प्रेतों का अस्तित्व

February 1941

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(श्री रामरत्न वड़ोला, ‘शूल’ गंगोह)

उस दिन मैं पौड़ी (गड़वाल) से गाँव लौट रहा था। शाम हो चली थी। फिर भी युवावस्था का जोश और निर्भय स्वभाव के कारण किसी प्रकार की चिन्ता न थी, हाथ में मोटा सा डंडा लेकर हमेशा की भाँति चल पड़ा, डर जैसी चीज मेरे मस्तिष्क में न थी। भूत-प्रेतों की बात निर्बल मनुष्यों की मानसिक कल्पना से बढ़ कर मुझे और कुछ प्रतीत न होती थी। इसलिये रास्ते में ‘भूत मिलने’ का तो स्वप्न में भी खयाल न था। सूरदास का एक पद गाता हुआ मैं उस पहाड़ी इलाके के झाड़ झंखाड़ों से भरे हुए रास्ते को पार करता हुआ उस घनघोर अन्धकार में भी प्रसन्नता पूर्वक चला जा रहा था।

रास्ते में एक घने झुरमुट में अचानक किसी के खाँसने की आवाज आई। मुझे प्रसन्नता हुई कि शायद कोई रास्तागीर इधर से जा रहा है, चलो साथ हो जाएगा। खाँसने वाले को तलाश करने के लिये मैंने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई, तो सामने वाले पेड़ के सहारे एक आदमी खड़ा हुआ दिखाई दिया। मैं उधर बढ़ना ही चाहता था, कि उस व्यक्ति ने मुझे पुकारा भाई तेरे पास बीड़ी है? मेरी जेब में बीड़ी और दियासलाई थी, मैंने उसे दोनों चीजें दे दीं। बीड़ी पीता हुआ वह मेरे साथ चलने लगा। मुझे एक साथी पाकर प्रसन्नता हुई।

कुछ दूर आगे चलने पर उसने फिर बीड़ी माँगी, मैंने उसे फिर दी। उसने दियासलाई जलाई तो उसके पाँव पीछे की ओर मुड़े हुए दिखाई दिये। मैंने सुन रखा था कि भूत के पाँव उलटे होते हैं। भ्रम समझ कर मैंने कई बार आँखें मलीं और ध्यान से देखा तो सचमुच उसके पाँव उलटे थे। इस घोर घने एकान्त और निर्जन स्थान में भूत से पाला पड़ने के डर से मेरी छाती धक-धक करने लगी। एक क्षण के लिए मैं स्तब्ध खड़ा रह गया। इतने में क्या देखता हूँ कि साथी गायब है और चारों ओर आग के जलते हुए गोले उछल कूद रहे हैं और एक तरफ से गाने -बजाने की आवाज आ रही है।

इस दृश्य ने मुझे भयभीत बना दिया था, फिर भी मैंने हिम्मत नहीं छोड़ी और साहस करके अपने डंडे को जमीन पर खटखटाया। अब वह दृश्य गायब हो चले थे, पर अचानक वही व्यक्ति फिर कहीं से मेरे सामने आ खड़ा हुआ । उससे बोलने की हिम्मत न होती थी। पर उसने खुद ही मुझे न डरने का आश्वासन दिया और पीछे-पीछे चले आने को कहा। उसने फिर बीड़ी माँगी, मैंने दे दी। पर एक शब्द भी मेरे मुँह से न निकल सका। जब उसने दियासलाई जलाई तो मैंने देखा कि उसकी टाँगें सीधी हैं, पर पैर घुटने पर से गायब हैं। दो तीन मील मैं उसके साथ चला आया, रास्ते में कई बार उसने मुझे निर्भय रहने का आश्वासन दिया। आगे एक घाटी के पास जब हम आये तो फिर अचानक कलेजा हिला देने वाली घटना हुई- दहाड़ने की सी बड़ी भयानक एक गगनभेदी ध्वनि हुई, मैं बेंत की तरह काँपने लगा । आगे देखता हूँ कि लकड़ियों का एक ढेर जल रहा है और उस ढेर में से जलती हुई लकड़ियाँ ले ले कर दो मनुष्य आपस में लड़ रहे हैं। मुझे पेड़ पर चढ़ना सूझा । प्राणों के भय ने एक कटीले पेड़ पर भी ऊंचा चढ़ा दिया।

कुछ देर में लड़ाई शान्त हुई। वही मुसाफिर फिर मेरे निकट आया और आश्वासन देते हुए आगे चलने को कहा । मैं संज्ञा शून्य हो रहा था । डर के मारे बुद्धि भी कुछ काम न करती थी, जबान बन्द थी। मन्त्र मुग्ध की तरह मैं उसके पीछे पीछे चल दिया। गाँव के निकट पहुँचने से पूर्व एक फूंस करता हुआ साँप मिला, जिसे उठा कर उसने एक और फेंक दिया।

आधी रात हो चली थी, अब हम गाँव के बिलकुल निकट पहुँच गये। अब मेरा भय दूर हुआ और जबान खुलने लगी। इस विचित्र साथी से मैंने नम्रता पूर्वक पूछा, आप कौन हैं? आगे कहाँ जाएंगे? रास्ते में यह घटनाएं कैसे हुई थी? उसने एक साँस में ही तीनों प्रश्नों का उत्तर दे डाला- ‘मैं प्रेत हूँ-पूर्व जन्म का तुम्हारा मित्र हूँ-तुम्हारी रक्षा के लिये साथ-साथ यहाँ तक आया हूँ-रास्ते में दूसरी दुष्ट आत्माएं मिली थीं, वे तुम्हें हानि पहुंचाती, मैंने उन्हें तथा उस सर्प को हटाया और अब तुम्हें सुरक्षित पहुँचा कर वापिस जाता हूँ।’ मैं उससे और कुछ कहना ही चाहता था, कि साथी अन्तर्ध्यान हो गया।

उस दिन से मैं प्रेतों के अस्तित्व पर विश्वास करने लगा हूँ और समझता हूँ कि वे केवल हानि ही नहीं पहुँचाते, परन्तु जिसे वे चाहते हैं, लाभ भी पहुँचाते हैं और रक्षा भी करते हैं।


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