(पं॰ प्रेम नारायण शर्मा, लश्कर)
उस व्यक्ति का संसार में नर देह धारण व्यर्थ है।
जो दूसरों के साथ पर उपकार में असमर्थ है॥
निज पेट को तो आदमी क्या श्वान भी भरते सदा।
इसमें बड़ाई क्या हुई? यदि जोड़ ली कुछ संपदा॥
निज पूर्वजों के विमल यश का भी तुम्हें कुछ ज्ञान हो।
मा भारती के पुत्र हो, ऋषि रक्त की संतान हो॥
फिर स्वार्थ साधन, दासता, दुख दीनता में व्यस्त क्यों?
मृगराज इन लघु रज्जुओं में बद्ध क्यों? संग्रस्त क्यों?
ओ, वीर ! उठ!! नर देह के कुछ कर्म कर, उपकार कर!
पोत, अपना और पराया पार कर, उद्धार कर!!