(श्री महादेव प्रसाद शर्मा ‘प्रिय’ काशी)
तिमिराच्छादित उर अन्दर प्रभु,
ज्योति-अखण्ड जला दो।
मोह-निशा के नन्दन-वन में,
बिहर रहा मद से परिपूरित-
ध्यान न जिसका तुम में,
उसका -विष-सा राग भुला दो।
तिमिराच्छादित उर अन्दर प्रभु,
ज्योति-अखण्ड जला दो।
पद पद पर ‘प्रिय’ पीड़ित होता,
विषय-भोग की विषम-वात से-
बुझते-से इस लघु दीपक को-
कर से स्नेह पिला दो।
तिमिराच्छादित कर अन्दर प्रभु !
ज्योति अखण्ड जला दो॥
ज्योति अखण्ड जला दो॥