भूमिखण्डों में उर्वरता तो अवश्य है, पर इतनी क्षमता नहीं कि समुद्र के साथ सीधा सम्बन्ध जोड़ सकें। उन्हें बादलों के अनुग्रह का लाभ उठाकर अपनी प्यास बुझानी पड़ती है। इस तृप्ति का लाभ खेतों को हरा-भरा बनाने तथा असंख्यों की क्षुधा-पिपासा शान्त होने के रूप में मिलता है।
जन-साधारण सभी स्तर के लोगों का एक सम्मिश्रित स्वरूप है। उनमें असंख्यों ऐसे भी हैं, जिनमें उच्चस्तरीय प्रतिभाएँ प्रसुप्त स्थिति में पड़ी है। उन्हें यदि सदाशयता के साथ सघन सम्बन्ध बनाने का अवसर मिल सके तो वे घिसा पिटा जीवन न जीयें, अपने लिए और दूसरों के लिये कुछ कहने लायक उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकें। पर इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि न कुंआ प्यासे के पास पहुँचता है, न प्यासा कुएँ के पास। महानता प्रतिभाओं के साथ सम्बन्ध जोड़ने को व्याकुल है। प्रतिभाएँ इच्छुक हों चाहे न हों, पर यह निश्चित है कि यदि उन्हें “सीप को स्वाति बूँद मिलने” जैसा सुयोग मिल सका होता, तो उनमें बहुमूल्य मोती उत्पन्न होते। सौभाग्य सराहा जाता। पर इस हठीले अवरोध का क्या किया जाय जो अपनी जगह चट्टान जैसा अड़ गया है।
दूरदर्शी वे हैं जो अवरोधों का समाधान निकालते हैं। ऐसे लोग भले ही श्रमरत रहें और बादलों की तरह घाटा उठायें, किन्तु उन्हें देवताओं जैसा श्रेय मिलता है। आसमान पर छाये रहते हैं। उन्मुक्त आकाश में विचरण करते हैं। सभी उनकी प्रतीक्षा करते और नजर गड़ाये रहते हैं। यदि उनने यह कठिन उत्तरदायित्व कन्धों पर न लिया होता तो न कहीं हरीतिमा के दर्शन होते न जलाशयों का अस्तित्व ही नजर आता। कर्त्तव्य सो कर्त्तव्य। उसे कोई पालकर देखे तो वह अवलम्बन कितना कितना रसीला है। बादलों को खाली होकर लौटने की प्रक्रिया में रस न आया होता तो निश्चय ही इस रूखे, नीरस लगने वाले काम को करने से उन्होंने कब का इन्कार कर दिया होता।