अब कमर कस ही लें व ज्ञानयज्ञ में भावभरी भागीदारी करें

December 2002

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अखण्ड ज्योति पत्रिका अधिकाधिक तक पहुँचे, यही हमारा लक्ष्य हो

अखण्ड ज्योति पत्रिका विगत 65 वर्षों से निरंतर प्रकाशित हो, अब इस माह के साथ 66वें वर्ष में प्रवेश कर रही है। गिनी चुनी पत्रिकाएँ ही हैं, जो इतनी लंबी यात्रा पूरी कर पाई हैं। गंगा गंगोत्री से निकलती है, तो उसकी धारा इतनी कम चौड़ाई की होती है कि कोई लंबी कूद वाला खिलाड़ी उसे पल में छलाँग जाए, पर ज्यों-ज्यों यह आगे बढ़ती है, देवप्रयाग में अलकनंदा से मिलती हैं, मार्ग में झरनों से अनेकानेक छोटी सरिताओं से मिलकर मैदानी क्षेत्र में उतरती है, तो इसका विराट् स्वरूप देखते बनता है। और भी विराटता देखनी हो तो पटना मोकामा क्षेत्र में इसे स्टीमर से पार कर देखिए या पटना के विशाल गाँधी सेतु पर खड़े होकर उसका विहंगम दृश्य देखिए। अखण्ड ज्योति भी ज्ञान की गंगा को लेकर 1937-38 में प्रकाशित होकर आरंभ हुई एवं इसी तरह बढ़ते बढ़ते उस स्वरूप में आ गई, जहाँ ढाई सौ से बढ़कर अब छह लाख उनके हिंदी में एवं इतने ही अन्य भाषाओं में ग्राहक हैं। इससे पाँच से दस गुना पाठक माने जाने चाहिए, जो इसे नियमित पढ़ते हैं। लाखों व्यक्तियों के जीवन को इसने बदला है, उनका कायाकल्प कर दिया है। यह वस्तुतः इसी अखण्ड दीप की साक्षी में गुरुसत्ता की प्राण चेतना के रूप में हमारे समक्ष आती है, जो विगत 1926 से सतत प्रज्वलित है एवं इन दिनों शाँतिकुँज गायत्री तीर्थ में प्रकाशित हो करोड़ों व्यक्तियों को आलोकित कर रहा है। जिस जिसने इस पत्रिका को पढ़ा है व इसके प्रतिपादनों को आत्मसात किया है, वह प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। आस्था संकट, साँस्कृतिक प्रदूषण, वैचारिक विभ्रम के इस युग में आस्था का एक दीप जलाए यह पत्रिका निरंतर प्रकाशित हो रही है। यह पत्रिका नहीं, एक आँदोलन है, एक मिशन है एवं अस्सी वर्षों तक की गई एक साधक की साधना का, युगऋषि के चिंतन का नवनीत है। इसे पढ़ना पढ़ाना एक प्रकार का पावन पुण्य माना जाना चाहिए।

विज्ञान और अध्यात्म के समन्वयात्मक प्रतिपादनों निष्कर्षों को इस पत्रिका ने जिस तरह प्रस्तुत किया है, उसने लाखों शोधकर्ताओं को नई दिशा दी है। अध्यात्म के प्रति लोगों की रुचि जागी है एवं अब युवापीढ़ी तेजी से भारतीय संस्कृति को अंगीकार करती नजर आती है। पिछले दिनों इसी वर्ष हमने गायत्री जयंती की वेला में ‘देवसंस्कृति विश्वविद्यालय विशेषाँक’ तथा परमवंदनीया माताजी के महाप्रयाण की बेला में ‘मातृसत्ता विशेषाँक’ प्रकाशित किए। इससे पूर्व भी प्रतिवर्ष दो विशेषाँक विभिन्न विषयों पर प्रकाशित किए जाते रहे हैं। यह कार्य कोई प्रोफेशनल स्टाफ नहीं करता, साधना को जीवन में उतारने वाले भारतीय संस्कृति को हर श्वास में जीने वाले अनुदान पाए एवं उनके ज्ञान के विराट् पिटारे से थोड़ा कुछ आत्मसात किया है। वस्तुतः बिना साधना किए उस स्तर को बनाए रखना संभव नहीं, जो गुरुसत्ता ने स्थापित किया था। अभी भी प्रेरणा के अनंत ज्ञान के स्त्रोत वे ही हमारे गुरुवर हैं, जिनकी सूक्ष्म व कारण सत्ता की उपस्थिति प्रत्यक्ष अहर्निश होती रहती है।

आज पत्रिकाओं के दाम कागज, प्रिंटिंग की क्वालिटी पोस्टेज बढ़ते चले जाने के कारण कितने बढ़ गए हैं, यह सभी प्रत्यक्ष देख सकते हैं। ‘इंडिया टुडे’, ‘आउटलुक’ पत्रिकाओं के महँगे हिंदी संस्करण सभी बड़े चाव से पढ़ते हैं व लौकिक क्षेत्र के बारे में जानकारी लेते हैं। आज के इस प्रतिस्पर्द्धा के युग में प्रायः घाटा सहते हुए भी विगत तीन वर्षों से यह पत्रिका मात्र रु. 72 वार्षिक (विदेश के लिए रुपये 750 प्रतिवर्ष तथा आजीवन भारत में रुपये 900) चंदे के आधार पर 68 पृष्ठों के आकार में प्रकाशित हो रही है। परिजनों पर भार न पड़े, इसलिए इस वर्ष भी चंदा बढ़ाया नहीं जा रहा। पत्रिका माह आने से पूर्व ही सबको उपलब्ध हो जाती है। गेटअप में भी निरंतर सुधार किया जा रहा है। जहाँ तक संभव हो, प्रेरणादायी पैनेल एवं चित्र लगभग हर लेख में देने का प्रयास किया जा रहा है। इस वर्ष अनेकानेक विषय लेने का मन है।

अब हमारे परिजनों का यह कर्तव्य है कि ग्राहक संख्या इस संगठन-सशक्तीकरण वर्ष के उत्तरार्द्ध विद्या विस्तार अवधि में न्यूनतम पाँच गुना कर दें। इसके अतिरिक्त आजीवन पाठक जितने अधिक बढ़ाए जाएँगे, उतनी ही सुनिश्चितता ज्ञान प्रसार की निरंतरता की होती चली जाएगी। जिसके घर हर माह पत्रिका पहुँचेगी, वह घर साँस्कृतिक चेतना से अनुप्राणित होता चला जाएगा। वर्ष के अंत व 2003 के आगमन की वेला में यही अनुरोध है कि हम अभी से पाठक ग्राहक बढ़ाने के अभियान में लग जाएँ। यही गुरुवर को सच्ची श्रद्धाँजलि भी हैं।


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