(श्रीमती सावित्री देवी तिवारी, जयपुर)
प्रभो! उस दिन आपको खूब ही रोकर बुलाया, घन्टों गिड़गिड़ाई, हिचकियाँ बँध गईं, दर्शन की आशा से आंखें उमड़ आई । पूजा की थाली में हृदय-पुष्प रखा हुआ था। प्रतीक्षा में युग बीत गये परन्तु प्रभु ! आपके दर्शन न हो सके।
भगवान्! क्या करूं ? कैसे करूं? संसार सागर की प्रचंड लहरें मेरी आत्मा को इधर से उधर बहाती फिरती हैं, एक चट्टान से टकरा कर लौटती हूँ तो दूसरे से टकराना पड़ता है। यह निर्बाधित क्रम कितने अतीत काल से चला आ रहा है । छील छील कर मेरे अँग घायल हो गये हैं। वेदना से अन्तःकरण चीत्कार करने लगा है।
दया सिन्धु! सुनती हूँ कि तुम्हारी दया से यह समस्त विश्व परिपूर्ण हो रहा है । पापी और दुष्ट जीव भी अनायास ही उस दया का उपभोग करते हैं। गणिका, गीध, अजामिल तर गये, तो क्या मैं न तर सकूँगी? प्रेम रूप परमात्मा! तो क्या मैं न तर सकूँगी ? प्रेम रूप परमात्मा ! क्या आपके दर्शन मुझे न हो सकेंगे ? मेरा परित्राण न होगा?
करुणावतार! अब अधिक मत तरसाओ! अधिक परीक्षा मत लो, मेरी भुजाओं में बल नहीं है। नौका को खेकर आपके मन्दिर तक ले जाने की मुझमें शक्ति नहीं है। नाथ! आप ही गरुण पर चढ़ कर मेरे उद्धार के लिये चले आओ । आप ही मेरी भुजा पकड़ कर पार कर दो।
मेरे आराध्य! आप घट घट वासी हैं। मेरे अन्तराल में व्याप्त हो रहे हैं। किससे कहूँ और क्या कहूँ? संसार के माया मोहों से त्रस्त होकर आपकी शरण आई हूँ। आप मुझे पार कर दीजिए। अशान्ति के भय सागर में से उबार कर अपने शाँतिदायी चरणों में मुझे शरण दे दीजिए। मेरे अन्तःस्थल में प्रकट हूजिए। इस घनीभूत अन्धकार में प्रकाश की सुनहरी किरणें बिखेर दीजिए मेरे सर्वस्व !