सभी स्वीकार करते है पुनर्जन्म के सत्य को

December 2002

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मृत्यु के पश्चात् प्राप्त जीवन पुनर्जन्म कहलाता है। यह मूलतः पूर्वी अवधारणा है जो विशुद्ध रूप से कर्म पर आधारित है। विश्व के सभी देशों व धर्मों में पुनर्जन्म की मान्यता को किसी न किसी ढंग से स्वीकार किया गया है। इसका सम्पूर्ण एवं समीचीन विश्लेषण उपनिषदों में मिलता है। पाश्चात्य विद्वानों, दार्शनिकों,मनीषियों का एक बड़ा वर्ग भी इस अवधारणा पर आस्था प्रदर्शित करता है। हालाँकि इनका मत एवं स्वरूप भिन्न-भिन्न होता है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक युग तक पुनर्जन्म की प्राचीन परम्परा विद्यमान है।

पुनर्जन्म की यादें अधिकतर बच्चों में पायी जाती हैं। परामनोवैज्ञानिक स्टीवेन्सन के अनुसार एक हजार बच्चों में से एक बच्चा अपनी पिछली जिन्दगी के बारे में स्मृति रखता है। भारत में यह आँकड़ा 450 में एक है। हेंस टेन डेम ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘एक्सप्लारिंग रिइनकार्नेशन’ में पुनर्जन्म का विस्तृत विवरण दिया है। हैंस ने पुनर्जन्म पर विश्वास रखने वाले छः क्षेत्रों का निर्धारण किया है। प्रथम क्षेत्र में दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया, सेनेगल, घाना तथा इसके आसपास के देश आते हैं। इसी क्षेत्र में दक्षिण पूर्वी तुर्की, लेबनान और उत्तरी इजराइल का भाग आता है। विभाजन की तीसरी रेखा भारत सहित दक्षिण पूर्वी एशिया को दर्शाती है। जिसमें श्रीलंका, बर्मा, थाईलैंड, नेपाल, तिब्बत और वियतमान जैसे देश आते हैं। चौथा क्षेत्र जापान है। पाँचवे क्षेत्र में दक्षिण पूर्व अलास्का आता है। हैंस ने अंतिम क्षेत्र के रूप में पश्चिमी जगत् के यूरोप और अमेरिका को माना है। इन समस्त क्षेत्रों में पुनर्जन्म की मान्यता प्रचलित है।

मनीषी माग्रेट मीड ने अनेकों साँस्कृतिक मान्यताओं एवं परम्पराओं का अध्ययन एवं शोध किया है। एस्कियो एवं वेलीनीज पुनर्जन्म पर विश्वास करते हैं। ये बच्चों को दैवी वरदान मानते हुए इनकी बतायी बातों पर आस्था जताते हैं। अलास्का के लिंगीट एस्किमो के अनुसार दिवंगत आत्मा अपने माता-पिता का चयन स्वयं करती हैं। यह इसे भाग्य नहीं मानते हैं। इनकी नजर में यह एक विशिष्ट चयन प्रक्रिया है। अफ्रीका में भी इस अवधारणा पर आस्था जतायी जाती है। यहाँ पर 900 काले आदिवासी जातियों में से 47 आत्मा की निम्नयोनि में यात्रा को सही मानते हैं। 36 जातियाँ पुनर्जन्म पर प्रगाढ़ आस्था रखती हैं। 12 जातियाँ उपर्युक्त दोनों को स्वीकारती हैं। अफ्रीका में यह सिद्धान्त प्राचीन परम्परा के अंतर्गत आता है जबकि मेटेम साइकोसीस (पशु योनि) आधुनिक मान्यता है। जुलु इजिस्ट के नियमानुसार इसे पूर्णता की प्राप्ति का संकेत कहते हैं। पश्चिम अफ्रीका में इसे शुभ माना जाता है। यहाँ के प्रचलन से पता चलता है कि दिवंगत आत्मा संसार चक्र से मुक्त नहीं होना चाहता। जीव अपने ही परिवार में जन्म लेने की इच्छा प्रकट करता है। ये इसे आत्मा की अनन्त एवं सुखद यात्रा मानते हैं। योरुबा जाति में सत्कर्म को इसका आधार माना जाता है। काँगो, बैगाँगो और बोसाँगो के बच्चों में अपने पूर्व जीवन की स्मृति पायी जाती हैं।

एशिया के बौद्ध व हिन्दुओं में पुनर्जन्म एक दृढ़ मान्यता है। बर्मा के लोगों की मान्यता है कि वर्तमान जीवन मानव के पुनर्जन्म की दृढ़ इच्छा शक्ति का परिणाम होता है। बैलीनीज जीव को उसी परिवार में बारम्बार पैदा होने के प्रति विश्वास करते हैं। यूरोप के सेल्ट मृत्यु के बाद व्हाइट हेवेन प्राप्त करने की बात करते हैं। मृत्यु के पश्चात् जीव विश्राम करता है। गलत कर्म उसे निम्नयोनि में धकेलते हैं जबकि आत्मा की पवित्रता ईश्वर प्राप्ति का पथ प्रशस्त करती है। यह मान्यता अटलाँटिक की देन है जो आयरलैण्ड होते हुए यूरोप पहुँची। ट्यूटोन्स के अनुसार व्यक्ति का जन्म उसी परिवार में ठीक उसी नाम से होता है। डेन्स, नार्स, आइसलैण्डर्स, पूर्वी गोथ, लोम्बाइडियन, लेट्स और सैवसन आदि जातियाँ भी पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकारती हैं। सैक्सन लोगों का मानना है कि मनुष्य को दिव्यत्व प्राप्ति के पूर्व कुछ कालावधि के लिए गुलाब या एक पाण्डुक पक्षी बनना पड़ता है। फीन्स और लैपलैर्ण्स संस्कृति में भी पुनर्जन्म की मान्यता प्रचलित है।

अमेरिका के दक्षिण पूर्व अलास्का और उत्तरपश्चिमी कनाडा के टिंगीट्स लोगों में यह विचार गहराई से जुड़ा हुआ है। इनके अनुसार दिवंगत आत्मा अपने भावी जीवन के लिए परिचय के दायरे में माता का चयन करती हैं। किसी दैवीय दुर्घटना से मृत व्यक्ति अपने परिवार से दूर जाकर जन्म लेता है। इण्डियन और एस्किमो आदिवासियों में भी यह विश्वास देखा गया है। एस्किमो का मानना है कि पाँच योनियों से गुजरने के पश्चात ही दुर्लभ मानव शरीर मिलता है। कनाडा के सान लोग पुनर्जन्म की अवधारणा को अपनाये हुए हैं। उत्तरी अमेरिका का सम्पूर्ण प्रदेश इस आस्था से जुड़ा हुआ है। इनके अनुसार पवित्र हृदय का व्यक्ति अपने पिछले जन्म को याद कर सकता है। यह विचार आइरीक्वेस, अलोंकिंस, क्रीक्स, डेकोटास, बीनबेगोस, किओवास, होपीस, माहोहावीस आदि जातियों में भी पाया जाता है। चिप्पावेस लोग स्वप्न के द्वारा अगले और पिछले जन्मों का संकेत प्राप्त करते हैं। प्यूबलोसों का कहना है कि बच्चे मरने के पश्चात् उसी परिवार में पैदा होते हैं इसलिए उसके मृत शरीर को घर के आसपास ही दफनाया जाता है। जिससे जीव को अधिक भटकना न पड़े। कई इण्डियन आदिवासी अपने पितरों को आसपास मण्डराते हुए देखते हैं।

मेक्सिको और उत्तरी अमेरिका के मायास, केरीबस, पेरुवियन आदि इण्डियन आदिवासियों में भी पुनर्जन्म की मान्यता प्रचलित है। मेक्सिको के मूल निवासी मानव से इतर एवं निम्नयोनि पर विश्वास करते हैं। अच्छे व्यक्ति सुन्दर पक्षियों एवं उच्चतर पशुओं में एवं बुरे व्यक्ति निम्नतम पशु बनकर पैदा होते हैं। इंकास लोगों के अनुसार जिस मृत शरीर को पूर्णता ममी के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है, वह फिर से उस शरीर में वापस आकर जीवित हो उठता है। इसी कारण ममी की प्रथा प्रारम्भ हुई। ब्राजील के चिरीक्बेस तथा पोटागोनियास भी कुछ ऐसी ही आस्था रखते हैं।

आस्ट्रेलिया एवं ओसिएनीया के प्रायः सभी मूल निवासी पुनर्जन्म पर विश्वास करते हैं। मुख्यतः मध्य और उत्तरी क्षेत्र के आदिवासी इस विश्वास के प्रबल पक्षधर होते हैं। यूरोपीय लोगों से संघर्ष के बाद इनकी मान्यता में एक विचित्र परिवर्तन देखा गया। इनके अनुसार मरने के पश्चात जीव श्वेत शरीर धारण करता है। उत्तरी पैसीफीक समुद्र तट के निवासी ओकिनावा का मानना है कि जीव मृत्यु के 49 दिन बाद ही शरीर छोड़ता है। सात पीढ़ी याने लगभग 200 वर्षों तक एक जीव अपने विभिन्न रूपों में मनुष्य शरीर में पैदा होता है। ये लोग मानव से निम्नतम योनि में जन्म लेने के विरुद्ध हैं। बोर्नियो, सेलेबीस, पापुआन्स, मोरिस, तस्मानियन, मोरक्वन तथा ताहिनी,फिजी सालोमान द्वीप और न्यु केलेडोनिया के दक्षिण भाग के लोगों में पुनर्जन्म के प्रति आस्था होती है।

प्रायः सभी धर्मों में पुनर्जन्म की घटना पर आस्था विश्वास प्रचलित है। हैंस के अनुसार पुनर्जन्म हिन्दू धर्म एवं दर्शन का मुख्य आधार एवं विशेषण है। यह विशुद्धतः कर्म पर आधारित होता है। 84 कोटि योनि के पश्चात् प्राप्त मनुष्य जीवन सर्वश्रेष्ठ जीवन माना जाता है। इसे कर्म योनि कहते हैं क्योंकि इस जीवन में मनुष्य अपने समस्त कर्मों का क्षय कर जीवन मुक्त या ईश्वर कोटि का जीव बन सकता है। प्रत्येक आत्मा को यह अधिकार प्राप्त है। अच्छा एवं बुरा कार्य जीव को स्वर्ग एवं नर्क की ओर धकेलता है। गीता के अनुसार दोनों प्रकार के कर्मों से परे निष्काम कर्म प्रभु प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। यहाँ भावी जीवन का निर्धारण वर्तमान जीवन के कर्म एवं अंतिम उत्कट इच्छा के द्वारा होता है। बौद्ध केवल अंतिम इच्छा को ही महत्त्वपूर्ण मानते हैं।

बौद्ध पुनर्जन्म में गहन आस्था रखते हैं। मोक्ष के समान इनमें भी निर्वाण होता है जो जीव को संसार चक्र से मुक्त करता है। गलत कार्य का परिणाम पशु योनि है। तिब्बत के बौद्ध लामा को अवतार मानते हैं। मनुष्य किसी कार्य के बीच में ही मर जाता है तो वह उसे पूरा करने के लिए पुनः पैदा होता है। महायान में निर्वाण प्राप्त पुरुष को बोधिसत्व कहा जाता है। ये जन्म मरण से परे होते हैं। चीन के बौद्धों के अनुसार इच्छाओं एवं आकांक्षाओं से किया गया कर्म पुनर्जन्म का कारण होता है। जैन धर्म में भी मोक्ष की परिकल्पना की गयी है। वे कर्म से अधिक नैतिकता पर अधिक बल देते हैं। दिवंगत आत्मा नौ माह के बाद शिशु रूप में जन्म धारण करता है। यदि यह समय नौ माह से अधिक होता है तो वह अपने पिछले जन्म का स्मरण रख सकता है।

कुछ विशिष्ट संस्कृति जैसे इजिप्ट एवं बेबीलोन के ऐतिहासिक साक्ष्यों से भी पुनर्जन्म का बोध होता है। हेरोडेटस के अनुसार यहाँ पर आत्मा को अमर माना जाता है। मानव शरीर का उद्देश्य पापों का प्रायश्चित्त करने के लिए होता है, तत्पश्चात ही वह देवत्व प्राप्त करता है। मानव शरीर से निकलने के बाद जीव सभी प्रकार के वनस्पति एवं जीव योनियों से गुजरता है। इसके दौरान 3000 वर्ष के पश्चात् फिर वह मनुष्य एवं देवता बनता है। मनुष्य को निम्न जीवों में जाने से रोकने हेतु ही ममी प्रथा का प्रचलन हुआ।

ग्रीस का सिद्धान्त आर्फीक रहस्यवाद पर आधारित है। हेरोडेटस इसे इजिप्ट की देन मानता है। इनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति में देवत्व एवं आसुरी वृत्ति होती है। देवत्व कम एवं आसुरी तत्त्व (टाइटन) प्रबल एवं बलवान होता है। मनुष्य का उद्देश्य इस आसुरी शक्ति को बाहर निकालना होता है। मनुष्य शरीर उसे पुरस्कार स्वरूप एवं दण्ड के कारण मिलता है। इसे एलिसियन रहस्यवाद से प्रेरित माना जाता है। पिण्डार्स का कहना है कि यह भारतीय दर्शन से काफी सामंजस्य प्रदर्शित करता है। यहाँ पुनर्जन्म की घटना आठ साल पश्चात् होती है। हरक्यूलियस मानव का जन्म मानव शरीर में ही मानते हैं । पाइथागोरस निम्नयोनि के हिमायती हैं। ये मानव को पशु एवं वनस्पति की ओर अधोगामी यात्रा दर्शाते हैं। एम्पीडाकल के अनुसार मनुष्य देवता है। वह पुरुष और स्त्री के रूप में 30,000 बार जन्म लेता है।

प्लेटो ने पुनर्जन्म को नई अभिव्यक्ति दी है। उन्होंने इसे मेनो, फेड्स तथा रिपब्लिक के रूप में रेखाँकित किया है। जिसे अपने पिछले जीवन की स्मृति नहीं होती वे मेनो के अंतर्गत आते हैं। फेड्स में स्मरण होता भी है और नहीं भी। ‘द रिपब्लिक’ में मनुष्य को अपने जन्म-मरण का ज्ञान होता है। जीव अपने अनन्त आयामों का बोध करता है तथा आवश्यकतानुसार जीवन धारण करता है।

ईसाइयों में पूर्व पुनर्जन्म के प्रति आस्था कम दिखाई देती है। सीसरो जीवन को पाप का परिणाम कहता है। अपोलोनियस ने यह सिद्धान्त कश्मीर के आर्कास से प्राप्त किया था। प्लुटकि ने स्पष्ट किया है कि जब उच्चस्तरीय आत्माओं द्वारा गल्तियाँ होती हैं तो उसके प्रायश्चित्त के लिए उन्हें मानव योनि में आना पड़ता है। जुडेइज्म पुनर्जन्म पर कम विश्वास करते हैं। ओल्ड टेस्टामेंट में कहीं-कहीं आत्मा के पूर्व अस्तित्व का संकेत मिलता है। एजेन्स इसे स्वीकारता है। फेरीसीस के अनुसार मनुष्य या तो फिर से पैदा होता है या सदा के लिए समाप्त हो जाता है। यह अवधारणा 8 वीं शताब्दी में प्रचलित थी। परन्तु आठवीं शताब्दी के केरेट जेवेस इस पर विश्वास करते थे। ताहेव ने तो आदम को सेठ, नोआह, अब्राहम, मुसा आदि के रूप में आत्मिक विकास का क्रम माना है। यह सिद्धान्त केवल उच्चस्तरीय आत्माओं के लिए प्रतिपादित किया जाता है। न्यू टेस्टामेण्ट में भी पुनर्जन्म का उद्धरण मिलता है। मार्क, मैथ्यु, ल्युक आदि में इसका स्पष्ट संकेत प्राप्त होता है। कई चर्चों के फादर इसे स्वीकारते हैं। इसका सर्वोत्तम उदाहरण है जान का एलिजा के रूप में जन्म लेना।

इस्लाम इसे पूरी तरह से नकारता है। परन्तु इनके कुछ समुदाय एवं सम्प्रदाय आध्यात्मिक जन्म की व्याख्या करते हैं। भारत में बोरास सम्प्रदाय में पिंजरे की चिड़ियों को क्रय करके उन्हें उड़ा दिया जाता है। इनके पीछे इनकी मान्यता है कि इनमें उनके पूर्वजों की आत्मा निवास करती है। एकमात्र सूफी ही पुनर्जन्म पर विश्वास करते हैं। यह मुख्यतः सौराष्ट्र के पारसियों में अधिक देखा जाता है। इनके मतानुसार अमर आत्मा कुछ कालावधि के लिए उच्चलोक से निम्न लोक में जन्म धारण करने आती है। ये भी हिंदुओं की चौरासी लाख योनि को प्रतिपादित करते हैं, परन्तु इनमें संख्या का अन्तर है। सूफी जलालुद्दीन रुमी के अनुसार आत्मा खनिज पदार्थों से विकास करते हुए क्रमशः वनस्पति, जीव, मानव, देवता तथा उच्चतर अवस्था की ओर अग्रसर होती है। ड्रसेस समुदाय मृत्योपराँत शीघ्र ही जन्म लेने का समर्थन करते हैं। युद्ध, अकाल तथा दैवीय दुर्घटनाओं से मृत जीव तुरन्त पैदा होता है।

जर्मनी के गेटे के अनुसार मानव प्रकृति और ईश्वर के बीच की महत्त्वपूर्ण कड़ी है। चार्ल्स फरीयर और शोपेन हावर के अलावा श्वीडन बर्ग, विलियम ब्लैक, शीलर मेजिनी, हर्मन मेलविली, लिओटाल्सटॉय, पाल ग्रेजीन, आर्थरकानन डायल, गुस्ताव मेहलर आदि सभी विद्वानों ने पुनर्जन्म के अस्तित्त्व को स्वीकार किया है। आधुनिक मनीषी डेविड लायल जार्ज, हेनरीफार्ड, रुडयार्ड किपलिंग, जीन सिक्लस और जनरल पेटन सेमी ने पुनर्जन्म को मानव अस्तित्व का अभिन्न अंग माना है। पुनर्जन्म का अस्तित्व का प्रमाण तो असंदिग्ध है। इसलिए बुद्धिमत्ता इसी में है कि भावी जीवन के लिए वर्तमान जीवन के प्रत्येक कर्म को श्रेष्ठ और पवित्र बनाया जाए।


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