आत्मा क्या है?

February 1941

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(स्व॰ विवेकानन्दजी महाराज)

मनुष्य की आत्मा क्या है? दार्शनिकों के एक समुदाय का मत है कि एक सत्ता ईश्वर की है और उसके अतिरिक्त अपरिमित आत्मायें हैं, जो रूप, गुण तथा अन्य समस्त बातों में उस ईश्वरीय सत्ता-ब्रह्म -से सर्वथा भिन्न हैं। यह सिद्धान्त है। इसके उत्तर में एक दूसरे सम्प्रदाय ने कहा कि आत्मा एक अत्यन्त अपार्थिव सत्ता का अंश है। मानो यह शरीर स्वयं एक छोटा सा संसार है। इस शरीर के अन्तराल में मन और बुद्धि हैं और इन दोनों ही के अन्तराल में आत्मा ठीक इसी प्रकार यह सारा संसार एक शरीर है। इस के अन्तराल में आत्मा। जिस तरह यह शरीर विश्वव्यापी शरीर का एक अंश है, उसी तरह यह मन विश्व मन का तथा आत्मा का एक अंश है। इस तरह का सिद्धान्त विशिष्टाद्वैत वाद के नाम से प्रसिद्ध है।

अब हम यह जानते हैं कि विश्व व्यापी आत्मा अनंत है। परन्तु भला अनन्तता के खण्ड कैसे हो सकते हैं? वह तोड़ा कैसे जा सकता है? उसमें विभाग कैसे होगा ? यह कहना कि मैं उस अनन्त का एक कण हूँ, बहुत ही कवित्वमय है। परन्तु विवेकशील मन के लिये यह बात एक बहुत ही बेतुकी है। अनन्त को विभक्त करने का तात्पर्य क्या है? क्या कोई परिमेय पदार्थ है, जिसे आप खण्ड 2 विभक्त कर सकेंगे? जिस वस्तु में परिणाम नहीं है, जिसे हम नाप नहीं सकते, उसके खण्ड भी नहीं किये जा सकते जिससे खण्ड करना संभव है, उससे फिर अपरिमेयता नहीं रह जाती है। इसका निष्कर्ष यह निकला कि आत्मा जो कि विश्व व्यापी है वह ‘तुम’ हो और तुम एक खण्ड नहीं, बल्कि उसके पूर्ण अंश हो। तुम ईश्वर के पूर्ण अंश हो। परन्तु ये सब विभिन्नतायें क्या हैं? इस संसार में हमें लाखों विभिन्न आत्मायें मिलती हैं। ये सब क्या हैं? जिस समय पानी के लाखों बुदबुदों पर सूर्य का प्रतिबिम्ब पड़ता है, उस समय उसमें से हर एक सूर्य की प्रतिमूर्तियाँ दिखाई देती हैं। हर एक बुदबुदे में सूर्य की अविकल मूर्ति परिलक्षित होती है। इस प्रकार उस समय हमें लाखों सूर्य दिखाई देते है, यद्यपि वास्तविक सूर्य केवल एक ही है। इस प्रकार यह माया विशिष्ट आत्मा जोकि हममें से प्रत्येक प्राणी के अन्तःकरण में विद्यमान है, ईश्वर की प्रतिमा मात्र है। इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। वास्तविक सत्ता जो कि अन्तराल में है, वह एक मात्र ईश्वर है। उसके समीप हम सभी लोग एक हैं।

इस विश्व ब्रह्माण्ड में आत्मा केवल एक है और वही, हम, तुम संसार के अन्य समस्त प्राणियों के शरीर में प्रतिबिम्बित होती है और वह भिन्न-भिन्न आत्मा के रूप में प्रदर्शित होती है। परन्तु हम यह बात नहीं जानते। हमारी धारणा है कि हम सब एक दूसरे से भिन्न हैं और उससे-ईश्वर से भिन्न हैं। जब तक हमारी यह धारणा बनी रहेगी, तब तक संसार से दुखों का भी अन्त न होगा। यह भ्रान्ति है। इसके अतिरिक्त दुःख क्लेश और बहुत बड़ा कारण भय है।

भला एक व्यक्ति दूसरे के स्वार्थ का विघातक क्यों बनता है? कारण वह डरता है कि मैं यथेष्ट सुख न प्राप्त कर सकूँगा। मनुष्य को भय रहता है यथेष्ट धन न प्राप्त कर सकूँगा। इस भय के ही कारण वह दूसरों को हानि पहुँचाता है, इसी से वह दूसरों को धोखा देता है, ठगता है। यदि समस्त विश्व में केवल एक मात्र सत्ता होती तो, भला इस प्रकार का भय क्यों होता ? यदि मेरे ऊपर वज्र गिर पड़े, तो मैं अपने ही ऊपर स्वयं भी गिर पड़ता हूँ, क्योंकि इस समस्त विश्व में मैं ही एक मात्र सत्ता हूँ। यदि प्लेग आता है, तो वह मैं हूँ, यदि कोई सिंह आता है, तो मैं हूं, यदि मृत्यु आती है, तो वह मैं हूँ। मैं जन्म और मृत्यु दोनों ही हूँ।

विश्व में दो सत्ताओं का अस्तित्व मानने पर भय का संचार होता है। इस तरह का उपदेश हम सदा से सुनते चले आ रहे हैं कि एक दूसरे को प्रेम करो। किस लिए? हमें प्रत्येक व्यक्ति को प्रेम दृष्टि से क्यों देखना चाहिए? वह इसलिए कि मैं तथा संसार के अन्य समस्त प्राणी अभिन्न हैं। मैं अपने भाई से प्रेम क्यों करूं? इसलिए कि वह और मैं एक हूँ। इस प्रकार समस्त विश्व के सुख-दुख को समान मानने में ही यह एकता हैं। हमारे पैरों से कुचल जाने वाले छोटे से छोटे कीड़ों से लेकर सृष्टि के बड़े से बड़े प्राणी तक पृथक-पृथक शरीर धारण करते हुए भी एक ही जीव हैं। सभी मुखों द्वारा तुम खाते हों, सभी हाथों के द्वारा तुम काम करते हो और सभी नेत्रों के द्वारा तुम देखते हो। इन लाखों शरीरों के द्वारा तुम स्वास्थ्य का उपयोग करते हो, तथा रोगों की यंत्रणा भी सहन करते हैं। जब मन में हो इस तरह की भावना आ जाती है और हम इसका अनुभव करने लगते हैं, तब दुखों क्लेशों और भयों का अन्त हो जाता है।


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