अपनों से अपनी बात- -

November 1981

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आहार-बिहार का विपर्याय शक्ति के उपार्जन एवं उपयोग की मध्यवर्ती श्रृंखला को गड़बड़ा देती है। आमदनी कम और खर्च अधिक होने पर जिस प्रकार ऋणी, दरिद्र एवं दिवालिया बनना पड़ता है। उसी प्रकार उपयुक्त आहार बिहार के बिना मनुष्य दुर्बल एवं तनाव ग्रस्त होता जाता है। ऐसे व्यक्ति ऋतु प्रभाव से लेकर विषाणुओं के आक्रमण के छोटे-छोटे दबाव भी सहन नहीं कर पाते और आयेदिन रुग्णता ग्रस्त होते हैं। मानसिक असन्तुलन एक तीसरा कारण है जो आहार-बिहार के व्यक्तिक्रम से भी अधिक घातक सिद्ध होता है। दुश्चिनताएँ कहीं न कहीं से- कोई न कोई बहाना लेकर आक्रमण करती हैं और शरीर पर नियन्त्रण करने वाला मनःसंस्थान पद क्षुब्ध होकर अपना कार्य ठीक तरह कर पाने में असमर्थ होता है। ड्राइवर असन्तुलित हो तो वाहन की दुर्गति होना निश्चित है। बढ़ती हुई आधि-व्याधियों के कारणों में यों दरिद्रता, अशिक्षा, परिस्थिति आदि कारणों की भी गणना हो सकती है, पर वास्तविकता इतनी ही है कि जीवन क्रम की दृष्टिकोण की अस्त-व्यस्तता ही मनुष्य को स्वास्थ्यगत तथा व्यवहारगत संकटों के गर्त में धकेलती है।

पिटने पद दर्द होना स्वाभाविक है। शरीर और मस्तिष्क की पिटाई जीवन क्रम में बरता गया अनाचार करता है। फलतः कई प्रकार के दर्द, दाह, शोध, अवरोध ताप जैसे लक्षण जिस-तिस अवयव में उभरते रहते हैं। होना यह चाहिए था कि मूल कारणों को खोजा और उन्हें हटाया जाय, पर उतने झंझट में कौन पड़े, यह सोचकर ऐसे उपाय अपनाये जाते हैं। जो तत्काल कुछ राहत दिखा दें, पीछे भले ही उनसे दुहरी हानि उठानी पड़े। शामक औषधियों का प्रचलन इसी आधार पर आरम्भ हुआ है। उनकी खपत जिस तेजी से बढ़ रही है उसे देखने से पता चलता है कि रुग्णता के अनेकानेक लक्षण मनुष्य को किस प्रकार त्रस्त कर रहे हैं।

दर्द नाशक औषधियों की इन दिनों भरमार है। यह एक प्रकार के नशीले रासायनिक पदार्थ हैं जो अनुभूति को शिथिल भर कर देते हैं। ज्ञान तन्तुओं की स्थिति अर्ध निद्रित जैसी हो जाती है और वे रुग्णता से उत्पन्न त्रास का सही विवरण व्यक्त करने की अपनी क्षमता खो बैठते हैं। यही है शामक औषधियों का जादुई चमत्कार जिससे बाल-बुद्धि बेतरह आकर्षित होती चली जा रही है। ‘तनाव’ अपने समय का बढ़ता हुआ ऐसा अभिशाप है, जिससे प्रतीत होता है कि शारीरिक ही नहीं मानसिक आरोग्य भी अब बेतरह गिरता चला जा रहा है। शामकों का बढ़ता उपयोग सभ्यता का अनुदान और पीड़ा पर विजय समझा जाता है पर वस्तुतः स्थिति ठीक उल्टी है। संकट का समाधान न करके उसे छिपा भर देना अन्ततः विपत्ति के बढ़ते रहने और समय पर विस्फोट बनकर उभरने की अदूरदर्शिता भर है।

वेलियम, काम्पोज, लिब्रियम, मिल्टाउन आदि बड़े लोगों की दैनिक आवश्यकता बन गई है। एस्प्रो, नोबलजीन आदि के प्रयोग में अब डाक्टरों का परामर्श भी आवश्यक नहीं समझा जाता। नशे और नाश मिश्रित दवाइयाँ पान, सुपाड़ी की तरह व्यवहृत होने लगी हैं। तात्कालिक लाभ यह दीखता है कि मस्तिष्क सुन्न होने जैसी स्थिति में जा रहा है। दर्द तथा तनाव घट गया। नशे की नींद, अनिद्रा से भी महंगी पड़ती है, इसे बहुत कम लोग जानते हैं।

आपत्तिकालीन परिस्थितियों में औषधियों का उपयोग हो सकता है, पर उस प्रयोग को स्वास्थ्य सुधार का विकल्प न बनने दिया जाय। दुर्बलता घेरने लगे तो टॉनिक ढूंढ़ने की अपेक्षा, आहार-बिहार के असन्तुलन को ठीक करने का ध्यान जाना चाहिए। इसी प्रकार रुग्णता बढ़ने पर पीड़ित अवयवों को विश्राम देने और जीवनी शक्ति के अभिवर्धन का मार्ग अपनाना ही श्रेयस्कर है। विपर्याय को सुधार लेने पर मारक औषधियों की आवश्यकता पड़ती है और शामक ढूंढ़नी पड़ती हैं। यह स्मरण रखने योग्य तथ्य है कि इस प्रकार की जादुई उपचार अन्ततः जीवनी शक्ति के भण्डार को बुरी तरह नष्ट करते हैं। और मनुष्य को ऐसे कष्ट साध्य रुग्णता में जकड़ कर रख देते हैं, जिससे पीछा छुड़ाना एक प्रकार से अशक्य ही बन जाता है।

पत्राचार विद्यालय की प्रक्रिया में परिवर्तन

गत अंक में दो महत्वपूर्ण विषयों पर पत्राचार विद्यालय आरम्भ करने की सूचना छपी थी। प्रसन्नता की बात है कि उसे आशातीत समर्थन मिला है और देखते-देखते हजारों आवेदन-पत्र एकत्रित हो गये हैं।

प्रज्ञा परिजनों का युग संधि की अति महत्वपूर्ण बेला में ऐसे अनुदान मिलने चाहिये थे जिनके सहारे वे अपने व्यक्तित्व को निखार सके- परिवार को समुन्नत सुसंस्कृत बना सके साथ ही इस ऐतिहासिक बेला में ऐसे कदम बढ़ा सके जिनसे आत्म-सन्तोष-लोक सम्मान एवं दैवी अनुग्रह की त्रिविधि उपलब्धियाँ अर्जित हो सकें। अब गायत्री तीर्थ में इस प्रयोजन के लिए साधना सत्र लगाये जाया करेंगे। इन्हें दस वर्ष पूर्व के प्राण प्रत्यावर्तन सत्रों के समतुल्य समझा करेगा। प्रशिक्षण बहुत कुछ हो चुका है। जो शेष है उसे पत्रिकाओं के माध्यम से तथा पत्राचार से करने की बात सोची गई। समय कम-स्थान कम-और इच्छुक अधिक और आवश्यकता तात्कालिक एवं महान। इन सभी विसंगतियों का हल ऐसा ही सोचा गया था जैसा कि अंक में छप चुका है।

अनुमान था कि यह क्रम धीमे-धीमे चलेगा और वर्तमान सहयोगियों और साधनों के सहारे उसे क्रमबद्ध रूप से चलाया जाता रहेगा। पर उमड़ते उत्साह के अनुरूप व्यवस्था न बन पाने के कारण अब दूसरे प्रकार के उपाय अपनाने के लिए विवश होना पड़ा है। पत्राचार विद्यालय में सम्मिलित होने वाले छात्रों का प्रशिक्षण संख्या अत्यधिक हो जाने से सम्भव नहीं हो पा रहा है। जल्दबाजी में प्रशिक्षणों का स्तर गिरा देना और ऐसी ही बेगार भुगतान न तो अपने स्वभाव में है न परम्परा के अनुकूल। सभी आत्मीय- सभी भावनाशील- सभी जिज्ञासु-किसे मना करें, किसे स्वीकारें। सामने प्रस्तुत सभी को हाथ में लें तो सामर्थ्य से बाहर। धीमा क्रम चलाया जाय तो महीनों वर्षों लम्बी पंक्ति लगने और प्रतीक्षा में उत्साह टूटने का भय। इन सभी असमंजसों ने नया मार्ग खोजने के लिए विवश किया और मंथन के उपरांत वह निकल भी आया।

इस संदर्भ में अब नई नीति यह है कि प्रज्ञा परिजनों के लिए आन्दोलन के सूत्र संचालन से सम्बन्धित एक विशेषांक ‘प्रज्ञा अभियान’ पत्रिका का निकाला जा रहा है। अब अक्टूबर, नवम्बर का संयुक्तांक है। दो अंकों में जितने पृष्ठ छपने चाहिए थे उससे अधिक हैं। सुरक्षित रखा जा सके इस दृष्टि से उसका साइज अखण्ड ज्योति जैसा बनाया गया है। सभी ग्राहकों को तो वह मिलेगा ही। एक प्रति एक रुपये में अलग से भी खरीदी जा सकेगी।

प्रज्ञा परिजनों के लिए मिशन से सम्बन्धित सभी जानकारियाँ उसी में एकत्रित कर दी गई हैं। अब तक मिशन में उद्देश्य, स्वरूप, कार्यक्रम एवं भविष्य के सम्बन्ध में समय-समय पर विचार एवं निर्धारण छापे बताये जाते रहे हैं। पर वे एक स्थान पर एकत्रित न रहने के कारण क्रमबद्ध एवं सुनिश्चित श्रृंखला में पिरोये हुए नहीं हैं। फलतः परिजनों को निजी समाधान करने तथा संपर्क क्षेत्र में पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देने में कठिनाई उत्पन्न होती है। इस विशेषांक में समग्र सामग्री रहने के कारण वह सारी कठिनाई दूर हो जाती है।

पत्राचार विद्यालय के प्रज्ञा परिजन वर्ग के लिए इस संयुक्तांक को ही पाठ्य-क्रम बना दिया गया है। प्रज्ञा संस्थानों के ट्रष्टियों, संचालकों, वरिष्ठ प्रज्ञा-पुत्रों, परिव्राजकों, शाखा संचालकों के लिए इसका अध्ययन अध्यवसाय एक प्रकार से अनिवार्य ही माना जाना चाहिए। उसे वे सभी पढ़ें और संपर्क क्षेत्र में इसे अधिकाधिक लोगों को पढ़ायें। समझा जाना चाहिए इस प्रयोजन के लिए जो पृथक्-पृथक वरिष्ठ पाठ्य-क्रम भेजे जाने वाले थे उनकी पूर्ति इस अंक को पढ़ने से हो गई।

अब परीक्षा की- उत्तर कापियों की जाँच-पड़ताल की-जो भूले हैं उनके समाधान का और उत्तीर्णों को मान्यता प्राप्त प्रज्ञा-पुत्र का प्रमाण-पत्र देना शेष रह जाता है। इसके लिए वह किया गया है कि उपरोक्त विशेषांक के अन्तिम दो पृष्ठों में प्रश्न-पत्र छाप दिया गया है। वे सभी प्रश्न पाठकों को निजी धारणा के सम्बन्ध में होने से खुले रूप में छप जाने या बन्द लिफाफे में भेजने से कोई अंतर नहीं पड़ता। चूँकि उत्तर निजी मान्यताओं से मनःस्थिति एवं परिस्थिति से सम्बन्धित है। इसलिए उनके प्रकट हो जाने पर भी किसी प्रकार का हर्ज होने वाला नहीं है।

उत्तर आने पर कापियों की जाँच-पड़ताल की जायगी। इसके अवलोकन पर जो परामर्श देना उपयुक्त लगेगा वह भेजा जायेगा साथ ही उत्तीर्ण होने पर प्रमाण-पत्र भी पहुँचा दिया जायेगा। प्रज्ञापुत्र पंजीकृत तो पहले ही हो चुके हैं अब उनको इस आधार पर जांच पड़ताल करने पर मान्यता भी दे दी जायगी। ‘मान्यता’ पंजीकरण के अधूरेपन के परिपुष्टि होने पर है।

पत्राचार विद्यालय से दूसरा वर्ग आत्मिक प्रगति की विशिष्ट शिक्षा का रखा गया था। उस अभिरुचि के लोगों के लिए प्रज्ञापुत्र वर्ग से भिन्न प्रकार का पाठ्यक्रम रखा गया था। अब उसे भी बारह बार बारह लिफाफों में भेजने की अपेक्षा यह उचित समझा गया है कि अखंड-ज्योति में पाठ्यक्रम की तरह छाप दिया जाय। और उसे आवेदन भेजने ने भेजने वाले सभी के लिए सुलभ कर दिया जायेगा। पाठ्य-सामग्री अभिनव, अत्यन्त महत्वपूर्ण सारगर्भित एवं उपलब्धियों से भरी-पूरी है। बहुत सिकोड़ने पर भी उसका विस्तार काफी हो जाता है। इसलिए उसे तीन अंकों में छापने का निश्चय किया गया। दिसम्बर, जनवरी, फरवरी की अखण्ड-ज्योति के तीनों अंक अब इसी पाठ्य-सामग्री से भरे-पूरे छपेंगे। दिसम्बर अंक से व्यक्ति के अन्तराल में छिपी हुई रहस्यमय क्षमताओं की जानकारी रहेगी। जनवरी में ब्रह्माण्डगत उन अदृश्य प्रवाहों का परिचय होगा जिनसे तनिक-सा संपर्क सध जाने पर मनुष्य कुछ से कुछ हो सकता है। फरवरी अंक में उन साधना उपचारों का दिग्दर्शन रहेगा जिसके सहारे आत्मा को परमात्म सत्ता के साथ घनिष्ठता जोड़ने ओर महत्वपूर्ण आदान-प्रदान करने में सफलता मिल सकती है। तीनों अंकों को मिलाकर अध्यात्म शिक्षा का एक समूचा पाठ्यक्रम बन जाता है। यदि इनमें भी समूचा प्रतिपादन आ सका तो मार्च अंक की बात भी सोची जा सकती है। कहना न होगा कि इस प्रस्तुतीकरण की विशिष्टता और उस आधार पर परिजनों को कुछ विशेष लाभ ले सकने की सम्भावना का ध्यान रखते हुए ही पत्राचार विद्यालय का नया झंझट सिर पर उठाया गया था। अब उस रहस्यमयी जानकारी को अखण्ड-ज्योति के अंकों में छाप कर सर्वसाधारण के लिए सुलभ बनाया जा रहा है।


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