निर्दोष कौन है?

February 1941

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(श्री मंगलचन्द भण्डारी, देवास)

एक चोर चोरी करता हुआ पकड़ा गया। सिपाही पकड़ कर उसे राजा के पास लाये। राजा ने चोर को अपराधी पाया और उस समय के दंड-विधान के अनुसार फंसी की सजा का हुक्म सुना दिया।

जब फंसी की तिथि निकट आई, तो राज कर्मचारियों ने चोर से पूछा-तू कुछ चाहता है? यदि चाहता हो तो बता, जिसे हम तेरे इस अन्तिम समय में प्रस्तुत करने का प्रयत्न करें। चोर ने नम्रता पूर्वक कहा -भगवन् ! मेरी एक ही इच्छा है कि मृत्यु से पूर्व अपने प्रजापालक महाराज के एक बार दर्शन कर लूँ। यदि आप ऐसा करा सकें, तो मुझे बड़ी शान्ति मिलेगी।

कर्मचारियों ने राजा के पास उसकी इच्छा का संदेश भेजा। राजा दयालु था। उसने एक मरते हुए आदमी की अन्तिम इच्छा को ठुकराना उचित न समझा और खुद ही उठ कर जेलखाने में चोर से मिलने चल दिया।

राजा को आया देखकर चोर ने उन्हें साष्टाँग प्रणाम किया और -श्रीमन्, मैंने जैसा किया वैसा पाया। इसमें मुझे कुछ भी रंज नहीं है कि मेरी मृत्यु होगी, क्योंकि एक दिन तो मरना ही था। रंज मुझे इस बात का है कि मैं एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण विद्या जानता था जो कि मेरे साथ ही लुप्त हो जाएगी, राजा ने पूछा - वह विद्या क्या है? चोर ने कहा - वह है, सोने की कृषि करना।’ मैं खेतों में सोना देने वाले पेड़ उगाना जानता हूँ।

राजा स्वयं इस विद्या को जानने के लिये उत्सुक हो उठा । उसने तुरन्त ही फाँसी की तिथि स्थगित कर दी और चोर से कहा हमें उस विद्या को सिखाओ। जब सिखा चुकोगे, तभी फाँसी दी जाएगी। चोर ने कहा -अधिक नहीं, एक मास पर्याप्त है। इतने दिनों में आप एक खेत अच्छी तरह जुतवा दीजिये।

खेत जोतने का विशेष प्रबन्ध हो गया। दिन रात हल चलने लगे। सारे राज दरबार का ध्यान उस खेत पर था। कोई मिट्टी की परीक्षा करता, कोई जोतने का ढंग सुधारता , कोई नमी की जाँच करता, कोई कुछ करता तो कोई कुछ । राजा खुद दस पाँच वार उस खेत की जुताई देखने जाते, बड़ी उत्सुकता और प्रतीक्षा के बाद महीना पूरा हुआ, जैसे तैसे सीखने की तिथि आई। उसी दिन बड़ा उत्सव मनाया गया। सारी प्रजा कौतूहलवश देखने को उपस्थित हुई। भारी भीड़ लगी हुई थी।

नियत समय पर चोर बड़ी प्रसन्नता के साथ मुसकराता हुआ गम्भीरता पूर्वक खेत पर पहुँचा । उसने अपनी जेब में से कुछ काले-काले अत्यन्त ही छोटे बीज निकले, जो देखने में किसी जंगली घास के से प्रतीत होते थे। उन बीजों को बड़े गर्व के साथ उसने संभाल-संभाल कर हथेली पर रखा और एक ऊँची जगह पर खड़े होकर सारे प्रजाजनों को वह बीज दिखाया और कहा आप,”लोग देखें! यही स्वर्णलता के बीज हैं ‘इन्हें मैं शल्य देश से बड़े प्रयत्न पूर्वक लाया था और इनके लगाने की सारी विद्या सीख कर आया था । इन बीजों से जो पौधे उत्पन्न होंगे, वह सेरों सोना रोज दिया करेंगे।” इसके बाद उसने बड़े दुख के साथ एक लम्बी साँस खींची और “कहा’-हाय ! मैं पहले से ही चोर न हुआ होता, तो खुद ही सोने की खेती करता और पृथ्वी का कुबेर बन जाता।”

लोगों ने पूछा-चोरी करने से और उन बीजों से क्या सम्बन्ध? उसने कहा बस यही तो कठिनाई है, इन्हें वही बो सकता है, जिसने कभी चोरी न की हो। आप में से जिसने कभी चोरी न की हो, वह आगे आवे और महाराज के इस खेत में बीज बो दे।

प्रजाजन सब चुपचाप खड़े थे। कोई ऐसा न था, जिसने कभी चोरी न की हो। जब चोर ने उधर सन्नाटा देखा तो हाथ पर बीज रखे, राजकर्मचारियों की ओर मुड़ा, पर वे भी सब काठ की मूर्ति की तरह खड़े थे। सारी भीड़ में एक भी ऐसा न था, जो अपने को निर्दोष समझता हो, कभी न कभी हर एक चोरी कर चुका था। अब राजा की बारी आई। उस सन्नाटे को चीरता हुआ चोर राजा के समक्ष पहुँचा और कहा-महाराज ! आप ही इन बीजों को बो दें। परन्तु महाराज का हाथ भी न उठा। वे भी अपने घर में अनेक बार चोरी कर चुके थे। चोर मस्तक झुकाये खड़ा था। फैले हुए हाथों पर स्वर्णलता के बीज रखे हुए थे पर बोने वाला कोई न था।

घन्टों बीत गये। चोरों का हज्जूम एक-एक करके खिसकता गया। राज दरबारी भी चले गये। राजा के सामने अकेला चोर खड़ा था, वह चरणों पर झुक गया और कहा -’महाराज ! मुझ अकेले ही को फंसी क्यों?’

राजा विचारक था और दयालु भी। उसने मनुष्य प्राणी की आन्तरिक कमजोरियों का दार्शनिक अनुभव किया और चोर से कहा- “जा तुझे अकेले को ही मैं फंसी नहीं दे सकता।”


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