(ले. श्री राम भरोसे पाठक, अध्यापक नदीगाँव)
अपने इष्ट देवों की पूजा के लिये साधक लोग भिन्न भिन्न प्रकार से आराधना करते हैं। सच्चिदानन्द परमात्मा या गणेश, शिव, दुर्गा आदि उसके विभिन्न नामों एवं रूपों की पूजा एक ही बात है। अलग अलग नाम रख लेने या अलग अलग स्वरूपों का ध्यान करने से परमात्मा की अखण्डता में कोई फर्क नहीं आता। कोई किसी देवता को पूजे तत्वतः वह ईश्वर की ही पूजा है-’सर्व देव नमस्कारं केशवं प्रति गच्छति।’
पूजा उपासना की अनेक विधियाँ सम्प्रदायों या देश काल के अनुसार प्रचलित हैं। बाह्य दृष्टि से देखने पर इनमें विरोधाभास होता है। कई विधियाँ तो बहुत टेढ़ी मेढ़ी, कष्ट साध्य और बहुत देर में लक्ष तक पहुँचाने वाली होती हैं। कई स्थलों पर उनमें ऐसी पेचीदगियाँ भी होती हैं, जिनमें भटक जाने पर साधना भ्रष्ट तान्त्रिकों की तरह बड़े भारी खतरे का सामना करना पड़ता है। कई साधना, बहुत समय, श्रम और धन चाहती हैं।
तत्वदर्शी योगियों ने इन सब कठिनाइयों से साधकों को बचाने के हेतु एक सार्वभौम उपासना की विधि का उद्घाटन किया था। यह विधि थी ‘मानसी पूजा।’ मानसी पूजा का अर्थ है, मन में ही आराधना करना। इसके लिये किसी बाहरी वस्तु की आवश्यकता नहीं पड़ती। प्रतिमा पुस्तक, पुष्प, धूप, दीप, चन्दन अक्षत आदि किसी की कुछ आवश्यकता नहीं होती। वास्तव में इन वस्तुओं द्वारा की जाने वाली उपासना बहुत ही आरम्भ की है। जैसा बालक पहले अ, आ, इ, ई, लिखते हैं। जब मन अधिक गहरा उतरता है और सूक्ष्म लोक में प्रवेश करता है, तब तो यह वस्तुएं उलटी ध्यान बटाने की बाधा उपस्थित करती हैं। इसी लिये योगाभ्यासी किसी बाह्याचार में नहीं पड़ते और प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि के मानसी आचारों का अभ्यास करते हैं।
योग शास्त्र बतलाता है, कि आपको जो अभीष्ट हो, उस की मानसी पूजा कीजिए, आत्म कल्याण के लिये ईश्वर की आराधना करते हैं, या उसके किसी गणेश, सूर्य आदि प्रतिबिंब को अपना आराध्य बनाया है, तो उसका साकार निराकार जैसा कुछ रूप आप ठीक समझते हैं, अपने हृदय में धारण कीजिये, उसी रूप की स्पष्ट कल्पना अपने मनो लोक में कीजिये चित्त को रोक कर बार ध्यान करने से वह मूर्ति स्पष्टतः अपने भीतर प्रतिष्ठित हो जाएगी। सूक्ष्म नेत्रों से उसके दर्शन अच्छी तरह किये जा सकेंगे।
अपने इष्ट देव के ध्यान में स्थित होकर उन्हीं में अपने को तन्मय करने का प्रयत्न कीजिये। मानसी पूजा के लिये धूप, दीप आदि बाहरी वस्तु की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि वह इष्ट देव आराध्य है तो आत्मा आराधन या आराधना की सामग्री। जैसे यज्ञ में आहुत डालते समय सामग्री को अग्नि में डाल कर उसी के स्वरूप में मिला देते हैं, और आहुत के साथ कहते हैं। ‘इदन्नमम’ अर्थात् यह यह मेरा नहीं है। इसी प्रकार आप इष्टदेव रूपी यज्ञ में अपनी आत्मा को समिधा रूप में जलाकर दीजिये और भावना कीजिये कि इसमें मेरा कुछ नहीं है जब अपने ‘आपे’ को भुला कर हम तदाकार होते हैं तो दो वस्तुएं नहीं रहतीं। या तो इष्टदेव ही रह जाता है या आत्मा ही,बात एक ही है। यही तदाकारता सच्ची उपासना है, इसी, को अद्वैत साधन कहते हैं।
संसार में आपका जो भी लक्ष हो उसी की मान सी पूजा कीजिये, उसी में तदाकार हो जाइये, इसके लिये किसी आसन, स्थान, समय आदि का प्रतिबंध नहीं है। जैसी भी स्थिति में रहें, अपने को अपने इष्ट-उद्देश्य में पिरोते रहिये। बस आप की पूजा सफल हो जाएगी और इच्छित फल मिल जायगा।