कर्तव्य-पालन

February 1941

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(पंडित अनन्तराम दुबे ‘प्रभात’ सिवनी)

आप एक विद्यालय खोलते हैं, विद्यालय खोलने के पीछे आपका उद्देश्य रहता है कि लोग वहाँ अच्छी अच्छी शिक्षाएँ प्राप्त करें। विद्यार्थियों का उच्च विद्या ग्रहण करें। पाठशाला का कार्य सुचारु रूप से चले, इसलिये कुछ नियम बना देते हैं और उन नियमों का पालन करना प्रत्येक के लिये अनिवार्य सा हो जाता है। जो उन नियमों का उल्लंघन करता है, उसे दंड दिया जाता है जो नियमों का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण करता है, वह परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है अर्थात् उसके ध्येय की पूर्ति हो जाती है।

ठीक इसी प्रकार सृष्टि का हाल है। ईश्वर ने किसी विशेष उद्देश्य से इस सृष्टि की रचना की है। ईश्वर चाहता है कि प्राणी इस जग में अच्छे अच्छे कार्य करे और अन्त में परम विकास मोक्ष को प्राप्त हों। संसार के प्रायः सभी मतों (धर्मों) का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति ही है । अपनी सृष्टि का कार्य ठीक रीति से चले, इसलिये ईश्वर ने कुछ नियम बना दिये हैं, जिनका पालन करना प्रत्येक जीवधारी का ‘कर्तव्य’ है। जिसने भी, जरा भी, अपने कर्तव्यों की अवहेलना की कि उसे प्रकृति के दंड का भागी बनना पड़ा। जो इन ईश्वर दत्त नियमों का पालन करते हुए अपना कार्य करता है, उसे ही सफलता मिलती है। उसे अपने जीवन के प्रधान उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। साराँश यह कि जिन कार्यों के करने से ‘निर्वाण’ प्राप्त हो जावे, उनका करना मनुष्य का ‘कर्तव्य’ है और इसके विपरीत ‘अकर्तव्य’ ।

कर्तव्य और अकर्तव्य की जाँच करने के लिये सब से सुगम तरीका एक ही है। हमें ईश्वर ने ऐसी शक्ति प्रदान की है, हमें भले बुरे अथवा धर्म अधर्म का ज्ञान कराती है। हमारी प्रवृत्ति की वह बुरे कर्मों से छुड़ा कर सुकर्मों में लगाती हैं। जब चोर चोरी करने जाता है, तब वह शक्ति उसे रोकती है- यह कार्य मत करो ‘यह अन्याय है’ पर प्रायः लोग इस पुकार पर कान नहीं देते और इस तरह ईश्वरीय नियमों को तोड़ दुख भोगते हैं। जिन कार्यों को करने की हृदय स्वीकृति दे, वही मनुष्य का कर्त्तव्य अथवा धर्म है और हृदय जिन कार्यों को करने की सलाह न दे, उसे नहीं करना चाहिये क्योंकि वे अधर्म या अकर्तव्य हैं।

जो मनुष्य अपने कर्तव्यों का यथोचित रीति से पालन करता है, उस सदाचारी मनुष्य को कभी भी कोई दुख नहीं सहना पड़ता, क्योंकि वह ईश्वर की, इच्छानुसार कार्य करता है, इसलिये ईश्वर सदैव उस पर दया दृष्टि रखते हैं। प्रायः ऊपर से देखने पर सदाचारी पुरुष निर्धन और दुखी मालूम होते हैं, पर वास्तव में यह बात नहीं है। सदाचारी पुरुष में असाधारण दैवी शक्ति होती ही है। जिस पुरुष में वह दैवी शक्ति है, वह दुखी कैसा ? सदाचारी मनुष्य निर्धन तो हो ही नहीं सकता। सच पूछा जाय, तो सच्चा खजाना सदाचारी ही के पास है। उसका वह खजाना कभी खाली नहीं होता, उसे खर्च करने पर बढ़ता ही जाता है। सदाचारिता के कार्य करने का फल कितना मीठा होता है, यह तो सदाचारी पुरुष ही जानता है। जरा से भी सदाचारिता के विचारों का चिन्तन करने से ही आत्मा को अपार शाँति और शीतलता प्राप्त होती है। दुष्टों को सदा अपने दुश्मनों का भय बना रहता है कि कहीं कोई हमारा अनिष्ट न कर दे, पर सदाचारी के पास यह सब बातें कहाँ, वहाँ न तो कोई दोस्त है, न दुश्मन। उसके लिये तो सारा संसार एक सा है।

सदाचार से प्राप्त होने वाला सुख स्थायी और मूल्यवान है, इसलिए ‘कर्तव्य पालन’ रूपी कीमत चुकाने पर ही मिलता है, किन्तु झूँठी और नकली चीजों से सारा बाजार भरा पड़ा है।


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