प्राणायाम की विधि

February 1941

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(ले॰ पं॰ भोजराज शुक्ल, ऐत्मादपुर, आगरा)

मैंने सितम्बर मास के अखण्ड ज्योति में ‘दीर्घायु होने के उपाय’ शीर्षक लेख में प्राणायाम की सुगम विधि बतलाने को लिखा था, अतएव आज मैं पाठकों को प्राणायाम की ऐसी सुगम क्रिया बतलाना चाहता हूँ, जिसके नियम पूर्वक करने से विशेष लाभ होगा। यह वचन माननीय है कि बिना गुरु के किसी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती, परन्तु श्रद्धा, विश्वास तथा साहस और उत्साह से भी कभी-2 कार्य सिद्ध हो जाते हैं। जिस प्रकार एकलव्य नामक भील ने गुरु द्रोणाचार्य की मृत्तिका मूर्ति अपने सन्मुख रख कर श्रद्धा तथा विश्वासपूर्वक उस मूर्ति में गुरु द्रोणाचार्य की भावना करके अर्चन वन्दन करते हुए धनुर्विद्या में सफलता प्राप्त कर ली थी, जिसके सन्मुख श्रीकृष्ण भगवान के सखा तथा भक्त अर्जुन को उसके सन्मुख नत मस्तक होना पड़ा। अतएव प्राणायाम क्रिया को यदि नियम से किया जावे, तो उसमें भी सफलता प्राप्त हो सकती है। प्राण और अपानवायु के संयोग को प्राणायाम कहते हैं, साधारणतः इसमें तीन क्रियायें होती है (1) रेचक, (2) पूरक, (3) कुँभक वायु को नासिका मार्ग से धीरे-धीरे बाहर निकालना रेचक, शुद्ध वायु को नासिका मार्ग से धीरे- 2 पेट में भरना पूरक, पेट में भरी हुई वायु को पेट में ही स्थिर रखना कुंभक कहलाता है। दाहिने नथने से श्वास चलने को पिंगला नाड़ी का चलना कहते हैं। बाँये नथने से श्वास चलने को इड़ा नाड़ी का चलना कहते है तथा दोनों नथुनों से जब श्वास निकलती है, तो उसको सुषुम्ना नाड़ी का चलना कहते हैं, सुषुम्ना नाड़ी मूलाधार (गुदा ) से प्रारम्भ होकर मेरु दण्ड (रीढ़) के बीचों बीच छिद्र में होती हुई ब्रह्मरन्ध्र तक जाती है, सुषुम्ना नाड़ी के बाँयी ओर इड़ा नाड़ी (चन्द्रनाड़ी) बाँये नथने तक चली गई है, तथा सुषुम्ना के दायीं ओर पिंगला नाड़ी (सूर्य नाडी) दाहिने नथने तक चली गई है। अब प्राणायाम की विधि कहता हूँ।

विधियाँ

जिस आसन का अभ्यास हो, उसी आसन को सुख पूर्वक लगाकर अपनी रीढ़ को तना हुआ सीधा रक्खो किसी ओर को हिले-जुले नहीं, ठोड़ी को छाती से लगाकर दृष्टि नासिका के अग्र भाग पर जमाओ तथा हाथों को आगे अपनी गोद में रखलो, फिर दाहिने हाथ में अंगूठे से दाहिने नथने को दबाकर बाँये नथने से वायु खींचकर उदर में धारण करो, पेट में यथाशक्ति वायु को रोके रहो तथा अनामिका और कनिष्ठिका अंगुलियों से बाँये नथने को भी बन्द करलो, साथ ही प्रणव (ॐ) का जप करते रहो, अथवा जो तुम्हारा इष्ट मन्त्र हो, उसे जपते रहो, इसे आन्तर कुँभक कहते हैं। वायु को पेट में थोड़ी देर रोको और फिर दाहिने नथने से अंगूठा हटा कर उदरस्थ वायु को अत्यन्त धीमी गति से बाहर निकाल कर बाहर ही रोक दो, अँगूठे से दाहिने नथने को फिर बन्द कर लो, इसे बाह्य कुँभक कहते हैं, प्रणव का जप बराबर करते रहो, थोड़ी देर बाद दोनों नथुनों को खोल कर वायु धीरे-2 पेट में भर लो, यह एक प्राणायाम हुआ। इस प्रकार न्यून से न्यून तीन प्राणायाम अवश्य करने चाहिये तथा धीरे-धीरे अभ्यास करके वायु निरोध करने की शक्ति बढ़ानी चाहिये, परन्तु हठ कदापि न करना, अति हठ करके वायु को रोकने से उसके कुपित हो जाने का भय रहता है, जिसके कारण हिचकी, दमा , खाँसी, आँख, कान और शिर के रोग उत्पन्न हो सकते हैं यदि प्राणायाम नियमपूर्वक सामर्थ्यानुसार खुली तथा स्वच्छ वायु के स्थान में किया जाएगा तो इससे जठराग्नि तीव्र होकर स्वास्थ्य तथा आयु की वृद्धि होगी। उपरोक्त प्राणायाम विधि के विपरीत भी रेचक, पूरक क्रियायें करनी चाहियें, अर्थात् दाहिने नथने से वायु खींच कर बायो नथने से निकाल देना चाहिये। पूरक, कुँभक और रेचक करते समय प्रणव (ॐ) का जप दस-दस बार करते रहना चाहिए, पन्द्रह दिन अभ्यास कर लेने के पश्चात् बीस-बीस बार, तथा एक मास के पश्चात् तीस-तीस बार जप करना चाहिये। इसी प्रकार क्रमशः जप संख्या बढ़ाते रहना चाहिए।

अभ्यसेन मनसा शुद्धं, त्रिविद् ब्रह्माक्षरं परम। मनो यच्छेज्जित श्वासों, ब्रह्म बीजमनिस्मरन्॥ त्रिवित् ओंकार-रूपी ब्रह्म का अभ्यास मन से करे। प्राणायाम को रोक कर ब्रह्म बीज (ॐ) का स्मरण करता हुआ मन का निग्रह करे॥

अपनी शक्ति से बाहर कदापि प्राणायाम न करे, इस पर पूर्ण ध्यान रखना चाहिये, साधारण प्राणायाम की विधि रही है, जो कि आरोग्यप्रद तथा आयु वृद्धि करता है।


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