प्रेम साधना और उसकी परिणति

December 2002

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प्रेम आत्मा की अभिव्यक्ति है। इसे रत्नाकर सिन्धु की तरह समझा जा सकता है। जिस तरह गंगा, यमुना, कावेरी, ताप्ती, गोदावरी आदि सरिताएँ स्थल खण्डों में जब तक इधर-उधर भटकती हैं, तब तक उन्हें सरिताओं के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जाता है। पर जब ये सरित प्रवाह सिन्धु में समा जाते हैं। तब उनकी समूची शक्ति सामर्थ्य भी केन्द्रीभूत हो जाती है। अब उनका अस्तित्त्व रत्नाकर जैसा विशाल ही नहीं रत्नों का भण्डार भी हो जाता है। मनुष्य के गुण भी इन नदियों की तरह हैं। और इन सद्गुणों का पुञ्जीभूत रूप है प्रेम।

इसमें सारे गुण स्वतः ही समाये रहते हैं। अथवा यों कहा जाय कि यहाँ सारे गुण विलीन हो, निर्गुणत्व पा लेते हैं। इसी स्थिति को स्पष्ट करते हुए नारद भक्ति सूत्र में सः हि अनिर्वचनीयो प्रेमरुपः कहकर परमेश्वर को प्रेम रूप घोषित किया है। यह ही परम तत्त्व है। इसी का बोध होने में ज्ञान की सार्थकता है। इसी आशय को संत कबीर साहेब अपनी वाणी में कहते हैं- ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होय अर्थात् ढाई अक्षरों में निहित प्रेम के दुर्जेय तत्त्व के बोध को प्राप्त कर लेने में ही पाण्डित्य की सार्थकता है।

इसमें ऐसा कौन सा तत्त्व निहित है? जिसे जानने से सब कुछ जान लिया जाता है। सामान्य भाषा में तो सब यही कहते हैं कि अमुक को पत्नी से प्रेम है। उसे बच्चों से प्रेम है, माँ से प्रेम है आदि आदि बातें करते हैं। इस सब में क्या कोई दूसरा प्रेम है।

इस पर चिन्तन करने से ज्ञात होता है कि पत्नी, बच्चों या अन्य किसी संकीर्ण दायरे में पनपने वाला प्रेम, प्रेम नहीं मोह होता है। इस मोह और प्रेम में विरोधाभास जैसी स्थिति है। यदि प्रेम को काया कहा जाय तो मोह को छाया कहा जाना उचित होगा। दोनों में अन्तर भी वही होता है जो काया और छाया में है। एक सजीव होती है दूसरी निष्प्राण। छाया को देखकर सजीवता का भ्रम तो होना सम्भव है, पर उससे काया का प्रयोजन पूरा नहीं हो पाता।

प्रेम व मोह में एक अन्य अन्तर और है- प्रेम चेतन से होता है मोह जड़ से। पत्नी आदि से किया जाने वाला तथाकथित प्रेम उसके रूप लावण्यमय जड़ शरीर से होता है न कि आत्मा से, अतएव यह मोह ही है। इसकी जड़ की ओर उन्मुखता मात्र हाड़-माँस वाले शरीरधारियों तक ही सीमित नहीं रहती। लकड़ी-पत्थर-चूने के बने मकान, विभिन्न प्रकार के सामानों तक बढ़ जाती है। पर इसके विस्तार का क्षेत्र रहता जड़ ही है। जबकि प्रेम तत्त्व के जानकार महर्षि याज्ञवल्क्य ने बृहदारण्यक उपनिषद् में स्पष्ट किया है, पत्नी-पत्नी होने के कारण नहीं अपितु आत्मा के कारण प्रिय है, सन्तान, सन्तान के कारण नहीं, आत्मा के कारण प्रिय है। यह स्थिति गीता के शब्दों में यो मयि पश्चति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति के कारण है। सर्वत्र व्याप्त चैतन्य तत्त्व के कारण वह आत्मवत् सर्वभूतेषु की स्थिति में रहता है। मोह जहाँ विभेद उत्पन्न करता है, प्रेम वहीं अभेद की स्थिति पैदा करता है।

प्रेम का प्रारम्भ सम्भव है किसी एक व्यक्ति से हो, पर उस तक सीमित नहीं रह सकता। यदि यह सीमित रह जाता है, कुछ पाने की कामना रखता है, तो समझना चाहिए कि यह मोह है। इसमें तो पाने की नहीं देने की उमंग रहती है। प्रेमी की प्रसन्नता और हित कामना सन्निहित रहती है। मोह में स्वार्थपरता, संकीर्णता पनपती है। इसमें आदान-प्रदान नहीं उपयोग की अपेक्षा होती है। प्रेम वस्तुओं से जुड़कर सदुपयोग की, व्यक्तियों से जुड़कर उनके कल्याण की और विश्व से जुड़कर परमार्थ की बात सोचता है। मोह में व्यक्ति, पदार्थ संसार से किसी न किसी प्रकार की स्वार्थ सिद्धि की अभिलाषा रहती है। जिसके प्रति मोह रहता है, उसे अपनी इच्छानुसार चलाने की ललक रहती है। इसमें तनिक सा व्यवधान उत्पन्न होने पर खीज़ असंतोष का उद्वेग उमड़ता है। प्रेम में इस तरह की कोई बात नहीं।

इस का अंकुरण निकट परिकर से होता है। और विकसित, पल्लवित, पुष्पित होते हुए उसकी शाखाएँ, प्रशाखाएँ समस्त समाज-विश्व में फैल जाती हैं। निकट परिकर तो प्रेम साधना की पाठशाला है। यह परिकर-परिवार और पड़ोसी भी हो सकते हैं। इसमें उनकी प्रसन्नता और विकास की बात सोची जाती है। इसमें उठाए गए कष्ट में सन्तोष की अनुभूति होती है। यह आरम्भिक प्रशिक्षण है। पर जब अपने सगे-सम्बन्धियों की प्रसन्नता-समृद्धि के लिए उचित-अनुचित का ध्यान नहीं रहता, आदर्शों की बलि दे दी जाती है, तो वह प्रेम नहीं रहता, मोह बन जाता है। जिसे गोस्वामी जी ने- मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला कहकर सम्बोधित किया है। सचमुच यह स्वयं से जुड़े हुए व्यक्तियों दोनों के लिए हानिकारक है।

प्रेम तो गंगाजल की तरह पवित्र व निश्छल है, जिसे जहाँ भी डाला जाय, पवित्रता ही पैदा करेगा। उसमें आदर्शों की अविच्छिन्नता जुड़ी रहती है। विवेकशीलता, सहृदयता, पवित्रता, सदाशयता जैसे गुण इसमें समाए रहते हैं। प्रेमी, जिससे भी प्रेम करता है, उसमें इन गुणों के अभिवर्धन के लिए सतत् प्रयत्नशील रहता है।

भाव सम्वेदनाएँ नित्य निरन्तर उच्चस्तरीय आदर्शों के प्रति समर्पित रहें। यही प्रेम है। इसे सीमा की संकीर्ण दीवारें बद्ध नहीं कर सकती। यह तो सूर्य की तरह है, जो उदय काल के समय तो मात्र पूर्व को ही प्रकाशित करता है। पर मध्याह्न में इसके प्रकाश से समस्त दिशाएँ प्रकाशित हो जाती हैं। इसकी भी यही विशेषता है, उसका आरम्भ भले ही निकट परिकर से हो, पर नित्य निरन्तर अभिवृद्धि करता हुआ, समाज, राष्ट्र और विश्व में बढ़ता जाता है। जिसके अन्तराल में प्रेम प्रस्फुटित हुआ है वह व्यक्ति देश, धर्म, संस्कृति और मानवजाति की सेवा साधना में निरत हो जाता है।

जीवन के उत्कृष्टतम रूप की अभिव्यक्ति इसी के माध्यम से होती है। यदि इसे हटा दें तो फिर मानव जीवन की कोई विशेषता नहीं रह जाती। संत कबीर के शब्दों में- जा घट प्रेम न संचरै सा घट जान मसान सचमुच उसका हृदय श्मशान की तरह होता है, जिसमें विभिन्न दुर्गुण, चिन्ता, सन्ताप, असन्तोष के भूत मंडराया करते हैं। ऐसा जीवन धरती के लिए भार स्वरूप ही होता है।

प्रेम की ज्योति- सामान्य दीपक की ज्योति नहीं है, जिसमें अनुताप हो; अपितु, यह दिव्य चिन्ता-मणि की शीतल व स्निग्ध ज्योति है। जिससे शरीर, मन, बुद्धि, अन्तःकरण प्रकाशित होते हैं। सारे सन्ताप शान्त होते हैं। ऐसे व्यक्ति के सान्निध्य में जो भी आते हैं, उन्हें भी निर्मलता, शीतलता का अनुभव होता है।

इसकी परिपूर्णता परमेश्वर में है। यहीं इसके यथार्थ तत्त्वदर्शन का बोध होता है। इस स्थिति में तो प्रेम का सरित प्रवाह नहीं अपितु महासागर लहराता है। चैतन्य महाप्रभु ने ऐसी ही दिव्य स्थिति पाई थी। उनका प्रेम इसी कोटि का था। तभी जघाई-मघाई जैसे कलुषित क्रूर डाकू सन्त बन गए। भगवान् तथागत के हृदय से उमड़ रहे प्रेम प्रवाह ने अंगुलीमाल जैसे दस्यु को भी भिक्षु बना दिया। इस स्थिति को पाने पर सर्वत्र सत्यं शिवं सुंदरम् का ही दर्शन होता है। उसकी सारी शक्तियाँ विराट् ब्रह्म के स्थूल रूप- विश्व ब्रह्मांड की सेवा में नियोजित होती हैं।

परम सत्ता के प्रति इस प्रकार की घनिष्ठता से स्वतः ही वह क्षुद्र से महान्, लघु से विभु, पुरुष से पुरुषोत्तम बन जाता है। प्रेम की इस दिव्यता के जीवन में अवतरित होने पर उदात्त भावनाएँ उमड़ने लगती हैं। इस स्थिति में अन्तराल से सत्-चित्-आनन्द की त्रिवेणी बहती है। जिसमें अवगाहन से सर्वत्र आत्म सत्ता की दिव्यानुभूति प्राप्त होती है।

‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’ ‘वासुदेवः सर्वंमिति’- वेदान्त में वर्णित यही अद्वैत स्थिति है। जिसमें गीता में बताई गई स्थिति के अनुसार सर्वभूतस्थ महात्मानम् , सर्वभूतानि चात्मनि ही दिखाई देता है। इस चरम स्थिति को पाना ही मनुष्य जीवन का चरम ध्येय है। यहाँ तक पहुँचने के लिए मनुष्य को मोह रूपी छाया को छोड़ना तथा प्रेम की जीवन्त काया को पकड़ना होगा। आत्मीयता के विस्तार के लिए सतत् प्रयत्नशील रहने से योगिजन की दुर्लभ स्थिति सहजता से प्राप्त हो सकेगी।


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