प्रतिध्वनि का दर्शन

December 2002

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सूफी फकीर जुन्नैद एक बार पहाड़ों की ओर गए। उनके कुछ शिष्य साथ में थे। पहाड़ों पर छाए नैसर्गिक प्राकृतिक सौंदर्य ने सभी के मन को अनूठे उल्लास से संवेदित कर दिया। हरी घास के बीच सिर उठाए खड़े छोटे-बड़े पेड़ हवाओं के साथ बड़ी मस्ती में झूम रहे थे। साँझ के सूरज की रश्मियाँ पेड़ों की डालों और पत्तियों से कुछ इस तरह से गले मिल रही थी, जैसे वे उनसे चलते-चलते विदाई ले रही हों। समाँ अनोखा था। सभी शिष्य अपने सद्गुरु को घेरे खड़े थे। लेकिन फकीर जुन्नैद उन सभी से बेखबर किसी दूसरी ही दुनिया में खोए थे।

तभी शिष्यों में से किसी एक को खेल सूझा। उसने अपने मुख से कुत्ते के भौंकने की आवाज निकाली। अगले ही क्षण जैसे अचरज हुआ, पहाड़ में कुत्ते के भौंकने की असंख्य ध्वनियाँ उभरी। दरअसल यह पहाड़ों में गूँजने वाली प्रतिध्वनि थी। जो कुत्ते की आवाज निकालने की प्रतिक्रिया स्वरूप उभरी थी। यह खेल एक दूसरे शिष्य को भी अच्छा लगा। उसने अपने गले से कोयल की सुरीली आवाज निकाली। पहाड़ों में अनोखी रीति से कुहू-कुहू की मधुर ध्वनि गूँज उठी।

शिष्यों का यह खेल देखकर फकीर जुन्नैद मुस्करा उठे। क्षण भर रुककर वह कुछ सोचते हुए बोले- बच्चों, संसार की रीति भी यही है। उसकी ओर हम जो भी फेंकते हैं, हम पर वही किसी न किसी तरह से वापस लौट आता है। फूल-फूल ले आते हैं और काँटे सब ओर काँटे बिखरा देते हैं। प्रेमपूर्ण हृदय के लिए सारा जगत् प्रेम की वर्षा करने लगता है और घृणा से भरे व्यक्ति के लिए सब तरफ पीड़ादायी लपटें जलने लगती हैं।

जुन्नैद की बातों ने सभी शिष्यों के मनों को एक बारगी खींच लिया। खेल में लगी उनकी मानसिक वृत्तियाँ अपने सद्गुरु की बातों की ओर बरबस आकर्षित हो गयीं। सभी की सोच का रुख बदल गया। इतनी देर में प्रकृति भी अपना रुख बदलने लगी थी। साँझ के आकर्षण में बंधकर सूरज कहीं पश्चिम दिशा में छुप गया था। अब कहीं किसी तरफ उसके दर्शन नहीं हो रहे थे। स्वयं संध्या ने भी निशा के परिधान पहन लिए थे। सितारों और चाँद के सुयोग-संयोग से उसका सौंदर्य शतगुणित हो गया था। चाँद से बरसती चाँदनी ने सारे वातावरण में एक अलौकिक मोहकता भर दी थी।

इस परिवर्तित वातावरण में भी शिष्यगण अपने सद्गुरु को घेर कर बैठ गए। सभी के मुख पर जिज्ञासा की सघन आभा झलक रही थी। फकीर जुन्नैद भी अपने शिष्यों की भावदशा से वाकिफ थे। आखिर शास्त्रवचन एवं सत्पुरुष भी तो सद्गुरु को इसी रूप में पहचानने पर बल देते हैं। उनका कहना है कि सद्गुरु वही है जो शिष्यों की अंतर्दशा पहचाने। उनकी मनोभूमि को उर्वर बनाकर उसमें ज्ञान के बीज बोए। इन बीजों के अंकुरण के उचित व्यवस्था जुटाए। उन्हें अपने तप-साधना का खाद-पानी दे।

इसी उद्देश्य से जुन्नैद उन्हें एक बोध कथा सुनाने लगे। सभी शिष्य अपने सद्गुरु के वचनों को सुनने के लिए उत्सुक थे। जुन्नैद उनसे कह रहे थे। एक बार एक छोटा लड़का पहली दफा अपने गाँव के पास वाले जंगल में गया। वह एकान्त से काफी ज्यादा भयभीत हो रहा था। जंगल में उभरने वाली आहटें और आवाजें उसे बार-बार चौंका देती थी। अभी उसने कुछ ही कदम आगे बढ़ाए थे कि उसे झाड़ियों में कुछ सरसराहट जैसी आवाज सुनायी पड़ी। उसने सोचा जरूर कोई व्यक्ति मेरा पीछा कर रहा है। अपनी इस आशंका से भयभीत होकर वह जोर से चिल्लाया- कौन है? उसकी आवाज जंगल के पास वाली पहाड़ियों से टकराई और चारों ओर जोरदार प्रतिध्वनि गूँज उठी- कौन है?

अब तो उसे वहाँ पर किसी के छिपे होने का पूरा-पूरा यकीन हो गया। डरा हुआ तो वह पहले से ही था। अब तो उसके हाथ-पाँव काँपने लगे। दिल की धड़कने भी एक बारगी बढ़ गयीं। लेकिन अपने को हिम्मत देने के लिए उसने अपनी कल्पनाओं के अनुसार छिपे हुए आदमी से कहा- डरपोक कहीं का। जवाब में प्रतिध्वनि हुई- डरपोक कहीं का। इस प्रतिध्वनि को सुनकर वह कुछ ज्यादा ही डर गया। फिर भी उसने आखिरी बार हिम्मत करके शक्ति जुटाई और चिल्लाया- मैं तुम्हें मार डालूँगा। उत्तर में पहाड़ और जंगल भी जोरों से चिल्लाए- मैं तुम्हें मार डालूँगा।

अब तो उसकी रही-सही हिम्मत भी जवाब दे गयी। वह लड़का उलटे पाँव सिर पर पैर रखकर अपने घर की ओर भागा। उसके खुद के पैरों की प्रतिध्वनि उसे ऐसी लगती थी जैसे वह आदमी उसका पीछा कर रहा है। लेकिन अब उसमें न तो पीछे मुड़ कर देखने का साहस था और न ही लौटने की थोड़ी सी भी हिम्मत बाकी बची थी। भागते-भागते वह जैसे-तैसे अपने घर पर पहुँचा और हाँफता-हाँफता घर के दरवाजे पर गिरकर बेहोश हो गया। उसकी माँ ने उसके सिर को अपनी गोद में रखा। उसके मुँह पर पानी के छींटे डाले और आँचल से हवा की। जैसे-तैसे उसको होश आया।

होश में आने पर उसने सारी बातें अपनी माँ को बतायीं। सारा किस्सा सुनकर माँ बहुत जोरों से हँसी और बोली- अरे बस इतनी सी बात। इसमें इतना डरते क्यों हो? कल तुम फिर से वहीं जाना और जो मैं बताऊँ, वह तुम उस रहस्यमय व्यक्ति से कहना। मैं तो उससे भली-भाँति परिचित हूँ। वह तो बहुत ही भला और प्यारा आदमी है। माँ की बात मानकर वह लड़का फिर से उसी जंगल गया। अबकी बार उसने जाकर कहा- मेरे प्यारे मित्र! जवाब में प्रतिध्वनि हुई- मेरे प्यारे मित्र। इस मैत्री पूर्ण ध्वनि ने उसे आश्वस्त किया। उसकी हिम्मत और शक्ति बढ़ गयी। अबकी बार उसने कहा- मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ। उत्तर में पहाड़ों, जंगलों ने, सभी ने उसी मिठास के साथ दुहराया- मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ।

इस कथा को सुनाते हुए जुन्नैद ने अपने शिष्यों से कहा- यह प्रतिध्वनि की कथा ही तो अपने जीवन की कथा है। अरे हम सभी भी इस संसार रूपी जंगल में उस छोटे से लड़के की तरह अजनबी हैं। जो अपनी ही प्रतिध्वनियों को सुन-सुनकर भयभीत होते रहते हैं। हमारी अपनी वास्तविक स्थिति यही है।

यह कहते हुए जुन्नैद थोड़ा गम्भीर हुए और शिष्यों की ओर देखते हुए बोले- मेरे बच्चों, यह याद रखना कि मैं मार डालूँगा, यह प्रतिध्वनि है तो मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ यह भी प्रतिध्वनि है। पहली प्रतिध्वनि से छूटकर दूसरी प्रतिध्वनि से आसक्त हो जाना बचपने से छुटकारा नहीं है। ज्यादातर लोग पहली प्रतिध्वनि से घबराते हैं- तो दूसरी प्रतिध्वनि की आसक्ति से उलझकर मोहग्रस्त हो जाते हैं। हालाँकि बुनियादी तौर पर इन दोनों में कोई फर्क नहीं है। बचकानापन दोनों में ही है। जो ज्ञानी है- वह दोनों के भ्रमों से मुक्त होकर जीते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि जिन्दगी की सच्चाई प्रतिध्वनि में नहीं, बल्कि स्वयं अपने आप में अन्तर्निहित है।


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