शिखा के लाभ

February 1941

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(वि॰ रामस्वरूप ‘अमर’ साहित्य रत्न,)

शिखा शब्द ‘शिख् जाने अर्थ धातु से बनता है जिसका अर्थ शिखा यानी ब्रह्मरन्ध्रस्थ वालों के द्वारा जीवन शक्ति का आना और जाना बतलाया “तत्सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत” इसमें बतलाया गया है, मनुष्य शरीर में ब्रह्मरन्ध्र के द्वार है, जिसके द्वारा परमात्मा का प्रवेश होता है। इस परमात्मा को जीवात्मा कहते हैं। यही नियम है, कि मनुष्य या प्राणी मात्र गर्भ स्थिति में रहता है, तो प्रथम शिर की रचना होती है, बाद में दूसरे अंग प्रत्यंगों की। हमारे पूर्वज ऋषि महर्षियों का यह अनुभूत सिद्धान्त है कि प्राणों का गमन यदि ब्रह्मरन्ध्र के मार्ग से हो तो अवश्य इस संसार से आवागवन् छूट जाता है, क्योंकि “गो-गोचर जहाँ लग मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।” अब जहाँ तक मन की दौड़ है वहाँ सर्वत्र माया भासित होगी। माया से ‘आब्रह्म भुवना लोकाः पुनरा वर्तिनोऽर्जुन’ के सिद्धान्त से आवागवन तो निश्चय ही है। सब वर्णों यानी अंगों में ‘मुखं श्रेष्ठतमं मतम्’ माना है । शिखा रखने का रहस्य मय कारण यह है, कि जो मस्तक की माँस पेशियाँ हैं, वे प्रायः बहुत कोमल होती हैं। उन में जितनी शीघ्रता से सर्दी और गर्मी प्रवेश कर सकती है, उतनी किसी स्थान में नहीं कर सकती सिक्ख लोग जटा (शिखा) आदि पञ्च केशों के रखने से कितने स्वस्थ और सुन्दर प्रतीत होते हैं? यह बाल वीर्य रक्षा के लिये अत्युपयोगी साधन हैं। बारम्बार मुण्डन आदि कृत्यों से मनुष्य की विषय-वासनायें उत्तेजित हो उठती हैं और विषय वासना ही अधोगति का कारण है। नारी समाज की ओर दृष्टि कीजिये, उन्हें केश रखने का कितना चाव है, वही उनकी शिखा है जिसकी बदौलत नारियों में अपूर्व सौंदर्य, सहन शीलता और कार्यक्षमता की विशेषता पुरुषों से अधिक पाई जाती है। हमारे ऋषि-मुनि शिखाधारी होने के कारण ही प्रायः दीर्घजीवी होते थे, क्योंकि उनके वीर्य की रक्षा और इन्द्रियों की शाँति केशों के द्वारा सरलता से हो जाती थी। आजकल का नर समाज विलासिता की ओर इतना अग्रसर क्यों हो रहा है? केवल केशों की ओर ध्यान न देने से । शिखा की गति प्रायः ऊर्ध्व हुआ करती है, जैसे दीपक की शिखा को लीजिये। जिस प्रकार दीपक अपनी शिखा के द्वारा धुएं के रूप में अपनी कालिमा को फेंकता जाता है, उसी भाँति यह जीवात्मा रूपी दीपक भी अपनी शिखा द्वारा ब्रह्मरन्ध्र से सब पाप रूपी धुयें को निकालता हुआ अन्त में अपने यथेष्ट स्थान को पहुँच जाता है। इसी शिखा के द्वारा ‘चिद्र पिणि। महामाये’ दिव्य तेजः समन्तिते। तिष्ठदेवि। शिखा बन्धे तेजो वृद्धि कुरुष्व मे।’ तेजो वृद्धि का आवाहन किया जाता है। शिखा बाहर की सर्दी या गर्मी को मस्तिष्क में प्रविष्ट नहीं होने देती क्योंकि केशों में ऊन के सभी गुण विद्यमान होते हैं। जैसे ऊन के ऊपर पानी कम ठहरता है, वैसे ही वालों में भी पानी नहीं ठहर पाता ऊन के तन्तु जैसे पशु पक्षियों की शारीरिक-गर्मी को बाहर नहीं निकलने देते वैसे ही हमारे बाल भी शारीरिक गर्मी और सर्दी का बचाव करते रहते हैं।

कहने का तात्पर्य यह है कि बाल रखने से बल, आयु आरोग्य की वृद्धि और न रखने से इनका ह्रास होता है। वेद मन्त्रों में देखिये -’दीर्घायुष्ट-वाय बालक वच से । शक्त्यै शिखायें वषट्’ इत्यादि पहिले कैदियों को सब से बड़ा दण्ड उनका मुण्डन कराना ही समझा जाता था, क्योंकि उनमें कष्ट सहने की वह शक्ति नहीं रहने पाती थी, जिससे वे यातनायें भोग सकें। मुण्डन हो जाने से अपराधी अपना दोष भी शीघ्र स्वीकार कर लेते थे। ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं। शिखा आर्य धर्म का एक चिन्ह भी है। जैसे आज कल प्रत्येक संस्था अपनी-अपनी समाज का अलग 2 चिन्ह रखती है, उसी प्रकार हमारे समाज का शिखा प्रधान चिन्ह है। एक झण्डे के लिए जैसे सेनानी प्राणों की बाजी लगा देता है वैसे ही नर समाज के प्रधान अंग मस्तिष्क-राज्य की ध्वजा शिखा की रक्षा में कोई कसर नहीं रखनी चाहिए। इसी शिखा और धर्म की रक्षा के लिये शिवाजी, गोविन्दसिंह जी जैसे वीरों ने अपने प्राणों की बाजीयाँ लगा दी थीं। अगर ‘शिवाजी न होते तो सुत्रतडडडडडड होती सबकी’ इसमें कोई सन्देह न होता और आर्य जाति अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को खो बैठती । विशेष तो मैं एक अपनी ‘शिखा-सन्देश’ पुस्तक में लिख रहा हूँ जो शीघ्र ही प्रकाशित होगी । जिसमें प्रसिद्ध महापुरुषों के विचारों का समन्वय और चयन किया गया है। ‘देहो देवालयः प्रोक्तः’ यानी देह एक देवालय है जिसमें जीवात्मा रूपी देव का निवास है, उसका निशान शिखा है जैसे दूसरे देवालयों में ध्वजादि निशान हुआ करते हैं वैसे ही हमारे देह-देवालय का शिखा एक निशान है, जिसकी रक्षा हमें जीते जी करनी है और इसी के द्वारा अन्त में आवागमन से छुटकारा पाना है।


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