प्रेम और मोह का आधारभूत अन्तर

November 1981

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प्रेम और मोह में एक को काया और दूसरे को छाया कहा जा सकता है। दोनों में वही अन्तर होता है जो काया और छाया में है। शरीर में जीवन होता है छाया निष्प्राण होती है। छाया को देखकर वास्तविकता का भ्रम तो हो सकता है, पर उससे काया का प्रयोजन पूरा नहीं हो पाता।

प्रेम का आरम्भ किसी व्यक्ति से हो तो सकता है पर उस पर सीमित नहीं रह सकता। यदि सीमित यह जाता और कुछ पाने की कामना करता है तो वह मोह बन जाता है। प्रेम में पाने की नहीं देने की उमंग रहती है। प्रेमी की प्रसन्नता और हित कामना जुड़ी रहती है। मोह आदान-प्रदान की अपेक्षा और उपभोग की कामना करता है। प्रेम वस्तुओं से जुड़कर सदुपयोग की, व्यक्तियों से जुड़कर उनके कल्याण की और समस्त विश्व से जुड़कर परमार्थ की बात सोचता है। मोह में व्यक्ति, पदार्थ और संसार से किसी न किसी प्रकार का स्वार्थ जुड़ा रहता है। जिसके प्रति मोह होता है उसे अपनी इच्छानुसार चलाने की ललक रहती है। इसमें व्यवधान होने पर खीज, झुँझलाहट और असन्तोष का उद्वेग उमड़ता है। प्रेम इस तरह की कोई कामना नहीं करता। प्रेमी के हित चिन्त और उसके प्रति अपने कर्त्तव्यों की पूर्ति में ही सन्तोष अनुभव करता है।

प्रेम का अंकुरण परिवार से आरम्भ होता है और विकसित, पल्लवित, पुष्पित होते हुए उसकी शाखाएँ, प्रशाखाएं, समस्त समाज में फैल जाती हैं। परिवार प्रेम साधना की एक पाठशाला है। पत्नी द्वारा बच्चों के लिए अपने सुखों की बलि दी जाती है। उनकी प्रसन्नता और विकास की बात सोची जाती है। उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति में जो कष्ट उठाया जाता है उसमें सन्तोष की अनुभूति होती है। यह आरम्भिक प्रशिक्षण है किन्तु जब अपने सगे सम्बन्धियों की प्रसन्नता के लिए उचित-अनुचित का ध्यान नहीं रहता और आदर्शों की बलि दे दी जाती है तो वह प्रेम नहीं रहता, मोह बन जाता है। जो स्वयं तथा जुड़े हुए व्यक्तियों के लिए हानिकारक होता है।

प्रेम गंगा की भाँति वह पवित्र जल है जिसे जहाँ छिड़का जाय वहीं पवित्रता पैदा करेगा। उसमें आदर्शों की अविच्छिन्नता जुड़ी रहती है। आदर्श रहित प्यार को ही मोह कहते हैं। मोह में अपने प्रियपात्र को ऊँचे उठाने की क्षमता नहीं होती। अवाँछनीयता से मोह समझौता कर सकता है-प्रेम नहीं। दूरदर्शिता, विवेकशीलता, शालीनता, पवित्रता, सदाशयता जैसे गुणों का भरपूर समावेश प्रेम में होता है। प्रेमी जिससे प्रेम करता है उसमें इन्हीं गुणों की अभिवृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहता है। मोह इन विशेषताओं से रहित होता है।

भाव-संवेदनाओं के उच्चस्तरीय आदर्शों के प्रति समर्पण को प्रेम कहा जाता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता होती है कि यह सीमाबद्ध नहीं हो सकता। क्रमशः विस्तृत होता जाता है। सूर्य पूर्व से उदय तो होता है किन्तु उसका प्रकाश समस्त दिशाओं में फैल जाता है। बादल समुद्र से निकलते तो हैं, पर उसी क्षेत्र में नहीं बरसते-सर्वत्र अपना अनुदान बिखेरते हैं। उत्कट प्रेम की भी यही विशेषता होनी चाहिए। उसका आरम्भ सगे सम्बन्धियों, मित्रों से तो हो पर उतने तक ही सीमित न रहे वरन् समाज, राष्ट्र और विश्व की सीमाओं में विकसित होना चाहिए- देश, धर्म, संस्कृति और मानव-जाति की सेवा साधना में निरत होना चाहिए।

जीवन के सुन्दरतम रूप की कुछ अभिव्यक्ति हो सकती है तो वह प्रेम में ही है। इसको निकाल दिया जाय तो मनुष्य जीवन में कोई विशेषता रह नहीं जाती। शुष्क, नीरस हृदय मरघट के पिशाच की भाँति जलता और सदा अतृप्त, उद्विग्न और अशान्त बना रहता है। ऐसा जीवन स्वयं के लिए भारभूत और समाज के लिए अभिशाप सिद्ध होता है। प्रेम संसार की वह ज्योति है जिसका प्रकाश पाकर हर व्यक्ति अपने अन्तरंग के कषाय-कल्मषों को दूर करता और हृदय को पवित्र, निर्मल बनाता है। विश्व की यह सबसे बड़ी रचनात्मक शक्ति है।

अन्तःकरण से उठने वाली प्रेम की लपटें शरीर, मन, बुद्धि और अन्तःकरण की शक्तियों का उद्दीपन कर उन्हें ऊपर उठाती हैं और दिव्य आनन्द की रसानुभूति कराती हैं। निष्काम प्रेम में वह शक्ति है जो प्रवाह बनकर फूटती है और हजारों लाखों लोगों के जीवन में आनन्द का स्त्रोत बनकर उमड़ पड़ती है। वह हजारों के अन्तःकरणों को धोकर निर्मल बना देती है। मोह में न तो विस्तार की गुँजाइश होती है। और न ही किसी को प्रभावित करने की क्षमता ही। वह विशुद्ध रूप से भौतिक धरातल पर टिका होता है और भौतिक आधारों के डगमगाते ही असन्तोष और निराशा उत्पन्न करता है।

प्रेम की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति ईश्वर प्रेम के रूप में होती है। ‘भक्ति’ इसी का नाम है। अपनी भाव संवेदनाओं को परमात्मा के समक्ष समर्पित कर देना-भक्ति है। परमात्मा विश्वात्मा का पर्याय है। वह व्यक्ति नहीं शक्ति है। विश्वात्मा उसकी अभिव्यक्ति है। भक्ति का अर्थ है अपनी भाव संवेदनाओं की विश्वात्मा अर्थात् समस्त जड़-चेतन में घुला-मिला देना। समस्त संसार को परमात्मा का स्वरूप मानकर उसकी आराधना करना। उसमें सत्यम्, शिवम्, सुन्दम् का दर्शन करते हुए अपनी समस्त शक्तियों को विश्वकल्याण के लिए नियोजित रखना।

भक्ति शब्द संस्कृत के ‘भज्’ धातु से बना है जिसका अर्थ होता है ‘भज सेवायाम्’। जो भक्ति के स्वरूप को और भी स्पष्ट करता है। ईश्वर भक्त को यही करना होता है। देव प्रतिमा के समक्ष वह अपनी भाव संवेदनाओं के विस्तार का ही अभ्यास करता है। भक्त की सफलता की कसौटी भी यही है कि उसने अपने आपे का कितना अधिक विस्तार किया।

ईश्वर के प्रति घनिष्ठता और समर्पण साधक को क्षुद्र से महान, लघु से विभु, नर से नारायण और पुरुष से पुरुषोत्तम बनाने में समर्थ है। भक्ति जब जीवन में उतरती है तो अन्तःकरण में अनायास ही उत्कृष्ट आस्थाएँ और उदात्त भावनाएँ उमड़ने लगती हैं। प्रेम की यह पराकाष्ठा है। इस स्थिति में अन्तरात्मा से आनन्द की निर्झरिणी बहती है जिसमें अवगाहन कर साधक सर्वत्र अपनी ही आत्मा-सत्ता की अनुभूति करता है।

‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’, ‘सर्व खिल्विदं ब्रह्म’ -वेदान्त में वर्णित अद्वैत की यही स्थिति है जिसमें सर्वत्र अपनी ही सत्ता क्रीड़ा-कल्लोल करती दिखाई देती है। इस चरम स्थिति की प्राप्ति ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। यहाँ तक पहुँचने के लिए मनुष्य को मोह रूपी छाया को छोड़ना और प्रेम की जीवंत काया को पकड़ना होगा, आत्म-विस्तार के लिए सतत् प्रयत्नशील रहना होगा।


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