अन्तरात्मा परमात्मा का प्रतीक प्रतिनिधि

November 1981

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मनुष्य में जहाँ शारीरिक-मानसिक स्तर की अनेकों विशेषताऐं हैं, वहीं उसकी वरिष्ठता इस आधार पर भी है कि उसमें ‘अन्तरात्मा’ कहा जाने वाला एक विशेष तत्व पाया जाता है। उसमें उत्कृष्टता का समर्थन और निकृष्टता का विरोध करने की ऐसी क्षमता है, जो अन्य किसी प्राणी में नहीं पायी जाती। जीव-जन्तुओं में उनकी इच्छा या आवश्यकता की पूर्ति के निमित्त ही कई प्रकार की प्रेरणाएं उठती हैं। इसमें उन्हें नीति-अनीति से कोई मतलब नहीं रहता। उदारता नाम की वस्तु मात्र मादाओं में उस सीमा या समय तक पाई जाती है, जब तक कि उनकी सन्तानें असमर्थ रहतीं या स्वावलम्बी नहीं बनतीं। इस अवधि के समाप्त होने पर उनका ममत्व समाप्त हो जाता है। यौन कार्य के समय भी नर-मादा में कुछ आकर्षण या सहयोग जैसा सौजन्य उभरता है। आवश्यकता पूर्ण होने पर वह भी आमतौर से विस्मृत होते देखा गया है। जोड़ा मिल कर देर तक साथ-साथ रहने वाले तो कुछेक पक्षी ही पाये गये हैं।

मनुष्यों में यह स्नेह-सौजन्य, औचित्य, न्याय एवं उदार सद्भावना से भरे गुण पाये जाते हैं। यह किसी स्वार्थ या लाभ से प्रेरित होकर नहीं वरन् अन्तराल की गहरी परतों से उद्भूत होता और इतना प्रखर रहता है कि आदर्शवादिता के निमित्त कष्ट सहने या घाटा उठाने के लिए भी तत्परता बरती जा सके। यही अन्तरात्मा है, जो सत्कर्म करने पर भीतर ही भीतर प्रसन्न होती, गर्व-सन्तोष प्रकट करती हुई देखी जाती है। अनीति अपनाते समय अंतर्द्वंद्व विक्षुब्ध होता है और आत्म-प्रताड़ना की पीड़ा अपने आप ही सहमी पड़ती है। भर्त्सना, प्रताड़ना का भय न हो तो भी दुष्कर्म करते समय भीतर ही भीतर जी काटता-कचोटता है। यही अन्तरात्मा है। उसका प्रोत्साहन यह रहता है कि आदर्शवादिता अपनाई जाय और दूसरों के सामने अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किये जांयें।

तर्क या अर्थ विज्ञान की दृष्टि से अन्तरात्मा की पुकारें, घाटा देने वाली और झंझट में फँसाने वाली होती हैं। इतने पर भी कुछ ऐसी उमंगें उठती हैं, जिनके कारण मनुष्य उस कष्ट को तप, सेवा, पुण्य परमार्थ कह कर उत्साहपूर्वक सहन-वहन कर लेता है। जबकि पशु प्रवृत्ति में ऐसी उदारता अपनाने की कोई गुंजाइश नहीं है। यदि है भी तो इतनी उथली और क्षणिक जिसके कारण वे कोई इस प्रकार का महत्वपूर्ण कदम नहीं उठा सकते। दूसरी ओर मनुष्य है जो इसी अन्तःप्रेरणा से अनुप्राणित होकर त्याग-बलिदान भरे उच्चस्तरीय उदाहरण प्रस्तुत करता और न्याय रक्षा के लिए निजी स्वार्थ न होने पर भी कष्ट झेलने का साहस करता देखा गया है। अन्तरात्मा ही मनुष्य में विराजमान परमात्मा का प्रतीक प्रतिनिधि माना गया है।

प्रसिद्ध दार्शनिक ‘इमेनुअल कान्ट’ महोदय ने नैतिकता का आधार अन्तः अनुभूति को माना है, जिसे उन्होंने ‘कैटेगोरिकल इम्पेरेटिव’ अर्थात् ‘अनिवार्य आज्ञा’ नाम की संज्ञा दी है। यह व्यक्ति को उसकी अन्तरात्मा से प्राप्त होती है। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘दी क्रिटिक ऑफ प्योर रीजन’ में लिखा है कि मनुष्य की बुद्धि एवं तार्किक विचार सांसारिक कार्यों को समझने के साधन हैं। आत्मा, परमात्मा या अन्य दार्शनिक समस्याओं का समाधान बुद्धि की सीमाओं से परे है।

कान्ट महोदय के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति में सदाचरण के लिए तार्किक विचारों से नहीं, वरन् उसके अन्तस्तल से प्रेरणा मिलती है। त्याग, बलिदान के लिए भाव-सम्वेदनाएँ अन्दर से उछलती हैं। मानव-स्वभाव दो प्रकार के तत्वों से विनिर्मित है- एक स्वार्थ प्रधान रागात्मक- दूसरा विवेक परक जो व्यक्ति को परमार्थी बनाता है। स्वार्थ प्रधान रागात्मक वृत्ति तो मनुष्य को विषय-भोगों की ओर ले जाती है और विवेकात्मक तत्व न्याय प्रियता एवं आत्म-विकास की ओर अग्रसर करता है। वस्तुतः अन्तरात्मा की ‘अनिवार्य-आज्ञा’ अथवा ‘विवेक’ ही मनुष्य की नैतिक उन्नति करता है।

विवेकशीलता के आधार पर ही नैतिक नियमों का निर्धारण कर सकना सम्भव होता है। नैतिक नियमों के पालन से, आन्तरिक-सन्तोष की उपलब्धि होती है। मनुष्य को आध्यात्मिक उपलब्धियाँ विवेक या अंतरात्मा की आवाज के अनुकूल आचरण करने से मिलती है। जब व्यक्ति किसी बाहरी सत्ता के दबाव या प्रलोभन से कोई कार्य करता है तो वह अपने नैतिक स्तर से गिर जाता है। यहाँ तक कि यदि अन्तरात्मा की पुकार किसी राजनैतिक सत्ता या नियम के विरुद्ध उठती है तो उन नियमों का प्रतिकार करना ही नैतिकता है, जैसे कि गाँधी जी आदि सत्याग्रहियों ने किया था।

कान्ट महोदय ने उच्च उद्देश्य या हेतु से किये गये कार्यों को नैतिक बताया है। कार्यों के परिणाम से नैतिकता का मापदण्ड नहीं किया जाना चाहिए यदि कार्य उच्च उद्देश्यों से प्रेरित है तो नैतिक और निम्न हेतु से प्रेरित कार्य निम्न है। भौतिक सुखवादी लोग किसी कार्य के परिणाम को देखकर नैतिकता का मापदण्ड करते हैं वस्तुतः नैतिकता का सम्बन्ध कार्यों के हेतु से है।

किसी भी कार्य के भीतरी एवं बाहरी दो परिणाम होते हैं। आन्तरिक परिणाम चित्त का परिष्कार और बाह्य परिणाम घटना के रूप में आता है। आन्तरिक परिणाम मनुष्य के नियन्त्रण में है, परन्तु बाह्य उसके वश में नहीं, वह प्रकृति की परिस्थितियों पर निर्भर है। इसीलिए कान्ट महोदय ने नैतिकता का आधार कार्यों का बाहरी परिणाम नहीं प्रत्युत आन्तरिक परिणाम माना है। उनका कहना है कि प्रत्येक शुभ एवं उच्च हेतु शुभ आन्तरिक परिणाम ही देता है, जबकि उसका बाहरी परिणाम अच्छा या बुरा भी हो सकता है। इसी प्रकार प्रत्येक अशुभ या निम्न हेतु का आन्तरिक परिणाम अशुभ ही होता है। उसका बाहरी परिणाम अच्छा या अशुभ दोनों हो सकते हैं।

अस्तु! कास्ट महोदय के अनुसार व्यक्ति के नैतिक उत्थान के लिए उसके कार्यों के हेतु पवित्र व शुद्ध हों। उच्च उद्देश्यों के निमित्त किये गये कार्य ही अन्ततः मनुष्य को महामानव (सुपरमैन) बनने की ओर अग्रसर करते हैं।

मार्टिनो के अनुसार- “जीवन को उत्कृष्ट बनाने, श्रेष्ठ व्यक्तित्व सम्पन्न बनाने के लिए सहज प्रेम या निःस्वार्थ प्रेम भाव एक प्रधान कारक है। सहज प्रेम दूसरे व्यक्तियों के प्रति आत्म भावना से उभरता है। आत्मीयता के भावों से अभिप्रेरित निःस्वार्थ प्रेम के विविध रूप हैं। मातृभाव, समाज भाव एवं करुणा उदारता इस सहज प्रेम से ही उद्भूत सद्गुण हैं, जो सामान्य व्यक्ति को महामानव बनने में अमूल्य योगदान प्रस्तुत करते हैं।”

सहज आत्मीयता के भावों से मनुष्य में ऐसी सत्प्रवृत्तियाँ उभरती हैं जो अपने सुख की परवाह न करके दूसरों के हितों को ध्यान में रखकर आचरण करने की प्रेरणा देती रहती हैं। सहज निःस्वार्थ प्रेम से मानव में उन स्थायी भावों का प्रादुर्भाव हो जाता है जो उच्च आदर्शों एवं सिद्धान्तों पर चलने के लिए प्रेरणा और उत्साह देते रहते हैं। ये तीन प्रकार के स्थायी भाव ज्ञान प्रधान, भाव प्रधान और क्रिया प्रधान हैं, जो मनुष्य को सत्यान्वेषण, सौन्दर्यानुभूति और शिवत्व-परोपकार में प्रवृत्त करते हैं। विद्या, कला और धर्म के प्रति अभिरुचि एवं प्रेम भी मानव के चारित्रिक विकास के लिए आवश्यक है। मनुष्य में ये अभिरुचियाँ सहज या निःस्वार्थ प्रेम-भावना से उद्भूत होती हैं और मनुष्य के भीतर देवत्व के उदय में बहुत कुछ सहयोग करती हैं।

कान्ट ने मानव को महामानव बनाने में नैतिक नियमों का पालन अनिवार्य माना है। उनके अनुसार नैतिक नियमों में तीन प्रकार की विशेषताएँ हैं- (1) स्वतन्त्र इच्छा शक्ति जो अन्तरात्मा की आवाज पर निर्भर है (2) सभी के लिए समान रूप से उपयोगी सबके द्वारा आचरण में लाने योग्य व्यापक दशन एवं (3) मानव-मात्र के हित का लक्ष्य।

कान्ट ने मानव-जीवन का भौतिक आदर्श कठोर तप-त्यागमय बताया है। वासनाओं, तृष्णाओं एवं आकांक्षाओं के अभाव को ही उन्होंने विवेक युक्त कहा है। इच्छाओं से राग-द्वेष का होना स्वाभाविक है, जो विवेक के प्रतिकूल है। उनके अनुसार विवेक वैयक्तिक नहीं वरन् व्यापक वस्तु है। सभी के विवेक द्वारा लिये गये नैतिक निर्णय समान होते हैं। कान्ट महोदय ने कहा है कि मनुष्य की अन्तरात्मा भूल कभी नहीं करती, नैतिक भूल का कारण अन्तः की आवाज की अवहेलना होती है। उन्होंने भूल करने वाली अंतरात्मा को मात्र कल्पना भर कहा है।

कान्ट के कथनानुसार नैतिकता के औचित्य का निर्णय करने का कार्य अंतःअनुभूति-अन्तःप्रेरणा ही करती है। यह अन्तर की ध्वनि एक व्यापक वस्तु-ईश्वर की आवाज है, जो देश-काल से परे है। किसी संकट की स्थिति में भिन्न-भिन्न देशों के लोगों के नैतिक-निर्णयों में समानता होती है। नैतिकता के आधार पर ही मानव समाज की एकता सार्थक एवं शक्य है।

व्यक्ति की अन्तरात्मा सदैव यही प्रेरणा देती है कि वह मात्र अपने हित के लिए नहीं वरन् मानव मात्र के कल्याण के लिए कार्य करे। उसके अनुसार वही आचरण नैतिक है, जो सब लोगों के लिए सब समय में उचित हो ईसा, सुकरात, बुद्ध, गान्धी, विवेकानंद एवं अन्य भारतीय ऋषियों ने इसी को सर्वोत्तम नैतिक नियम बताया सभी की अंतःअनुभूति या अन्तरात्मा की आवाज व्यापक की ओर ले जाती है। महानता का सच्चा पथ भी यही है। ‘महाजनो येन गतः स पन्थः’ इसी के लिए प्रयुक्त किया गया है।

मनुष्य का विवेक जब जागृत होता है, तब वह अपना एक निश्चित नैतिक ध्येय नियत करता है। उसके विचारों में परिपक्वता आने लगती है। विचारों में प्रौढ़ता आने से वह उचित-अनुचित, नीति-अनीति, सत्-असत्, धर्म-अधर्म आदि का निर्णय कर सकने में सक्षम हो जाता है। कुछ नीतिविदों का कहना है कि मनुष्य की तार्किक बुद्धि की प्रवीणता के अनुपात में ही उसका विवेक जागृत होता है जो अपने कर्त्तव्य-अकर्तव्य का निर्णय कर लक्ष्य को प्राप्त करने की चेष्टा करता है। जिस अनुपात में व्यक्ति का विवेक जागृत होता जाता है, उसी अनुपात में उसका चरित्र विकसित होता जाता है। वह अपनी विवेक शक्ति से प्रारम्भ में भले ही साँसारिक वस्तुओं, विषय-सुखों को उपलब्ध की चेष्टा करे, परन्तु शीघ्र ही उनकी निस्सारता समझकर सबसे महत्वपूर्ण वस्तु- आत्म-सन्तोष, आध्यात्मिक पूर्णता की ओर उन्मुख हो जाता है। वह फिर समस्त समस्याओं का समाधान अपने अन्दर से ढूंढ़ निकालता है और आन्तरिक पूर्णता उपलब्ध करने का प्रयास करता है।

नीति-शास्त्रियों ने तर्क-शक्ति व विवेक-शक्ति के द्वारा लक्ष्य निर्धारण कर उस पथ पर चल पड़ने को ‘लक्ष्यवाद’ के नाम से सम्बोधित किया है। यह लक्ष्यवाद-मनुष्य का विवेक उसे ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की ओर प्रेरित करता है। वह वैयक्तिक सुखों से सुखी नहीं होता वरन् समस्त मानव जाति को सुखी देखना चाहता है और उसके लिए प्रयास करता है। विवेकवान मानव के जीवन का लक्ष्य मात्र वैयक्तिक पूर्णतया नहीं, वरन् सभी की पूर्णता प्राप्त करने का रहता है। वे किसी व्यक्ति, विशेष की पूर्णता को सच्ची पूर्णता नहीं मानते। ऐसे ही व्यक्ति को ‘पूर्ण मानव’ की संज्ञा दी जा सकती है और उस विवेकपूर्ण मार्ग का अवलम्बन ही मनुष्य को परिपूर्ण मानव बना सकता है।


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