अंतर्जगत की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान - योग फलित होता है सम्यक् ज्ञान से

December 2002

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योग सूत्रकार महर्षि पतंजलि एवं महायोगी परमपूज्य गुरुदेव अपनी अनूठी अनुभव संपदा सौंपने के लिए हम सबके बीच आए, जो योग साधक एवं योग के विद्यार्थी इसे ग्रहण कर पाए हैं, उन्हें अपने अंतःकरण में प्रकाश धाराओं के अवतरण की अनुभूति हुई होगी। इन महासिद्धों की अनुभूति कथा उन्हें यौगिक अनुभूतियों एवं यौगिक विभूतियों के वरदान देगी। बस आवश्यकता इस योग कथा के पठन के साथ मनन और निदिध्यासन की है। आवश्यकता इस तत्वचिंतन के गहरे अभ्यास की है। पिछली कड़ी में सभी साधकों को मन की पाँचों वृत्तियों का सामान्य परिचय दिया गया था। यह बताया गया था कि ये पंचवृत्तियां मन की पाँच शक्तियाँ और विभूतियाँ हैं। इनके सम्यक् प्रयोग से योग साधक बहुत कुछ आश्चर्यजनक उपलब्धि हस्तगत करने में सक्षम हो सकते हैं।

अब अगले सूत्र में पतंजलि इन पंचवृत्तियों में पहल वृत्ति प्रमाण के बारे में सुस्पष्टता से समझाते हैं। वह कहते हैं, प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि (1/7)। सम्यक् ज्ञान अथवा प्रमाणवृत्ति के तीन स्रोत हैं- प्रत्यक्ष, बोध, अनुमान और योग सिद्ध आप्तपुरुषों के वचन। यही वे तीन विधियाँ हैं, जिनके द्वारा याग साधक को ठीक-ठीक ज्ञान हो सकता है। इनमें पहली विधि प्रत्यक्ष बोध की हैं। यह सम्यक् ज्ञान का साक्षात्कार। ज्ञाता और ज्ञेय के बीच किसी मध्यस्थ की जरूरत नहीं रहती। सत्य को समझाने बतलाने के लिए किसी दुभाषिये की आवश्यकता नहीं रह जाती।

बात बिल्कुल साफ है, सरल और सीधी है, फिर भी अनेकों अड़चनें हैं इसे समझने में। प्रायः योग सूत्र के भाष्यकारों, वार्तिककारों ने इस सीधी, सरल और साफ बात की बड़ी गलत व्याख्या की है। उन्होंने प्रत्यक्ष बोध को इंद्रिय बोध की सँकरी सीमा में समेट दिया है। उदाहरण के लिए कई आचार्यों का कहना है कि प्रत्यक्ष वही है, जो आंखों के सामने है, लेकिन यह ठीक-ठीक आमने-सामने कहाँ हुआ। आँखें तो बीच में हैं ही। इसी तरह यदि कुछ सुना जाता है, तो कान माध्यम बनते हैं और ये आँखें या कान गलत खबर भी तो देख सकते हैं। इंद्रिय बोध- सत्य बोध ही हो, यह कोई जरूरी तो नहीं। इंद्रियों में थोड़ा सा भी दोष आ गया, तो सारी खबर गलत मिलती है। कुछ का कुछ दिखाई सुनाई देने लगता है।

फिर प्रत्यक्ष बोध क्या है? इस सवाल के उत्तर में परमपूज्य गुरुदेव का चिंतन सूत्र कहता हैं, ‘चेतना प्रत्यक्ष’। यानि कि हमारी चेतना बिना किसी इंद्रिय माध्यम के सब कुछ साफ-साफ आमने-सामने देखे। गहरे ध्यान अथवा समाधि की भावदशा में ही साधक को यह स्थिति प्राप्त होती है। देखने के लिए जानने के लिए, किसी माध्यम की जरूरत नहीं रह जाती। किसी इंद्रिय की तो बिल्कुल भी नहीं। महात्मा बुद्ध महर्षि रमण, श्री अरविंद एवं परमपूज्य गुरुदेव जैसे महायोगी इसी रीति से सत्ता और सत्य की प्रत्यक्ष अनुभूति करते हैं। इसमें इंद्रियों की किसी तरह की कोई भागीदारी नहीं होती। ज्ञाता और ज्ञेय एकदम आमने सामने होते हैं। उनके बीच कुछ और नहीं होता। केवल प्रत्यक्षता ही सत्य अनुभव बनकर प्रकट होती है।

परमपूज्य गुरुदेव कहते थे कि प्रत्यक्ष को चेतना प्रत्यक्ष मानने से ही महर्षि पतंजलि जैसे महायोगी का भाव प्रकट होगा। यदि हम प्रत्यक्ष को केवल इंद्रिय प्रत्यक्ष की सीमा में सिकोड़ दें, तो हम उन्हें चार्वाक जैसे नास्तिक एवं जड़वादी दार्शनिकों की श्रेणी में खड़ा कर देंगे, क्योंकि चार्वाक दर्शन के प्रवर्तक बृहस्पति का प्रमुख मत यही तो है कि जो कुछ इंद्रियाँ अनुभव करती है, जो नजरों के सामने है, वही प्रमाण है। चार्वाक को भारतीय भौतिकवाद का स्त्रोत माना जाता है। इस दर्शन में बुद्धि चातुर्य तो है, पर चेतना का बोध नहीं है। चार्वाक कोरे बुद्धिवादी है, जबकि महर्षि पतंजलि सम्यक् बोध प्राप्त महायोगी है। उनके भाव को ठीक-ठीक समझने के लिए किसी महायोगी को बोध ही सहायक बन सकता है। परमपूज्य गुरुदेव हमें सहायता प्रदान करते है।

वह कहते है कि गहरे ध्यान अथवा समाधि में हमारी अंतर्चेतना जिस ज्ञान की अनुभूति करती है, वही सत्य है। उसी को प्रमाण माना जा सकता है। इंद्रियों से हमें जो जानकारी मिलती है, वह प्रायः आधी-अधूरी और दोषग्रस्त होती है। यही कारण है कि इंद्रियाँ हमें भटकाती और भ्रमित करती है। काम-क्रोध, लोभ-मोह की दशाएँ इंद्रियों को जब-तब आच्छादित करती है और परिणाम में व्यक्ति को कुछ-का-कुछ समझ में आने लगता है। कभी-कभी यही दशा नशेड़ी व्यक्ति की होती है। इस संबंध में गुरुदेव अपने पास का किस्सा सुनाया करते थे। उनके गाँव के पास के गाँव में एक ठाकुर बच्ची सिंह रहा करते थे। उनकी अफीम खाने की आदत थी। अफीम खाने के बाद वे नशे में काफी ऊट-पटाँग हरकतें करते थे। एक बार उन्होंने शाम को ज्यादा अफीम खा ली। नशा गहरा होने पर वे कहने लगे, देखो अब मेरे पास उड़ने की ताकत आ गई है। अब मैं उड़ सकता हूँ। ऐसा कहते हुए वह अपने मकान की छत से हाथ फैलाए हुए उड़ने की मुद्रा से नीचे कूद पड़े। सिर पर गहरी चोट लगने से उनकी मृत्यु हो गई। बेचारे वह जान भी नहीं सके कि नशे के असर में वह अपनी इंद्रियों द्वारा धोखा खा गए।

इंद्रियाँ भरोसे काबिल है भी नहीं। बिना नशे के वे हमें भटकती और भ्रमित करती रहती है। जो बचपन में समझ में आया, वह किशोरावस्था में बेकार नजर आता है। किशोरावस्था की बाते प्रौढ़ावस्था में बेमानी हो जाती हैं। यही सिलसिला चलता रहता है। ऐसे में सवाल उठता है कि प्रत्यक्ष बोध आखिर है क्या? तो जवाब यह है कि प्रत्यक्ष बोध वह है, जिसे इंद्रियों के बिना जाना जा सके। इसलिए पहला सम्यक् ज्ञान केवल अपनी आँतरिक सत्ता का हो सकता है, क्योंकि इसके लिए किसी भी इंद्रिय सहायता की जरूरत नहीं है। कोई भी गहरे ध्यान अथवा समाधि में उतरकर इसे पा सकता है।

प्रमाणवृत्ति अथवा सम्यक् ज्ञान का दूसरा स्त्रोत अनुमान है। यह उनके लिए है, जो अभी प्रत्येक बोध के लायक नहीं हुए है। जिनकी स्थिति अभी ध्यान और समाधि की गहराई में प्रवेश करने की नहीं है। जो सम्यक् ज्ञान पाना चाहते है, अनुमान उनके लिए एक संभावना है। यह अनुमान क्या है? परमपूज्य गुरुदेव के शब्दों में यह है विवेकयुक्त तर्क। तर्क के बारे में गुरुदेव का कहना था कि तर्क दुधारी तलवार की तरह है, इसके इस्तेमाल के लिए गहरे विवेक की जरूरत है। विवेक के अभाव में यह सत्य ज्ञान की प्राप्ति में सहायक बनने की बजाय असत्य ज्ञान का पोषक भी हो सकता है। उदाहरण के लिए, तर्क का प्रयोग चार्वाक एवं मार्क्स ने भी किया और आचार्य शंकर एवं महर्षि अरविंद ने भी। परंतु एक में विवेक का अभाव है तो दूसरे में विवेक का प्रभाव। इस स्थिति में इनके दर्शन और दार्शनिकता का पूरा-का-पूरा ढाँचा बदल गया है।

पतंजलि का कहना है कि सम्यक् ज्ञान के लिए हमें सम्यक् तर्क करना आना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि हम इस विराट् सृष्टि को देखें, गौर से निहारें और तर्क का सम्यक् प्रयोग करें, तो ईश्वर के अस्तित्व का अनुमान होता है। यह ठीक है कि ईश्वर की सत्ता इंद्रिय प्रत्यक्ष नहीं है। ईश्वर कही दिखाई नहीं देता, नजर नहीं आता। किंतु यदि सम्यक् तर्क का प्रयोग करे, यह सोचे कि विश्व-ब्रह्माँड की व्यवस्था कितनी सुसंगत है, कितनी उद्देश्यपूर्ण है, तो इस निश्चय पर जरूर पहुंचेंगे कि ईश्वर के रूप में इसकी संचालक सत्ता का भी अस्तित्व होगा। इस तरह सम्यक् तर्क से ईश्वरीय सत्ता का बड़ा ही स्पष्ट अनुमान हो सकता है। बाद में योग साधना के द्वारा उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति भी पाई जा सकती है।

अब है सम्यक् ज्ञान का तीसरा स्त्रोत, आगम। यह सबसे अधिक सौंदर्यपूर्ण है। आगम को सम्यक् ज्ञान के स्त्रोत के रूप में स्वीकारना महर्षि पतंजलि की अपनी विशिष्टता है। यह आगम क्या है? महर्षि कहते है कि आगम महायोगियों के वचन है। ये ऋषियों की अनुभूति को अभिव्यक्ति देने वाले शब्द है। इस बात को थोड़ा और स्पष्ट रीति से कहे, तो आगम उन महान विभूतियों के वचन है, जो जान चुके है। जो लक्ष्य तक पहुँच चुके है, जो कैवल्य ज्ञान को पा चुके है, जो ईश्वरीय सत्य का साक्षात्कार कर चुके है, उनके शब्द भी सम्यक् ज्ञान के स्त्रोत है।

परंपरा में आगम को वेद कहा जाता है। यह ठीक भी है, क्योंकि वेद सत्यद्रष्टा ऋषियों के वचन है, परंतु रूढ़ियों से ग्रस्त मूढ़जन वेद के विराट् स्वरूप को केवल कतिपय मेंत्रडडडड समुच्चय तक ही समेट देते है। यह ठीक नहीं है। आगम सत्यद्रष्टा ऋषियों के वचन है। भले ही संस्कृत में कहा गया हो अथवा किसी अन्य भाषा में। व्यापक अर्थों में आगम में कबीर की साखी, मीरा के पद, श्रीरामकृष्ण का वचनामृत, महर्षि रमण के वचन, योगिराज अरविंद का दिव्य जीवन संदेश और स्वयं परमपूज्य गुरुदेव के स्वर सभी कुछ समाहित हो जाता है। इन सत्यद्रष्टा ऋषियों-संतों के वचनों पर श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान का स्रोत है। योगपथ पर चलने वाले साधकों के लिए सम्यक् ज्ञान का यह तीसरा स्त्रोत सबसे अधिक महत्वपूर्ण एवं व्यावहारिक है। योग साधना करने वालों के लिए यह भी कहा जा सकता है कि अपने सद्गुरु के वचनों पर परिपूर्ण श्रद्धा-सम्यक् ज्ञान का स्त्रोत है। सद्गुरु के वचन कभी-कभी बड़े अटपटे होते है, परंतु वे प्रेम लपेटे होते है। उन्हें ठीक-ठीक समझ न पाने पर भी यदि कोई साधक उन पर समग्र श्रद्धा के साथ आचरण करने लगता है, तो उसे अपने आप ही सम्यक् ज्ञान हो जाता है।

सद्गुरु के वचनों के संबंध में तर्क का कोई स्थान नहीं है, क्योंकि ये चेतना के जिस तल से कहे गए है, वहाँ तर्क-बुद्धि की पहुँच ही नहीं है। यदि इस बारे में तर्क किया जाए, तो हम वह सब गँवा बैठेंगे, जो हमें हमारे सद्गुरु देना चाहते है, क्योंकि वे न केवल यह जानते है कि उन्हे हम शिष्यों को क्या देना है? बल्कि वे यह भी जानते है कि जो हमारे लिए देने योग्य है, वह सब किस तरह से देना है, इसलिए केवल और केवल भक्तिपूर्ण श्रद्धा ही एकमात्र उपाय है। महर्षि पतंजलि कहते है कि सद्गुरु जो कहे, जिस भी तरह कहे, उसे परिपूर्ण श्रद्धा के साथ करने पर सम्यक् ज्ञान सुनिश्चित है। इसमें कोई संदेह नहीं। प्रमाणवृत्ति के ये तीनों स्त्रोत हमारी अंतर्यात्रा में सहायक है। इसके अगले सूत्र में महर्षि ने विपर्यय वृत्ति की चर्चा की है, जो अंतर्यात्रा में प्रधान बाधा है। इसकी विस्तृत व्याख्या अखण्ड ज्योति के अगले अंक में।


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