विद्या बिहार के दीक्षान्त समारोह में आचार्य रौहित्य कौशल नरेश तथा सुदूर प्रदेशों के सहस्रों जिज्ञासुओं के समक्ष समापन प्रवचन कर रहे थे। उनके श्रोताओं में उपस्थित थीं राजनर्तकी मधूलिका। विद्या विहार के निर्माण व संचालन का सारा दायित्व भी उसी ने ही तो सम्भाला था।
मधूलिका रूपवती ही नहीं- बुद्धिमती और सूक्ष्मदर्शी भी थी। उसका रूप-यौवन समय के क्रमानुसार उस स्तर तक जा पहुँचा था जिसे सर्वोपरि कहा जा सके। उसकी काया को मानों सृष्टा ने स्वयं ही गढ़ा था। कौशल नरेश उसके सौंदर्य पर इतने मुग्ध थे कि राज्यकोष की चाबियाँ उसके इशारों पर खुलती-बन्द होती थीं। यह सब बहिरंग पक्ष था। तथ्य कुछ और था।
मधूलिका एक कुलीन परिवार में जन्मी थी। उन दिनों छाये विलासिता के वातावरण-लोकमानस पर व्याप्त प्रमाद रूपी बादलों को हटाने के लिये बौद्ध-भिक्षुओं ने जो प्रक्रिया चलायी थी, धन के अभाव में कौशल देश में उस आन्दोलन में प्रखरता नहीं आ पा रही थी। मधूलिका ने अपना रूप-यौवन बेचक साधन जुटाने का-कौशल नरेश को अपने पाश में जकड़कर राज्यकोष को विद्या बिहारों के निर्माण में नियोजित करने का लक्ष्य निर्धारित किया था। कौशल नरेश की आज प्रवचन में उपस्थिति भी मधूलिका के सौंदर्य के कारण थी, न कि आध्यात्मिक अभिरुचि के कारण।
मधूलिका को मांसलता बेचकर महाराज को मोहपाश में बाँध लेने वाली मायाविनी एवं राज्यकोष खाली करके अपना घर भरने वाली वेश्या भर समझा जाता था। देश भर में फैले विद्या बिहारों के निर्माण की पृष्ठ भूमि में छिपे उसके अनुदानों को आचार्य विशालाक्ष के अतिरिक्त कोई जानता भी नहीं था- यही वह चाहती भी थी। व्यक्तिगत क्षति सहकर समष्टि के कल्याण का सम्पादन करने में यदि उसे अपना शील भी होमना पड़े तो भी मानवता तो लाभान्वित होगी, अब तक यही उसकी धारणा थी।
आज तो आचार्य जो कर रहे थे, उसने इस सम्वेदनशील वीरांगना को हिला कर रख दिया। वे कह रहे थे “तथ्य ही महत्त्वपूर्ण है। उसी के आधार पर सत्य को जाना व पाया जा सकता है। तथ्य रहित सत्य मात्रा एक भ्रान्ति है। सत्य को पाने के लिये तथ्यों का सहारा लेना ही होगा।” उसके ऊपर यदि यही तथ्य लागू होता है कि “वह एक वैश्या है, मांसलता का विक्रय कर धन लूटने वाली हेय नारी है तो यही सत्य भी होना चाहिये। इतना विचार करते-करते प्रवचन में ही वह सुबक पड़ी और उठकर शयन कक्ष में जाकर लेट गयी। जहाँ प्रवचन के अमृतवचन औरों को शान्ति दे रहे थे वहाँ मधूलिका को वे मर्मबेधी तीरों के समान शूल से लग रहे थे।
विद्या बिहार के संचालक आचार्य विशालाक्ष भी वहीं बैठे थे। उन्होंने मधूलिका को दुःखी मन से अन्दर जाते देखा तो वे सब कुछ समझ गये। प्रवचन के उपरान्त वे मधूलिका के कक्ष में पहुँचे। उनकी आँखों से व्यक्त हो रहे वात्सल्य भाव को देखते ही मधूलिका स्वयं को रोक नहीं पायी। वह उनके चरणों में लोट गयी और फफकते हुए कहने लगी ‘आचार्य!’ आप तो सब जानते हैं- क्या वही सत्य है- क्या मैं हेय और पतित हूँ- यही तथ्य है। यदि ऐसा है तो मुझे स्वयं को समाप्त कर देना चाहिये।”
अपनी सहज करुणासिक्त वाणी में उन्होंने मधूलिका के मस्तक पर स्नेह भरे हाथ फिराये और कहा- ‘भद्रे! सत्य और तथ्य का एकीकरण तथ्य को ऊँचा उठाकर ही किया जा सकता है। सत्य को तथ्य के अनुरूप नहीं बनाया जा सकता। तुम्हारा लक्ष्य महान था- कार्य विधि कुछ भी रही हो। तुम्हारी अतृप्त आकुलता का समाधान संघ के इसी महामन्त्र में है- संघं शरणम् गच्छामि, बुद्धं शरणम् गच्छामि, धर्मं शरणम् गच्छामि।” उनकी यही गुनगुनाहट मधूलिका का भी गुरु मंत्र बन गयी।