साधना का रहस्य

December 2002

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मनुष्य का अन्तःकरण दर्पण की भाँति है। सुबह से साँझ तक इस पर धूल जमती रहती है। लगातार इस धूल के जमते रहने से अन्तःकरण का दर्पण अपने स्वाभाविक गुणों को गंवा देता है। और यह सच्चाई सर्वविदित है कि अन्तःकरण की अवस्था के अनुरूप ही मनुष्य को ज्ञान होता है। अन्तःकरण का दर्पण जिस मात्रा में स्वच्छ है, उस मात्रा में ही सत्य उसमें प्रतिबिम्बित होता है।

सूफी सन्त जलालुद्दीन रुमी से किसी व्यक्ति ने अपनी मानसिक चंचलता का दुखड़ा रोया। उसकी परेशानी थी कि साधना में उसका मन एकाग्र नहीं होता। किसी भी तरह से उसका ध्यान नहीं जमता। रुमी ने मुस्कराते हुए उसे अपने एक मित्र साधु के पास यह कहकर भेजा- जाओ और उनकी समग्र दिनचर्या को बड़े ध्यान से देखो। वहीं तुम्हें साधना का रहस्य ज्ञात होगा।

निर्देश के अनुसार वह व्यक्ति उस साधु के पास गया। वहाँ जाकर उसे भारी निराशा हुई। क्योंकि वह साधु एक साधारण सी सराय का रखवाला था। साथ ही वह स्वयं भी बहुत साधारण था। उसमें कोई ज्ञान के लक्षण भी दिखाई नहीं देते थे। हाँ, वह बहुत सरल और शिशुओं की भाँति निर्दोष मालूम पड़ता था। उसकी दिनचर्या भी सामान्य सी थी। उस साधु की दिनचर्या की छान-बीन करने पर बस इतना भर पता चला कि वह रात्रि को सोने से पहले और सुबह जगने के बाद अपनी सराय के बर्तनों को अच्छी तरह से धोता-माँजता है।

इस साधु के पास से काफी निराश होकर वह व्यक्ति जलालुद्दीन रुमी के पास लौटा। उसने साधु की दिनचर्या उन्हें बतायी। सूफी सन्त रुमी हँसते हुए बोले, जो जानने योग्य था, वह तुम देख आये हो, लेकिन उसे ठीक से समझ नहीं सके। रात्रि तुम भी अपने मन को माँजो और सुबह उसे पुनः धो डालो। धीरे-धीरे मन-अन्तःकरण निर्मल हो जाएगा। अन्तःकरण के निर्मल दर्पण में परमात्मा अपने आप ही प्रतिबिम्बित होता है। अन्तःकरण की नित्य सफाई ही साधना का रहस्य है। क्योंकि इस स्वच्छता पर ही साधना की सभी विधियों की सफलता निर्भर है। जो इसे विस्मरण कर देते हैं, वे साधना पथ से भटक जाते हैं।


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