यह समूचा ब्रह्माण्ड फैल और फूल रहा है।

November 1981

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प्राणि चेतना की भाँति ही पदार्थ सत्ता भी प्रगति के लक्ष्य को समान रूप से अपना कर चल रही है। जड़ हो या चेतन, पदार्थ हो या प्राणी- प्रगति पथ पर अग्रसर हुए बिना किसी को भी चैन नहीं। वर्तमान में मिलकर रहने के लिए कोई सहमत नहीं। आदिम काल से लेकर अब तक की लम्बी मंजिल पूरी करते समय उसे पराक्रम का अभ्यास और उपलब्धियों का रसास्वादन करते रहने का जो अनुभव मिला है वह असाधारण रूप से मधुर एवं आकर्षक है। उसे छोड़ने के लिए दोनों में से कोई भी किसी भी मूल्य पर सहमत नहीं हो सकता। समूचा प्राणि जगत और सुव्यवस्थित पदार्थ वैभव समान रूप से बस एक ही निश्चय किये हुए है- एक ही मार्ग अपनाये हुए है कि उन्हें अग्रगमन के उपहार एवं आनन्द का परित्याग नहीं ही करना है।

यहाँ पदार्थ की प्रकृति पर दृष्टिपात करना है और यह देखना है कि क्या वह भी सचेतन की तरह प्रगति के लिए समान रूप से आकुल-व्याकुल है? और क्या उसका पराक्रम भी आगे बढ़ने अधिक अच्छी स्थिति प्राप्त करने, अधिक सुविस्तृत बनने में संलग्न है। जड़ पदार्थ में इच्छा का अभाव और हलचलों का बाहुल्य माना जाता है, पर गम्भीरता से विचार करने पर प्रतीत होता है कि उसकी हलचल भी उद्देश्यपूर्ण है। अनगढ़ निष्प्रयोजन नहीं।

पदार्थ चल रहा है- यह स्पष्ट है, पर क्यों चल रहा है? किस दशा में चल रहा है कि उसके सामने भी प्रगति का -विस्तार का -पराक्रम के प्रकटीकरण का और अपूर्णता को पार करते हुए चरम पूर्णता तक पहुँचने का लक्ष्य ही प्रेरणा स्रोत बनकर रह रहा है।

डाका अ ब्रह्माण्रम्भ कब और किस क्रम से हुआ- इसके सम्बन्ध में अनेक मत हैं, पर जिस प्रतिपादन पर प्रायः आज सहमति हो चली है वह यह है कि आरम्भ में थोड़ा-सा सघन द्रव्यमान ‘(मास)’ था। उसके अन्तराल में में किसी अविज्ञात कारण से विस्फोट हुआ और उसकी धज्जियाँ उड़ गईं। असंख्य टुकड़े हुए- वे जिधर तिधर छितर गये। इस छितराव ने एक नई दिशा अपनाई। टुकड़ों में से अधिकाँश अपनी धुरी पर लट्टू की तरह घूमने लगे और साथ ही घुड़दौड़ की तरह आगे की ओर भी भागने लगे। चूँकि यह समस्त सृष्टि रचना गोलाकार है फलतः गति भी गोलाकार ही अग्रगामी रह सकती है। अनवरत घुड़दौड़ को अन्ततः गोलाकार बनना पड़ा और किसी लक्ष्य तक पहुँच कर प्रयास को इतिश्री कर देने की अपेक्षा अनन्तकाल तक अनवरत घुड़दौड़ जारी रखने का एक सुनिश्चित मार्ग मिल गया।

द्रव्यमान के छितरे हुए टुकड़ों ने न केवल बाह्यजगत में- ब्रह्माण्ड के प्राँगण में अपनी घुड़दौड़ को जारी रखा वरन् आत्म सत्ता की निजी परिधि में भी इसी नीति को अपनाया। वे अपनी-अपनी धुरियों पर भी घूमने लगे। इस प्रकार वैयक्तिक और सामूहिक दोनों ही क्षेत्रों में उनने अपने प्रयास-पुरुषार्थ को अग्रगमन के लक्ष्य में नियोजित किये रहने का मार्ग चुना और अनुशासन अपनाया।

विज्ञानवेत्ताओं के अनुसार सृष्टि का आरम्भिक द्रव्यमान एक सघन बादल के रूप में था। उस स्थिति में उसका घनत्व 10-12 किलोग्राम प्रति क्यूविक मीटर आँका गया है। इस सघन बादल को खगोलवेत्ता ‘प्रोटो गैलेक्सी’ के नाम से पुकारते हैं। आरम्भ में वह बादल ऐसे ही अनगढ़ था। विस्फोट होने के बाद उस केन्द्र में तथा टुकड़ों में एक नई क्षमता उद्भूत हुई। उसे गुरुत्वाकर्षण के नाम से जाना जाता है। विस्फोट के बाद टुकड़े निहारिका बन गये और छोटे ग्रह तारकों के रूप में अपने छोटे-छोटे कलेवरों को सुगठित बना सकने में सफल हो गये। निहारिकाएं अभी भी उतनी सुव्यवस्थित नहीं हो सकी हैं।

ब्रह्माण्ड फूल रहा है। उसके अन्तराल में अवस्थित निहारिकाएं तथा तारा मण्डल क्रमशः एक-दूसरे से दूर हटते जा रहे हैं। इस हटने का तात्पर्य पीछे की और लौटना नहीं, आगे की ओर बढ़ना है।

तारों की दूरी का अनुमान इन दिनों इस आधार पर लगाया जाता है कि उनका प्रकाश धरती तक पहुँचने में कितना समय लगता है। प्रकाश की गति एक सेकेण्ड में एक लाख छियासी हजार मील है। इस गति से चलते रहने पर एक वर्ष में जितनी दूरी पार होती है उसे एक प्रकाश वर्ष कहते हैं। पृथ्वी से कौन तारा कितनी दूर पर है इसकी गणना इसी आधार पर की जाती है कि उसका प्रकाश धरती तक आने में कितना समय लगा। समय और दूरी का सिद्धान्त इसी आधार पर विनिर्मित हुआ है। उदाहरण के लिए सूर्य के प्रकाश को धरती तक आने में प्रायः सवा आठ मिनट लगते हैं। इस आधार पर उसकी मध्यवर्ती दूरी का निर्धारण 9 करोड़ 8 लाख मील की दूरी का हुआ है। इसी प्रकार अन्यान्य ग्रह-नक्षत्रों की दूरी मापी जाती है।

ग्रह-तारकों का प्रकाश वर्तमान में जितना नापा गया है उतना भविष्य में न रहेगा। अन्तर बढ़ जायेगा। समय अधिक लगने का अर्थ है दूरी का बढ़ना। खगोल निरीक्षकों के अनुसार यह मध्यवर्ती दूरियाँ हजारों मील प्रति सेकेंड के हिसाब से बढ़ रही हैं। इतना ही नहीं एक और भी विचित्र बात यह है कि न केवल दूरी बदलती है वरन् उस घुड़दौड़ की तीव्रता भी बढ़ जाती है और उसकी चाल में क्रमशः अभिवृद्धि सामान्य नहीं असामान्य है, अर्थात् उसकी तीव्रता में जो अनुपातिक वृद्धि हो रही है वह है एक सेकेण्ड में पचास किलोमीटर। इसका अर्थ यह हुआ कि मध्यवर्ती दूरी का निरन्तर विस्तार तो हो ही रहा है, उस विस्तार की गति में भी आश्चर्यजनक तीव्रता आती चली जाती है। यह क्रम इसी प्रकार चलता रहने पर यह निश्चित है कि न केवल पृथ्वी और तारकों की मध्यवर्ती दूरी वरन् उन सब का फासला भी बढ़ता-फैलता ही चला जायेगा। यह बात किसी एक-दो पिण्डों के बारे में नहीं वरन् सभी प्रस्तुत ग्रह-नक्षत्रों पर लागू होती है। वे सभी एक-दूसरे के निकट आने की नीति नहीं अपना रहे वरन् धीर-धीरे अधिक दूर हटने की नीति अपनाये हुए हैं। कुल मिला कर इसका तात्पर्य-निष्कर्ष निकलता है-समूचे ब्रह्माण्ड में फुलाव-विस्तार की प्रक्रिया।

समूचा ब्रह्माण्ड प्रति सेकेंड साढ़े पाँच सौ किलोमीटर की गति से फूलता-फैलता चला जा रहा है। भूत कालीन स्थिति की अपेक्षा वर्तमान काल में ग्रह-तारकों की मध्यवर्ती दूरी बढ़ी है और भविष्य में उसके और भी बढ़ते जाने की प्रक्रिया को देखते हुए शोधकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि ब्रह्माण्ड का अभी विकास-बचपन चल रहा है। उसे परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव करने, वृद्ध होने तथा पुनर्जन्म का चोला बदलने में अभी अकल्पनीय देरी है। यह समूचा प्रतिपादन इन दिनों ‘हथल सिद्धांत’ के नाम से विख्यात है।

अपना सूर्य जिस निहारिका का परिभ्रमण कर रहा है उसका नाम ‘मन्दाकिनी’ और व्यास प्रायः चार लाख प्रकाश वर्ष है। सूर्य इन दिनों दो लाख किलोमीटर प्रति घंटे की चाल से चल रहा है। अपनी निहारिका का एक पूरा चक्कर लगाने में उसे 24 करोड़ प्रकाश वर्ष लगते हैं। अनुमान है कि अपने सूर्य को अपनी निहारिका का दस परिक्रमा लगाते-लगाते बुढ़ापा आ जायेगा और एक-दो परिक्रमा और कर लेने के उपरान्त उसका मरण हो जायेगा। अपनी निहारिका अब तक दस हजार तारा गुच्छकों के जन्म दे चुकी। प्रत्येक तारा गुच्छक में कम से-कम एक सौ सूर्य हैं। इस प्रकार इसके पुत्र सूर्यों की संख्या दस लाख को पार कर गई। जिस प्रकार अपने सूर्य के दो ग्रह और 32 उपग्रह हैं। उसी प्रकार इन दस लाख सूर्यों के भी बाल-बच्चे होंगे। यह सारा परिवार बेटे- तारा गुच्छकों- पोते सूर्यों- परपोते ग्रह पिण्ड और उनके भी पुत्र गण उपग्रहों समेत अरबों की संख्या में सदस्यों का बन चुका है। इतने पर भी अपनी निहारिका की न तो जवानी समाप्त हुई है और न उसके प्रजनन कृत्य में कोई कमी आई है। उसके अपने निजी पुत्र तारा गुच्छक अभी और जन्मेंगे। वे उसके पेट में कुलबुला रहे हैं और भ्रूण की तरफ पक रहे हैं। समयानुसार प्रसव होते रहेंगे और यह परिवार अभी अकल्पनीय काल तक इसी प्रकार बढ़ता रहेगा।

ऊपर की पंक्तियों में मात्र अपनी एक निहारिका की चर्चा हुई है। उसकी सदस्य संख्या और विस्तार परिधि की समग्र कल्पना कर सकना ही मानवी मस्तिष्क जैसे तुच्छ घटकों के लिए कठिन है, फिर ऐसी-ऐसी जो अन्य सहस्रों निहारिकाएं और भी हैं। उन सबके अपने-अपने परिवार और विस्तार मिला लेने पर ब्रह्माण्ड विस्तार की परिकल्पना और भी अधिक कठिन हो जाती है। यहाँ इतना भर बताया जा रहा है कि सृष्टि के आदि का मूल द्रव्य किस प्रकार प्रगति की आकाँक्षा से प्रेरित होकर अग्रगमन के लिए निकल पड़ा और उसका गतिमान किस प्रकार निरन्तर बढ़ता ही चला आया है।

ब्रह्माण्ड भी कभी बूढ़ा होगा और मरेगा भी। पर साथ ही परम्परा को देखते हुए यह भी निश्चय है कि वह महाप्रलय-महाविश्राम की अवधि लम्बी न होगी। फैला हुआ ब्रह्माण्ड जब मरेगा तो अपने विस्तार को समेट कर आरम्भ काल की तरह इकट्ठा हो जायेगा और नींद पूरी होते ही फिर विस्फोट-विस्तार की विगत एवं अभ्यस्त परम्परा को उसी प्रकार फिर चालू कर देगा, जिस प्रकार मनुष्य नींद लेने के बाद नये दिन से फिर पुराना ढर्रा अपनाता है अथवा नया जन्म लेकर पूर्व जन्म की पुनरावृत्ति करता है।


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