जीवन-नाटक

February 1941

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(मा॰ उमादत्त सारस्वत,कविरत्न, बिसवाँ, सीतापुर)

सोचा है क्या कभी जीव ! तू कौन कहाँ से आया है?

किसने तुझको भेजा है,क्यों नर का यह तन पाया है?

यह दुनिया है रंग मंच सम, इस पर ‘खेल’ दिखाना है।

चतुर खिलाड़ी ! सावधान ! द्रुत पटाक्षेप हो जाना है।

नियत समय के अन्दर तू यदि ‘पार्ट’ न पूरा न कर पाया।

भूल गया या वादा वह जो ‘मालिक’ से था कर आया। ।

तो चौरासी लाख योनि के चक्कर में पड़ना होगा।

नरक कुँड में रह कर जाने कितने दिन सड़ना होगा!!

भाँति-भाँति के रूप बना कर ‘अभिनेता’ कितने आये!

‘रोकर’ ‘गाकर’ ‘नाच-कूद कर’ चले गये जितने आए!

क्षण भर का यह ‘नाटक’ है मत गफ लत होने पाये कुछ!

वह कर जिसमें वाह-वाह हो और काम बन जाये कुछ!


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