बस्ती में जा पहुँचा और एक झोंपड़ी के समक्ष जाकर भौंकने लगा। आवाज सुनकर एक युवक बाहर निकला। कुत्ते ने युवक को जैसे ही देखा उसके पैरों में लौटकर पाँव को चाटने लेगा। अपनी ही बस्ती और अपनी ही बिरादरी में उपयुक्त और श्रेष्ठ विवाह योग्य पुरुष को देखकर वह अपने आप को धिक्कारती रही। युवक के समक्ष कन्या ने विवाह प्रस्ताव रखा। सुशील एवं रूपवती जानकर उसने विवाह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और दोनों गृहस्थ जीवन के बंधन में बँध गये।”

कथा सामान्य होते हुए भी असामान्य प्रेरणा देती तथा मानवी प्रवृत्ति का बोध कराती है। उद्धत भौतिक महत्वाकाँक्षाएँ मनुष्य को इसी प्रकार परेशान करती हैं। बड़ा बनने- बड़प्पन पाने की इच्छा से प्रेरित होकर मनुष्य अपने सहज क्रम और उपलब्ध परिस्थितियों को छोड़कर जीवन पर्यन्त बन्दरों के समान उछलकूद करना-मचक-मचक करता रहता है। “दूर के ढोल सुहावने” जैसी मनोवृत्ति के कारण उपयुक्त, अनुपयुक्त भले-बुरे के बीच अन्तर करते नहीं बनता। वर्तमान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और उपलब्ध परिस्थितियाँ स्वयं के विकास के लिए सर्वोत्तम साधन है। इस तथ्य से अवगत न होने के कारण ही भटकाव बना रहता है जो है उससे लाभ उठाने की नीति अपनाकर उपलब्धियों का सदुपयोग करते नहीं बनता, और जो नहीं है उसे प्राप्त करने की आकाँक्षा मन में बनी रहती है। फलतः मनुष्य सदा असन्तुष्ट अशान्त ही बना रहता है।

विश्लेषण करने पर पता चलता है कि महत्वाकांक्षा का तो कोई ओर-छोर नहीं। उनकी न कोई सीमा है न मर्यादा, अतएव उनकी आपूर्ति भी असम्भव हैं बलवान बनने, बुद्धिमान होने, सम्पत्ति एकत्रित करने, श्रेय सम्मान पाने जैसी कितनी ही इच्छाएँ ऐसी हैं जिनका कहीं अन्त नहीं है। मनुष्य कितना भी प्रयत्न क्यों न करे शेर और हाथी जैसा शक्तिशाली नहीं बन सकता।

एक महत्वाकाँक्षा किसी प्रकार पूरी भी हो जाय तो भी इतने मात्र से सन्तुष्टि नहीं मिल जाती। एक के पूरी होते ही दूसरी उठ खड़ी होती है। बुद्धिमान में धनवान बनने, धनवान में प्रतिष्ठा पाने, बलवान में धन संग्रह करने की इच्छा देखी जाती है। यह इस बात का परिचायक है कि भौतिक महत्वाकाँक्षाओं का अन्त नहीं और न ही उनकी आपूर्ति सम्भव है। पूर्ति का अभाव असन्तोष एवं अशांति को जन्म देता है। फलतः अनेकानेक प्रकार के सामाजिक विग्रह प्रतिस्पर्धा स्वरूप खड़े होते हैं।

उपरोक्त विवेचना से यह शंका हो सकती है कि धनवान, बुद्धिमान, बलवान बनने की आकाँक्षा अनुचित हैं। पर बात ऐसी नहीं है। जो आकाँक्षाएँ व्यक्तिगत स्वार्थ से अभिप्रेरित होती हैं, वह बुरी हैं। संकीर्णता की परिधि से बाहर निकलकर स्वार्थपरता के धरातल से ऊपर उठकर जब वे परमार्थ को लोक-कल्याण का माध्यम बन जाती हैं तो उनकी सराहना की जाती है। मूलतः न तो धन का संग्रह बुरा है, न ही ज्ञान का अर्जन। शक्ति सामर्थ्य भी अपने में महत्वपूर्ण है, पर जब इनका लक्ष्य उद्धत प्रदर्शन और अपने अहंकार को पोषण देना होता है तो ये भर्त्सना के पात्र बनते हैं। आलोचना उस मनोवृत्ति की होती है। जो मनुष्य को नीति अनीति कुछ भी अपनाने को बाध्य करती है।

महत्वाकाँक्षी व्यक्ति अहंकारी होता है, साथ ही निष्ठुर भी। अपनी भौतिक कामनाओं की पूर्ति के लिए वह कुछ भी कर सकता है। इतिहास के पन्ने इसकी गवाही देते हैं। हिटलर, मुसोलिनी, नैपोलियन, सिकन्दर, इनकी विश्व विजय की महत्वाकाँक्षा ने कितना नर संहार किया यह सभी जानते हैं। युद्धों के इतिहास इनकी ही परिणति है। अधिकाँश संघर्षों का कारण महत्वाकांक्षाएं ही होती हैं। जो प्रतिस्पर्धा अहंता, ईर्ष्या, और द्वेष को जन्म देती है, अन्तर्राष्ट्रीय तनावों में उसकी प्रधान भूमिका होती है।

अतएव इनसे अपने को बचाये रखना आवश्यक है। ज्ञानार्जन के लिए प्रयत्न किए जाएँ, पर उसका उद्देश्य व्यक्तिगत अहंता को परिपोषण देना अथवा उद्धतता प्रदर्शन ने होकर समाज को लाभान्वित करना हो।

शक्ति सम्पन्न बनना भी अच्छा है, पर दूसरों को खाने, गिराने और अपना स्वार्थ साधने जैसी मनोवृत्ति उसमें न हो, अर्जित सामर्थ्य से दूसरों को सहयोग पहुँचाना हो। यही बात धन संग्रह के संदर्भ में भी लागू होती है। ईमानदारी और श्रमपूर्वक धन कमाया जाय, संग्रह किया जाय। पर उस संग्रह का लक्ष्य स्वयं उपभोग तक सीमित न रहे। अन्यों को भी इसका लाभ मिलना चाहिए। महान बनने- बढ़-चढ़कर त्याग बलिदान का उदाहरण प्रस्तुत करने जैसी आकाँक्षा उठे तो ही वह महत्वाकाँक्षा व्यक्ति स्वयं एवं समाज के कल्याण का कारण बनती है।


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