ईश्वर की उपासना

February 1941

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(ले॰-श्री धर्मपालसिंहजी, बरला)

बहुधा लोगों के मन में जो कर्म फिलॉसफी के मानने वाले हैं, यह विचार पैदा हुआ करते हैं कि कर्म के बिना कुछ नहीं मिलता, हम जैसा अच्छा या बुरा कर्म करते है उसका वैसा ही फल मिलता है। दूसरे ईश्वर न्यायकारी है, वह भी कर्म फल में कोई परिवर्तन नहीं करता फिर बेकार क्यों उपासना में समय लगाया जाए? उपरोक्त दलील को देखकर जब हम संसार में देखते है कि एक मूर्ख भी बिना प्रयोजन किसी कार्य में हाथ नहीं डालता और बुद्धिमान की सदैव खोज कर करते हैं, तो यह आवश्यक है कि इस रहस्य पर कुछ विचार किया जाए। ‘ज्योति’ के पाठकों को इससे पूर्व कि इस विषय पर विचार किया जाय, यह जान लेना अति आवश्यक होगा कि उपासना शब्द का क्या अर्थ है, उपासना का अर्थ है पास बैठना, ईश्वर शब्द का अर्थ सर्वेश्वर या ऐसी शक्ति जो सत्-चित्-आनन्द हो। अब यह प्रश्न होता है कि क्या ईश्वर हम से दूर है, जिससे हमें पास बैठने यानी उपासना की जरूरत हुई। दूरी तीन प्रकार की होती है । स्थान सम्बन्धी जैसे सूर्य हम से करोड़ों कोस दूर हैं। दूसरी -(काल सम्बन्धी) जैसे महाभारत हम से पाँच सहस्र वर्ष पहिले हुआ। तीसरी-(ज्ञान सम्बन्धी) जैसे बहुत बार हम अपने को भूल जाते हैं या समीप की वस्तुओं को भ्रान्ति के कारण नहीं देख सकते । उपासना शब्द को सिद्ध करने के लिये अब हमें विचारना चाहिये कि ईश्वर में और हम में कौन सी दूरी है, चूँकि ईश्वर सर्व व्यापक और अपरिमित है, इसलिए-स्थान दूरी नहीं हो सकती, वह नित्य है, अतएव काल दूरी भी उसमें नहीं है। अब रही ज्ञान दूरी-सो यह प्रत्येक मनुष्य को मानना पड़ता है, क्योंकि हर मनुष्य को ईश्वर का पूर्ण परिचय नहीं है,अब हम यह जान गये कि ज्ञान दूरी है, तो हमें ईश्वर के ज्ञान को प्राप्त करने के लिए ही उपासना की जरूरत है। अब यह ध्यानपूर्वक देखिये कि संसार में हम कब किसी की उपासना करते हैं। जब किसी व्यक्ति को सर्दी लगती है, तो वह गर्मी के लिए तथा उससे बचने के लिए अग्नि आर वस्त्र की उपासना करता है और जब गर्मी की अधिकता से प्यास कष्ट देती है, तो जल की उपासना करता है। इससे यह स्पष्ट विदित हो गया कि जब हमें किसी वस्तु की उपासना से कष्ट मालूम होता है, तो हम दूसरी प्रतिकूल वस्तु जो हमारे अनुकूल होती है की उपासना करते हैं, जो हमारे कष्ट को आनन्द से बदल देती है । अब यह बात साफ हो गई कि उपासना दुःख से बचने और सुख को प्राप्त करने की गरज भी आती है । पाठक गण अब यह विचारने की आवश्यकता हुई कि हमें दुःख किस वस्तु से मिलता है। संसार में हम दो शक्तियों को काम करते देखते है एक ज्ञात दूसरी अज्ञात जो वस्तुएं हमें इंद्रियों द्वारा अनुभव होती हैं वह सबकी सब अज्ञात हैं।

इन शक्तियाँ के समूह को प्रकृति के नाम से पुकारा जाता है । हमारी कामनायें उत्पन्न होकर जो कि हमारे दुःख का एक ही कारण हैं, इसी प्रकृति से पैदा होती हैं यानी दुःख का कारण प्रकृति है। परन्तु क्या कारण है कि हम ज्ञाता होते हुए भी इसके सेवक हो जाते हैं? बात यह है कि हमारा ज्ञान निर्बल है और प्रकृति (शक्तियों का समूह) नाना प्रकार के भेष बदल कर हमारे सामने आती है, यद्यपि प्रथम दशा में हम इसे अस्वीकार भी कर चुके हों, परन्तु नूतन दशा में फिर अपना लेते हैं, जैसे किसी व्यक्ति ने कोई फल खाया । पेट में जाकर, मल मूत्र, रुधिर, माँस, मज्जा, वीर्य इत्यादि की दशाओं में परिवर्तन हो गया । हमें अब इससे घृणा हो गई, परन्तु जब इन्हीं वस्तुओं से पृथ्वी के नीचे से दूसरे फल पैदा होकर आते हैं, तो हमारा मन जो प्रथम घृणा कर चुका था, फिर ललचा जाता है, वास्तव में हम प्रकृति के मूल कारणों से जानकार नहीं। इसी कारण न तो इससे इच्छा पूरी होती है और न दुःख ही दूर होता है, अब अच्छी तरह समझ में आ गया कि हमारे दुःखों का कारण प्रकृति के भेद को न जानना है संसार में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है, जिसे प्रकृति का पूर्ण ज्ञान हो। प्रकृति का ज्ञान न होने तथा उसकी विरुद्ध शक्ति को न जानने के कारण हम दुःख उठा रहे हैं, इस लिये जरूरत है कि हम ऐसी शक्ति की उपासना करें, जिसे प्रकृति का पूर्ण ज्ञान हो और इसके प्रतिकूल गुण वाली हो।

प्रकृति सर्व व्यापक (अपरिमित) और जड़, प्रकृति को वही जान सकता है, जो सर्व व्यापक और ज्ञाता हो, सो सर्व व्यापक ज्ञाता एक परमात्मा है, उसी को प्रकृति या यथार्थ ज्ञान है। परमात्मा आनन्द स्वरूप है, प्रकृति के व्यापक और नित्य होने से जीवात्मा सदैव प्रकृति से सम्बन्ध रखता है, जिससे वह दुःखी रहता है, दुःख रूप प्रकृति की विरुद्ध शक्ति परमात्मा के सिवा जो आनन्द रूप है, जीव किस की उपासना से दुख से छूट सकता है, इस कारण परमात्मा की उपासना करने योग्य है जब परमात्मा के ज्ञान को जान लेंगे, तब हमें पापों से घृणा हो जाएगी । यह जो दलील होती हैं जब ईश्वर उपासना से किए हुए कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है, तो क्या लाभ । परन्तु यह सत्य है कि ईश्वर उपासना से पाप का फल भोगते हुए भी कष्ट नहीं होता, क्योंकि दुःख को अनुभव करने वाला मन परमात्मा की उपासना में लगा होता है।


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