गुरुगीता- 5 - गुरु चरण व रज का माहात्म्य

December 2002

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गुरुगीता के महामंत्र साधकों का पग-पग पर मार्गदर्शन करते हैं। साधना की सुगम, सरल, सहज विधियाँ सुझाते हैं। साधकों को इस गुह्यतत्त्व का बोध कराते हैं कि तुम क्यों इधर-उधर भटक रहे हो, क्यों व्यर्थ में परेशान हो? परम कृपालु सद्गुरु के होते हुए तुम्हें किसी भी तरह से भटकने या परेशान होने की जरूरत नहीं है। सद्गुरु के प्रति भाव भरा समर्पण सभी भव रोगों की अचूक दवा है। समस्याएँ भौतिक हों या आध्यात्मिक, लौकिक हों या अलौकिक गुरुचरणों में सभी के सारे समाधान समाए हैं। पिछली कड़ी में गुरुचरणों की इसी महिमा की चर्चा की गई थी। गुरु चरणों की कृपा से गुरुभक्त साधक को साधना का परम प्राप्य अनायास ही सुलभ हो जाता है। गुरु चरण सेवा से जीव ‘अयमात्माब्रह्म’ के दुर्लभ बोध को सुगमता से पा लेता है।

गुरुभक्ति की इसी भावकथा को आगे बढ़ाते हुए देवों के भी परम देव भगवान् सदाशिव आदिमाता पार्वती से कहते हैं-

गुरुपादाम्बुजं स्मृत्वा जलं शिरसि धारयेत्। सर्वतीर्थावगहस्य सम्प्राप्नोति फलं नरः॥12॥

शोषकं पापपंकस्य दीपनं ज्ञानतेजसाम्। गुरुपादोदकं सम्यक् संसारार्णवतारकम्॥13॥

अज्ञानमूलहरणं जन्मकर्मनिवारणम्। ज्ञानवैराग्यसिद्धर्य्थं गुरुपादोदकं पिबेत॥14॥

सद्गुरु के चरणों का स्मरण करते हुए जल को सिर पर डालने से मनुष्य को सभी तीर्थों के स्नान का फल प्राप्त होता है॥।12॥ श्री गुरु चरणों का जल पाप पंक को सुखाने वाला और ज्ञान तेज के दीपक को प्रकाशित करने वाला है। गुरुचरण जल की महिमा से मनुष्य ठीक तरह से संसार सागर को पार कर जाता है॥1॥ गुरु चरणों का जल पीने से अंतर्भूमि में गहराई से जमा हुआ अज्ञान का महावृक्ष जड़ से उखड़ जाता है। जन्म-कर्म के बन्धन का निवारण होता है। गुरु पादोदक के पान से साधक को ज्ञान-वैराग्य की सहज सिद्धि होती है॥14॥

भगवान् भोलेनाथ के मुख से उच्चरित ये महामंत्र गहरे और गहन भावों से भरे हुए हैं। इनका श्रवण और पठन सम्भव है। सामान्य जनों को कुछ अतिशयोक्ति जैसा लगे। किन्तु जो साधक इस पर मनन और निदिध्यासन करेंगे, उन्हें इन महामंत्रों से सत्य और ऋत् की प्रकाश किरणें फूटती अनुभव होगी। इस अनुभूति के क्षणों में उन्हें ऐसा लगेगा कि जो कुछ इन मंत्रों में है, वह तो मात्र संकेत है यथार्थ तो कहीं और भी अधिक विस्तृत और विराट् है।

इसे सुस्पष्ट रीति से समझाने के लिए इन पंक्तियों में एक गुरुभक्त साधक की अनुभूति कथा प्रस्तुत की जा रही है। यह अनुभूति कथा सम्पूर्णतया सत्य है। यह सत्य घटना श्री अरविन्द आश्रम पाण्डिचेरी के श्रेष्ठ साधक गंगाधरण के बारे में है। अभी कुछ ही वर्षों पूर्व वह अपनी पार्थिव देह को छोड़कर अपने सद्गुरु के चरणों में विलीन हुए। बातचीत के क्रम में उन्होंने अपने साधनामय जीवन का का रहस्य बताते हुए कहा कि श्रेष्ठ सुगम किन्तु सर्वाधिक फलदायी एवं प्रभावोत्पादक साधना अपने सद्गुरु के चरणों का चिन्तन और ध्यान है।

उन्होंने बताया कि जब मैं पाण्डिचेरी आश्रम महर्षि अरविन्द के पास आया, उस समय मेरी उम्र मात्र 17 साल थी। पढ़ा-लिखा कुछ खास था नहीं, सामान्य तमिल बोल पाता था। जिस समय वह अपना अनुभव बता रहे थे उस समय उनकी आयु लगभग 87 साल थी। तो अपने जीवन के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा- श्री अरविन्द से पहली बार मिलने पर उन्होंने पूछा- तुम यहाँ क्यों आए हो? और क्या चाहते हो? उनके इन सवालों के जवाब में मैंने कहा- प्रभु! मैं नहीं जानता कि मैं क्यों आया हूँ, नहीं मालूम मेरी चाहत क्या है? वैसे तो मैं काफी गरीब हूँ, पर मैं इतना कह सकता हूँ कि मैं यहाँ केवल रोटी खाने के लिए नहीं आया।

इस सरल उत्तर पर श्री अरविन्द बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने माताजी से कहा कि यह लड़का अपने योग के लिए तैयार है। इसके बाद गंगाधरण जी को आश्रम के कामों में लगा दिया गया। नाली साफ करना, गौशाला की सफाई करना जैसे साधारण काम उन्हें करने पड़ते थे। विगत यादों को कुरेदते हुए गंगाधरण जी ने बताया- कि मुझे दिए जाने वाले काम तो अतिसाधारण थे। पर मैं श्री अरविन्द के चरणों का चिन्तन करते हुए भक्ति के साथ करता था। काम के प्रति मेरा यही भाव था कि मैं आश्रम के साधारण काम नहीं बल्कि अपने सद्गुरु की व्यक्तिगत सेवा कर रहा हूँ।

दिन-महीने और साल बीतते गए। एक बार जन्म दिवस के अवसर पर माताजी से मिलना हुआ। प्रेमपूर्वक आशीष देते हुए माता जी ने पूछा- बोल, तुझे जन्मदिन के अवसर पर क्या चाहिए? उत्तर में मैंने विनम्रता से कहा, माँ! यदि आप कुछ देना चाहती हैं, तो मुझे आप अपनी और श्री अरविन्द की चरण रज एवं आप दोनों का चरण जल दीजिए। इस भक्तिपूर्व आग्रह को माताजी ने स्वीकार कर लिया। फिर तो हर वर्ष जन्मदिन के अवसर पर यह क्रम बन गया। बाद में चरण रज को सामान्य धूल में मिलाकर और चरण जल को गंगाजल में मिलाकर रखने की मेरी आदत बन गयी। बीतते वर्षों के साथ श्री अरविन्द ने शरीर छोड़ दिया। माताजी भी नहीं रहीं। परन्तु जिस किसी तरह मेरे पास उनकी चरण रज एवं चरण जल बनी रही।

गंगाधरण जी ने बताया कि अपनी पूजा की चौकी पर मैं इन दोनों दुर्लभ वस्तुओं को रखता था। इन्हीं के पास पूजा वेदी पर श्री अरविन्द के दोनों महाग्रन्थ ‘लाइफ डिवाइन’ एवं ‘सावित्री’ भी सजा कर रखे थे। श्री अरविन्द एवं माँ के महानिर्वाण के बाद इन दिव्य वस्तुओं की पूजा मेरे जीवन का आधार बन गयी। पढ़ा-लिखा न होने के कारण और करता भी क्या? लाइफ डिवाइन एवं सावित्री को समझ सकने लायक बुद्धि भी तो नहीं थी मेरी। सद्गुरु चरण रज एवं सद्गुरु चरण जल के साथ इनकी पूजा मेरा नित्य का क्रम था। साथ ही आश्रम के कामों को भी गुरुभक्ति समझ कर करता था।

एक दिन अपने सद्गुरु के बारे में सोचते हुए गंगाधरण जी का हृदय भर आया। वह सोचने लगे कि सत्तरह साल की आयु में आये थे और अस्सी से ज्यादा उम्र होने जा रही है। परन्तु अभी तक कोई विशेष अनुभूति नहीं हुई। यही सोच कर वह पूजा स्थली पर गुरु चरण रज एवं चरण की पूजा करते हुए प्रार्थना करने लगे- हे अन्तर्यामी गुरुदेव, हे जगन्माता! मैं तो आपका अज्ञानी बालक हूँ, पढ़ना-लिखना भी ढंग से नहीं जानता। जो आपने अपना दिव्य ज्ञान लिखा है। उसे मैं पढ़ भी नहीं सकता। हे सर्वसमर्थ प्रभु! मुझे तो बस आपकी कृपा का भरोसा है, उनकी यह भावभरी प्रार्थना अनवरत चलती रही। आँखों से आँसू झरते रहे। पता नहीं कितनी देर तक यह क्रम चला। उन्हें होश तो तब आया जब स्वयं श्री अरविन्द एवं माताजी अपने अतिमानसिक शरीर से उनके पास आए। अतिमानसिक प्रकाश से उनका कण-कण भर गया। श्री अरविन्द ने कृपा करके उन्हें अतिमानसिक जगत् की दिव्य अनुभूतियाँ प्रदान कीं। अपने इस संस्मरण का उपसंहार करते हुए गंगाधरण ने कहा- मुझे तो सब कुछ गुरुचरणों की रज एवं जल ने दे दिया। यह सत्य कथा हमारे-आपके जीवन की भी सत्यकथा बन सकती है। सद्गुरु चरणों की महिमा है ही कुछ ऐसी। इस तत्त्व का और अधिक विस्तार गुरुगीता के अगले अंक में साधक पढ़ेंगे। तब तक साधकगण गुरुगीता के उपरोक्त महामंत्रों के भाव का चिन्तन करें।


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