चान्द्रायण तपश्चर्या के साधना सत्र

November 1981

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सर्वविदित है कि अध्यात्म साधनाओं के सफल होने में विधि-विधान की कमी से देवता को अप्रसन्नता नहीं वरन् एकमात्र बाधा साधक के संचित कषाय-कल्मषों की भरमार है। इस जन्म के तथा पूर्व जन्म के संचित पाप कर्म अपना दण्ड प्रकट करना चाहते हैं। साधना से उस कर्मफल व्यवस्था का परिमार्जन हो सकता है। इसलिए संचित दुष्कर्म ही चित्त की चंचलता, अश्रद्धा, अन्यमनस्कता व्यतिरेक, आदि अनेक तरह की अड़चनें उत्पन्न करके ऐसी स्थिति बना देते हैं जिससे साधनायें निष्फल होती रहें।

आत्मिक प्रगति की इस सबसे भारी एवं प्रमुख चट्टान को हटाने को हटाने के लिए पापों का प्रायश्चित्त करने की तपश्चर्या करनी पड़ती है। इसी ऊर्जा से कुसंस्कार जलते हैं, भ्रम जंजाल भागते हैं, बन्धन कटते हैं। प्रगति के अवरुद्ध कपाट इसी आधार पर खुलते हैं। देवपूजा की मनुहार बाद की बात है। सर्वप्रथम आत्म-शोधन के लिए तप साधना का साहस सँजोना पड़ता है। इसके फलस्वरूप ही भौतिक सिद्धियाँ, आत्मिक ऋद्धियाँ एवं दैवी विभूतियों से लाभान्वित होने की आशा की जानी चाहिए।

चान्द्रायण को मनोरोग चिकित्सा का अध्यात्म विज्ञान के अनुसार कारगर उपचार माना गया है। उसमें प्रायश्चित्त के लिये तितीक्षा, कष्ट सहन का विधान तो है ही, इसके अतिरिक्त मनःक्षेत्र के परिवर्तन की भूमिका निभाने वाली ध्यान धारणाओं का, बन्ध मुद्राओं का भी साथ-साथ अभ्यास कराया जाता है। आत्मिक परिष्कार के लिए सवा लक्ष गायत्री अनुष्ठान, स्वाध्याय, सत्संग, चिंतन मनन जैसे कई व्रत नियम हैं। भविष्य निर्धारण के लिये परामर्श- पिछली भूलों में खोदी गई खाई को पाटने वाली क्षति पूर्ति- का भी इसी साधना क्रम में अविच्छिन्न समावेश है। इन अभ्यासों को योग साधना की संज्ञा दी गई है और मन क्षेत्र के परिष्कार, परिवर्तन, उन्नयन का लाभ दे सकने वाली व्यवस्था की गई है।

मनोरोग चिकित्सा के प्रचलित उपायों में से सभी उथले हैं। उनकी पहुँच अन्तराल की गहन परतों तक, आस्था के क्षेत्र तक प्रवेश नहीं कर पाती। फलतः वे वैसा प्रभाव दिखा नहीं पाते जैसा कि अभीष्ट है। इस कमी को चान्द्रायण की अध्यात्म चिकित्सा ही पूरी करती है और उसका सीधा प्रभाव अन्तःकरण के आस्था क्षेत्र तक पहुँचने के कारण मन, बुद्धि और चित्त के स्तर में अभीष्ट परिवर्तन सम्भव हो जाता है। यह असामान्य उपलब्धि है, जिसे किये गए श्रम और उठाये गए कष्ट की तुलना में अत्यधिक महत्वपूर्ण ही कहा जा सकता है।

यह शारीरिक और मानसिक परिशोधन की बात हुई। इसे समग्र आध्यात्मिक प्रगति का आधा भाग कहना चाहिए। शेष आधा वह रह जाता है जिसमें ओजस्वी, मनस्वी, तेजस्वी बनने के लिए शारीरिक, मानसिक आत्मिक स्तर की प्रखरता का अभिनव अर्जन, उपार्जन करना पढ़ता है। रोग निवारण की चिकित्सा ही पर्याप्त नहीं, बल वृद्धि के लिए ऐसे उपाय अतिरिक्त रूप से अपनाने पड़ते हैं जिनसे दुर्बलता हटाने और समर्थता बढ़ाने का उद्देश्य पूरा हो सके। चान्द्रायण साधना में आधा पक्ष परिशोधन का, आधा परिवर्धन का है, अतः उससे अस्पताल का ही नहीं अखाड़े का भी लाभ मिलता है।

संचित दुष्कर्म हो अनेकों शारीरिक रोग, मानसिक उद्वेग, पारिवारिक विग्रह, आर्थिक संकट, सामाजिक विद्रोह एवं परिस्थितियों की प्रतिकूलता उत्पन्न करते हैं। जब तक यह कंटक निकलते नहीं तब तक चुभन से पीछा नहीं छूटता। रक्त-शोधन बिना फोड़े, फुन्सी, दाद, चकत्ते कैसे मिटें? नाली की सड़न हटाये बिना मच्छरों, कृमि-कीटकों, विषाणुओं से छुटकारा कैसे मिले? स्नान, दर्शन या छुटपुट मनुहार उपचार से पाप नहीं छूटते, उनका एकमात्र उपाय प्रायश्चित्त है। उसी को प्रकारान्तर से तपश्चर्या कहते हैं। सोने की तरह मनुष्य भी तपने पर ही निखरता है। प्रसुप्त आत्मिक शक्तियों को उभारने में तप साधना से बच निकलने का कोई “शॉटकट” नहीं है।

कुसंस्कारों का निराकरण और विभूतियों का उन्नयन जैसे उभयपक्षीय प्रयोजन जिन तप-तपश्चर्याओं से सधते हैं, उनमें सर्वसुलभ, सर्वविदित साधना चान्द्रायण व्रत की है। यह पूर्णिमा से से पूर्णिमा तक एक महीने में पूरी होती है। इसमें आधा भोजन घटा देने का अर्ध उपवास तो अपनाना ही पड़ता है, साथ ही सवा लक्ष गायत्री पुरश्चरण भी करना होता है। इसके अतिरिक्त, साथ-साथ ऐसी अन्यान्य साधनायें भी चलती रहती हैं जो साधक की स्थिति को देखते हुए सामयिक संकटों के निवारण एवं भविष्य के अनुकूलन को ध्यान में रखकर निर्धारित की जाती हैं।

प्रज्ञा परिजनों को साधनारत बनाने और अपनी प्रखरता उभारने के लिए इन दिनों कुछ विशेष प्रेरणायें दी जा रही हैं। शांतिकुंज को गायत्री तीर्थ के रूप में इसीलिए परिवर्तित किया गया है कि भविष्य में यहाँ साधना का कार्यक्रम एवं वातावरण ही बना रहे। आत्मशक्ति का उद्भव अपने युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है। इसी के सहारे व्यक्ति तथा विश्व के भाग्य निर्माण का उपचार बन पड़ेगा।

शान्तिकुंज, गायत्री तीर्थ में अब हर भारतीय महीने में, चान्द्रायण व्रत का एक महीने वाला साधना क्रम चला करेगा। इसी का छोटा संस्करण कम समय निकल सकने वालों के लिए दस-दस दिन की साधनाओं का बनाया गया है। वह अँग्रेजी महीनों की तारीखों से चला करेगा। हर महीने 1 से 10 तक, 11 से 20 तक, 21 से 30 तक दस दिवसीय लघु चान्द्रायण एवं लघु अनुष्ठान 24 हजार जप के चला करेंगे। एक महीने का, पूर्णिमा से पूर्णिमा तक सवा लक्ष जप वाला पूर्ण चान्द्रायण माना जायेगा। इतने पर भी दोनों में अनुशासन, आधार एवं कार्यक्रम एक जैसे ही चला करेंगे।

इस संदर्भ में एक बात अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं स्मरण रखने योग्य है कि उच्चस्तरीय साधना के लिए वातावरण, आहार एवं संपर्क में उच्चस्तरीय साधना के लिए वातावरण, साधना विधान तथा मार्गदर्शन भी उच्चस्तरीय ही होना चाहिए। यदि घर के कुसंस्कारी वातावरण, आहार एवं संपर्क में उच्चस्तरीय साधना बन पड़ती तो किसी को भी घर की सुविधा छोड़कर उपयुक्त स्थान की तलाश करने की आवश्यकता न पड़ती। राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न अयोध्या छोड़कर हिमालय नहीं ही जाते। विश्वामित्र राज पाट छोड़कर हिमाच्छादित प्रदेश में क्यों जाते? पूजा पाठ तो घर पर भी चलता रह सकता था।

प्रज्ञा परिवार के साधकों के पूर्ण या संक्षिप्त चान्द्रायण तप के लिए गायत्री तीर्थ का वातावरण प्रयत्न पूर्वक तद्नुरूप बनाया गया है। गंगा की गोद, हिमालय की छाया, साधना के रंग में रंगा हुआ आश्रम तथा वातावरण इस योग्य बन गया है कि वहाँ रह कर की गई साधना से सिद्धि स्तर तक पहुँचने की आशा की जा सके। भोजन आधा कर देना ही पर्याप्त नहीं, आहार औषधि तुल्य सुसंस्कारी भी होना चाहिए। अब साधकों को प्रातः प्रायश्चित्त पंचगव्य औषधियों का क्वाथ (चाय), मध्याह्न, गौमूत्र परिशोधित हविष्यान्न की रोटी, दिव्य जड़ी बूटियों की चटनी तथा पकाने परोसने में सुसंस्कारों का समन्वय करने का विशेष रूप से ध्यान रखा जाता है। इसे अध्यात्म उपचार की आहार चिकित्सा कहा जा सकता है।

हिमालय के आध्यात्मिक ध्रुव केन्द्र के द्वारा एवं पू. गुरुदेव, माताजी का सान्निध्य अनुदान। आश्रम में देव प्रतीकों के नित्य दर्शन। नैष्ठिकों का सहचरत्व। स्वाध्याय सत्संग का सुयोग आदि ऐसी विदित अविदित विशेषतायें हैं जिन्हें देखते हुए चान्द्रायण जैसी तपश्चर्या के लिए इससे उत्तम स्थान अन्यत्र खोजा जा सकना कठिन है। उपयुक्त वातावरण में ही उच्चस्तरीय साधनायें सफल होती हैं। इस रहस्य को जितनी जल्दी समझा जा सके उत्तम है।

शांतिकुंज में स्थान कम और इच्छुकों की संख्या अधिक रहने के कारण सदा स्थान मिलने सम्बन्धी खींचतान रहती है। जिन्हें जिस महीनों आना हो, बहुत समय पहले ही स्थान सुरक्षित करा लें। चान्द्रायण सत्र कार्तिक पूर्णिमा 11 नवंबर से प्रारम्भ हो जायेंगे और लगातार चलते रहेंगे


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