धर्म की प्रवृत्ति

February 1941

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(श्री त्रिलोकनाथ जी)

सब लोग चित्त का संतोष और सच्चा आनन्द प्राप्त करने के लिए अनेक प्रकार के उपाय करते हैं। किन्तु धर्म प्रवृत्ति को अपनाने से जो सुख मिलता है, वह और किसी प्रकार नहीं मिल सकता, जो ईश्वर के बँधे हुए नियमों के अनुसार सदा सत् कर्म करते है, उनको आत्म प्रसाद का सच्चा सुख मिलता है, उनका मन विकसित पुष्पों के समान सदा प्रफुल्लित रहता है। जो लोग कह सकते हैं कि हम अपनी सामर्थ्य भर ईश्वर के नियमों का पालन करते हैं, यथा शक्ति परोपकार करते है, सब लोगों के साथ अनीति छोड़ कर नीति पूर्वक सुहृद-भाव रखते हैं, वही सच्चे सुखी हैं। वे अपने निर्मल चरित्रों को बारम्बार स्मरण करके परम संतोष पाते हैं। ऐसे धर्म-प्रवृत्त मनुष्य की ओर उसके शुभ कर्मों को चाहे, लोग न जानते हों, चाहें उसे अपनी प्रशंसा सुनने का अवसर कभी प्राप्त न होता हो, तथापि वह अपने कर्तव्य कर्मों से ही अपने को कृतार्थ करते हैं। दुखियों के दुख मिटाने तथा किसी अज्ञान के मार्ग पर अग्रसर करने की एक-एक बात बड़े से बड़े राज्य के मिलने पर भी दूसरे लोग नहीं पा सकते।

हमें चाहिए कि धर्म की प्रवृत्ति को अपनावें। यही प्रवृत्ति सुधार का सच्चा मार्ग है। क्योंकि मनुष्य से यदि कोई भूल हुई, तो वह तुरन्त ही सचेत कर देगी और हम अपनी भूल को अंगीकार करके उसे सुधारने को यत्न करेंगे। पर यदि निकृष्ट प्रवृत्ति प्रबल हुई तो छल से उसे छिपाना चाहेंगे या अपनी भूल दूसरों के शिर मढ़ना चाहेंगे और एक अपराध को छिपाने के लिए दूसरा अपराध करेंगे। यह स्मरण रखना चाहिए कि धर्म-प्रवृत्ति से आत्म प्रसाद और निकृष्ट प्रवृत्ति से आत्म ग्लानि होना अवश्यम्भावी है और यही वस्तुयें सुख दुख का मूल हेतु हैं।

एक बिलकुल सत्य घटना -


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