(मा॰ उमादत्त सारस्वत,कविरत्न, बिसवाँ, सीतापुर)
सोचा है क्या कभी जीव ! तू कौन कहाँ से आया है?
किसने तुझको भेजा है,क्यों नर का यह तन पाया है?
यह दुनिया है रंग मंच सम, इस पर ‘खेल’ दिखाना है।
चतुर खिलाड़ी ! सावधान ! द्रुत पटाक्षेप हो जाना है।
नियत समय के अन्दर तू यदि ‘पार्ट’ न पूरा न कर पाया।
भूल गया या वादा वह जो ‘मालिक’ से था कर आया। ।
तो चौरासी लाख योनि के चक्कर में पड़ना होगा।
नरक कुँड में रह कर जाने कितने दिन सड़ना होगा!!
भाँति-भाँति के रूप बना कर ‘अभिनेता’ कितने आये!
‘रोकर’ ‘गाकर’ ‘नाच-कूद कर’ चले गये जितने आए!
क्षण भर का यह ‘नाटक’ है मत गफ लत होने पाये कुछ!
वह कर जिसमें वाह-वाह हो और काम बन जाये कुछ!