दुख ही सुख का पिता है

February 1941

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(श्री रामसेवक गुप्त ‘सेवकन्दु’ सेवड़ा, दतिया)

विश्व में सुख-दुख की कोई व्याख्या नहीं हैं हमारी चार पैसों की आवश्यकता की पूर्ति ही सुख है और आपूर्ति दुख।

किन्तु मानव लोभ तथा अज्ञान के वशीभूत होकर क्षण-क्षण पर गला फाड़ कर सुख और दुख को चिल्लाता है।

सुख की गोदी में पले हुए, जीवन में आनन्द उल्लास-सागर में क्रीड़ा करने वाले मनुष्य को जीवन की विषम परिस्थितियों को, उतार-चढ़ाव का और संसार के कटु वातावरण का क्या अनुभव होगा?

वह कूप मंडूप होगा। उसे तो जीवन के सुनहले स्वप्नों का- मीठे मीठे सुरीले स्वरों का- कोमल मखमल रेशम का और मिठास, धन तथा यौवन का ही केवल ज्ञान होगा।

वह सुर्खाब के पर वाला धन तथा यौवन के गर्व में चूर होकर मदान्ध हो गया होगा, तथा पथ- भ्रष्ट हो कर उस सच्चिदानन्द परमात्मा को भूल गया होगा!

किन्तु दुख में मर्मभेदिनी आह और टीसें, क्रन्दन तथा रोदन, भीषण कटुता, जीवन की कसौटी टिमटिमाती आशा और जीवन के धुँधले स्वप्न होंगे और प्रभु के ऊपर श्रद्धा करने को जी चाहेगा।

तब प्यारे दुख, आओ! तुम्हारा सानुराग आवाहन और स्वागत करें, क्योंकि तुम्हारी अठखेलियाँ उस सच्चिदानन्द प्रभु का सुन्दर रूप दिखाती है, ओर सहनशीलता तथा सन्तोष का मधुर पाठ पढ़ाती हैं। तुम सचमुच प्रशंसनीय तथा सराहनीय हो। तुम्हारा आरम्भ तीव्र कटु है, किन्तु अन्त में अत्यंत मीठा है। कड़वी औषधि ही अन्त में लाभदायक होती है और पुष्प तोड़ने वाले को ही अपना हाथ कांटों से छेदना पड़ता है।

तब दुख सुख से उत्तम है तथा दुख ही सुख का जनक है।


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