नहीं अध्यात्म है झूठा, मगर समझे नहीं है हम। इसी कारण, जहाँ पर थे, वहाँ पर भी नहीं हैं हम॥
हजारों साल हैं बीते, मगर हम बढ़ नहीं पाये। पकड़ ली एक ही सीढ़ी, वहाँ से चढ़ नहीं पाये॥ हुई यह भूल, साधन को स्वयं ही साध्य हम समझे। भुलाना इष्ट को हमने, नहीं आराध्य हम समझे॥ हमारी-इष्ट की दूरी, इसी कारण हुई कब कम॥
लुभाती ही रहीं विधियाँ, विधा को जान पाये कब। हमारी आत्मा की हम क्षुधा अनुमान पाये कब॥ रहे आडम्बरों में ही उलझते, तथ्य कब जाना। प्रतीकों में छुपी जो प्रेरणा, उसका न पहिचाना॥ भुलाता ही रहा अध्यात्म को, आडम्बरों का भ्रम॥
उलझकर कर्मकाण्डी में, नहीं सद्कर्म अपनाये। मिलन की साधना हम साध्य के प्रति कर नहीं पाये॥ बिठाना जिस हृदय में था परमप्रिय साध्य को अपने। वहाँ पर कामनाओं के संजोते ही रहे सपने॥ परमप्रिय किस तरह आते न टूटा साधना का क्रम॥
उलझकर रह गया मनोहर खिलौनों में हमारा मन। न रुच पाया उसे चिर साधनामय तप भरा जीवन॥ अनूठी शक्तियाँ उपहार में मिलती कहाँ से फिर। अमर आनन्द-अमृतबेल तब फलती कहाँ से फिर॥ निरन्तर साधना से ही मिली है सम्पदा-अनुपम॥
कमी हम साधनामय, सात्विक जीवन बिताते थे। तभी तप-त्याग के बल पर “जगत गुरु” हम कहाते थे॥ उसी सामर्थ्य को हमने स्वयं बदनाम कर डाला॥ क्रियाओं मात्र को अध्यात्म का उपनाम कर डाला॥ न चल पाया हमारी आत्म-शोधन-साधना का क्रम॥
अगर आदर्श का अनुरूप जीवन जी लिया होता। अगर सदाचरण संजीवनी को पी लिया होता॥ प्रकट होती हमारी शक्तियाँ दिव्यत्व पा जाते। मुखर होती मनुज-गरिमा जिधर से भी निकल जाते॥ सहज उपलब्धियाँ देता हमारा सात्विक तप-श्रम॥
*समाप्त*