सृष्टि का ज्ञान-विज्ञान - वेद का विज्ञान : प्रतिकात्मक ज्ञान

December 2002

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विज्ञान की तरह वैदिक विवेचना भी प्रतीकात्मक है। इन अर्थों में वेद गूढ़ आन्तरिक प्रतीक का ग्रंथ है। सम्पूर्ण वेद की परिकल्पना रूपकों एवं प्रतीकों में ही की गई है। वेद का यथार्थ अर्थ गुह्य, गोपनीय एवं प्रतीकात्मक होने के कारण वह अनेक उपमाओं तथा साँकेतिक शब्दों द्वारा आवृत्त है। यह आवरण भले ही साधारण मनुष्यों के लिए अभेद्य हो, परन्तु वैदिक ज्ञान के साधकों के लिए झीना और सब अंगों का प्रकाशक वस्तु मात्र है। ऋषि या कवि जब इन प्रतीकों और अलंकारों का आवरण उठा देते हैं, तब प्रतीकों का स्पष्ट स्वरूप उभरकर आता है।

सृष्टि संरचना के वैदिक प्रतीक भी कुछ ऐसे ही हैं। यह वैदिक प्रतीकवाद ऋषियों की प्रज्ञा से निकला है। इसके गूढ़तम अर्थ हैं। सृष्टि संरचना के वेदों के प्रतीकवाद को दृष्टिगत करके ही वेदमंत्रों में निहित सृष्टि संरचना का ठीक-ठीक अर्थ किया जा सकता है। वैदिक सृष्टि संरचना के प्रतीक के रूप में कुछ प्रतीकों के स्वरूप की व्याख्या इस तरह मिलती है।

भृगु ज्वालाओं में उत्पन्न हुआ था। जो त्रिकाल शक्ति रूप रहता है वह भृगु है। महाभारत के अनुसार जो ज्वाला सहित उत्पन्न हुआ वह भृगु है। यह सृष्टि रचना में अग्नि से उत्पन्न होने पर भी अज्वलनशील है। यह सदैव ज्योतिर्मय शक्ति तत्त्व का द्योतक है। यह एक ऐसा तत्त्व है जो उत्पत्ति के समय एवं उसके पश्चात् भी अग्नि रूप में रहता है। यह त्रिकाल अग्नि वर्ण है। इसे ईश्वर द्वारा त्रिकाल नियंत्रित भौतिक तत्त्व भी कहा जा सकता है।

ऋग्वेद में ऊर्जा के त्रिकाल संरक्षित गतिशील सातत्य प्रवाह की परिकल्पना है। प्रलयकाल में भी ऊर्जा एकमात्र ईश्वरीय नियंत्रण में सुरक्षित रहती है, जिसका प्रयोग आगामी सृष्टिकाल के आरम्भ में ईश्वर द्वारा आदि संवेग उत्पन्न हेतु करने किया जाता है। अतः भृगु प्रलयकाल में संरक्षित रखी गयी शक्ति का प्रतीक है। दी यूनीवर्स स्टोरी में ब्रायन एबीम और थामस बेरी ने इसी ऊर्जा का संकेत किया है। संभवतः यही ऋग्वेद का भृगु है।

ऋग्वेद में इसकी विस्तृत विवेचना हुई है। मूल भौतिक शक्ति के दो भाग होते हैं। एक भाग त्रिकाल ईश्वरीय नियंत्रण में रहता है। इसी एक भाग का वैदिक नाम भृगु है। दूसरे अनियंत्रित भाग को वृत्र या शम्बर कहते हैं। क्रियात्मक मूल तत्त्व जब तक ईश्वरीय सृष्टि विकास योजना के अंतर्गत नहीं आता तब तक अपने आप वह सृष्टि निर्माण की दिशा में अक्षम रहता है। इस स्थिति में संलग्न द्रव्य अनन्तकाल तक भी सृष्टि सृजन नहीं कर सकता। इस स्थिति को वेद ने वृत्र प्रतीक के रूप में दर्शाया है। शम्बर आपः में स्वनिर्मित चक्रीय परिवर्तन रूपी अनेकानेक भंवरों के समग्र रूप का प्रतीक है। प्रकृति का यह दूसरा भाग प्रलयकाल में अपने स्वाभाविक स्वतंत्र रूप में होता है। इस भाग में सृष्टि उत्पादन सामर्थ्य का बीजारोपण करने के लिए भृगु (नियंत्रित) भाग से संवेग आरोपित किया जाता है। जगत् का उद्भव इसी का परिणाम है।

आदि सृष्टि काल में सुरक्षित ऊर्जा (भृगु) से प्रकृति के दूसरे भाग पर प्रक्षेपण किया जाता है। इसे वैदिक भाषा में वज्र संचालन के रूप में व्यक्त किया जाता है। इस क्रिया से बिग बैंग (महाग्निकाण्ड) होता है, जिसमें महाशक्ति का उद्भव होता है। इसकी परिणति महाप्रसार के रूप में होती है। ली स्मोलीन ने अपने शोधग्रंथ ‘द लाइफ आफ द काँस्मास’ में इसे विश्व का प्रसार कहा है। इस प्रकार वेदों में सुरक्षित अग्नि तत्त्व को भृगु कहा गया है।

भृगुओं से अग्नि तत्त्व को मातरिश्वा ने लिया। अग्निकाण्ड (बिग बैंग) से प्रज्वलित तरल चारों ओर प्रसारित हुआ। वेद में इस घटना का नाम मातरिश्वा है। यही विश्व का प्रसार है। जान डी बैरो ने भी द आर्टफुल यूनीवर्स में इसे प्रसारित विश्व के नाम से संकेत किया है। बिग बैंग से जो आदि संवेग उद्भूत होता है, उससे समस्त प्रज्वलित द्रव्यमण्डल तीव्र गति से चारों ओर प्रसारित होता है। पॉल डेविस के अनुसार आदिकाल में प्रदत्त संवेग से आज भी गैलेक्सियाँ परस्पर दूर जा रही हैं। इसे विश्व के प्रसारित होने का सिद्धान्त कहते हैं।

मातरिश्वा अग्निकाण्ड से उत्पन्न महाशक्ति से प्रज्वलित द्रव्य के तीव्र गति से चारों ओर प्रसार का द्योतक है। मातरिश्वा प्रवाह की उत्पत्ति आदिकाल में हुई थी। ऋग्वैदिक ऋचा (1/143/2) में इसका संकेत मिलता है। आदिकाल में महामण्डलाकार प्रज्वलित अग्निकाण्ड की परिणति मातरिश्वा के रूप में हुई जिसमें प्रज्वलित द्रव्य चारों ओर गतिमान हुआ। इसी बिखरे हुए एवं तीव्र गति से प्रसारित हुए द्रव्य से कालान्तर में गैलेक्सियों, नक्षत्र मण्डलों व प्रकाशित-अप्रकाशित लोकों की उत्पत्ति हुई।

मूल उत्पादन कारण ईश्वरीय कामना के परिणाम स्वरूप परिवर्तित व विकसित हुआ। इसी से सृष्टि उत्पत्ति की स्थिति बनी। बाद में भौतिक द्रव्य प्रजाओं और प्रकृति के विकारों को उत्पन्न करने में भी समर्थ हुआ। इसे ही प्रजापति कहा गया है। यही प्रजापति वेदों में अथर्वा नाम से अलंकृत हुआ है। गोपथ ब्राह्मण के अनुसार जब प्रकृति में ईश्वर की ईक्षण शक्ति के अनुरूप सृष्टि उत्पत्ति हेतु पृष्ठभूमि तैयार हो जाती है, तब उस प्राकृतिक स्वरूप को अथर्वा कहते हैं।

ऋग्वेद में उर्वशी को सर्वव्यापी प्रकृति की ओर इंगित किया गया है। उर्वशी को अप्सरा कहा गया है। उर्वशी एवं अप्सरा भौतिक तत्त्वों के वैदिक प्रतीक हैं। अप् क्रियात्मक मूल तत्त्व है एवं अप्सरा रूप का पर्याय है। उर्वशी विशाल क्षेत्र में नियंत्रण करने वाली एवं विस्तृत क्षेत्र को प्रभावित करने वाली है। यह प्रकृति का क्रियात्मक रूप आपः या माया है। वैदिक मंत्रों से पुरुरवा जीवात्मा के रूप में वर्णित है।

मित्र-वरुण के वीर्य के संयुक्त रूप से उर्वशी के गर्भ में स्थापना से वशिष्ठ की उत्पत्ति बतायी गयी है। मित्र-वरुण मौलिक कण हैं, जो विपरीत चार्ज वहन करते हैं। यदि वरुण धनात्मक आवेश कणों का समुच्चय है तो मित्र ऋणात्मक आवेश का समुच्चय है। ये दोनों मिलकर आधुनिक विज्ञान का द्रव्यभाग बनाते हैं। मित्र-वरुण के अंशभूत कणों के संयोग से एक उदासीन (न्यूट्रॉन) कण की उत्पत्ति होती है। यह न्यूक्लियस का प्रमुख भाग है। इस नाभिकीय द्रव्य का नाम वशिष्ठ है। इस प्रकार वशिष्ठ विज्ञान का न्यूट्रॉन कण है। अतः वशिष्ठ व्यक्ति नहीं प्रकृति द्रव्य है।

ऋग्वैदिक ऋचा में वशिष्ठ (न्यूट्रॉन) की रचना का संकेत है। ऋषि शब्द का प्रयोग भी भौतिक शक्ति के लिए हुआ है। अथर्ववेद में ‘सप्त ऋषयः’ पद भौतिक शक्तियों के लिए प्रयुक्त हुआ है। सप्तवर्गी परमाणुओं को यहाँ सप्तऋषि कहा गया है। ऋग्वेद के अनुसार भी ऋषि वशिष्ठ भौतिक सत्ताएँ हैं। यह मूल भौतिक तत्त्व के नाभिक का परिणाम है।

द्रव्य ब्रह्म की अंशभूत तेजस् शक्ति है, जो क्रमशः आपः, बृहती आपः व अपाँ नपात् में रूपांतरित होती हुई सूर्य रूप में उद्भूत होती है। आपः मूल भौतिक कणों की उद्वेलित क्रियाशील अवस्था का समग्र रूप का प्रतीक है। क्रियात्मक होते ही त्रिवर्गी शक्ति की परस्पर क्रिया एवं संयोग के परिणामस्वरूप यौगिकों की उत्पत्ति हुई। प्रकृति के इस विस्तृत रूप को बृहती आपः कहा गया है। यह प्लाज्मा अवस्था के सदृश्य है। अपाँ नपात् नाभिकीय अवस्था का द्योतक है। इस प्रकार द्रप्सः मूल प्रकृति का शक्त्यंश है, जिसका वशिष्ठ की उत्पत्ति से निकट सम्बन्ध है।

वसु मूल तत्त्वों से बने यौगिकों की संज्ञा है और महावसु मूल तत्त्वों का प्रतीक है। ऋग्वेद में इन्द्र और वरुण को महावसु बताया गया है। मंत्रानुसार इन्द्र सम्राट है तथा वरुण स्वराट। ईश्वर सर्वनियंत्रक सर्वोच्च सत्ता है तथा वरुण अपने सीमित क्षेत्र भौतिक सत्तात्मक जगत् का राजा है। वरुण महावसु है अर्थात् तीनों मित्र, वरुण, अर्यमन् महावसु हैं। इन्द्र सृष्टि का निमित्त कारण अर्थात् रचयिता ईश्वर वाचक है तथा मित्र, वरुण, अर्यमा संयुक्त रूप से द्राव्यिक कारण के वाचक हैं। इस प्रकार महावसु मूल सत्तात्मक तत्त्व हैं जो वसु के कारण हैं, तथा वसु, महावसुओं के यौगिक हैं।

मित्र-वरुण के अंशभूत कणों के संयोग से जो प्रथम उदासीन कण बनता है, उसका ऋग्वैदिक नाम वसिष्ठ है। इस प्रथम यौगिक की रचना में स्थायित्व लाने के लिए एक और कण भाग लेता है, उस कण को ऋग्वेद में अगस्त्य कहा गया है। अगस्त्य मित्र-वरुण का अंश नहीं है। अतः यह अर्यमा उदासीन कणों का समूह है। इस प्रकार अगस्त्य भी उदासीन कण है। प्रोट्रॉन तथा इलेक्ट्रान संयोग करके न्यूट्रॉन बनाये हैं परन्तु इस न्यूट्रॉन रचना में एक उदासीन कण एण्टी इलेक्ट्रान न्यूट्रीनो भाग लेता है। इस संदर्भ में अगस्त्य एण्टी इलेक्ट्रान न्यूट्रीनो है। हेंज आर पेजल्स ने ‘द कास्मीक कोड’ में इस कण का इसी प्रकार उल्लेख किया है। ऋग्वेद के सोम को विज्ञान की विकिरण ऊर्जा कहा जा सकता है। प्रकृति अपने आपको दो रूपों में व्यक्त करती है। प्रकृति का द्रव्य भाग मित्र-वरुण में निहित है।

अर्यमा प्रकृति का विकिरण भाग है। सृष्टि में नियोजित होने के उपरान्त विकिरण की संज्ञा सोम है। ऋग्वेदानुसार सोम कण (फोटान) मूल तत्त्वों के साथ पकाये गये। उस उच्च तापमान पर विकिरण तीव्रता के साथ क्रियाशील हुआ। आदिकाल में मेटर व विकिरण का मंथन हुआ। मेटर निष्क्रिय थे। विकिरण (सोम) ने इन्हें सक्रिय किया। आदिकाल में सोम विभक्त होकर कण-प्रतिकण के रूप में विस्तार पाया और तब सूर्यों के समान प्रज्वलित सहस्रों कणों का समग्र पिण्ड उत्पन्न हुआ। इसे ही बिग बैंग कहते हैं। सोम समग्र गुरुत्वाकर्षण का कारण है। इसी कारण सोम (विकिरण) पर आश्रित हो नक्षत्र कण आकाश में अपनी-अपनी कक्षाओं में भ्रमण करते हैं। सोम आकाश में लोकों के संतुलन की आधारभूत ऊर्जा (विकिरण) है।

ऋभु चार प्रकार के आकर्षण के प्रतीक हैं। ऋग्वेद के अनुसार ऋभुओं ने जब यह जाना कि यह अग्नि ईश्वरीय संदेश लाया है तब उन्होंने उसे ग्रहण किया। अग्नि ने ऋभुओं से कहा एक ही मूल तत्त्व को चार प्रकार से संयुक्त करो। मूल तत्त्व के चार प्रकार से संगति करने से यौगिकों की उत्पत्ति होती है, जो देव संज्ञा से विभूषित हैं।

ऋभु आकाशस्थ मूल तत्त्व में कार्यरत शक्ति हैं। इसका कार्य क्रियाहीन तत्त्वों को क्रियाशील करना तथा नित्य तत्त्वों एवं कणों में विद्यमान शक्ति को प्रकट करना हैं। ऋभु मूल कणों को परस्पर संयुक्त करके आकर्षण के नियमानुसार यौगिक बनाने वाला बल है। ऋभु शक्ति से यौगिक रचना होती है। रासायनिक जगत् की उत्पत्ति ऋभु शक्ति के कारण हुई है। यह लोकों को चारों ओर से आच्छादित करके गति करती है। यह शक्ति घटकों के मध्य आकर्षण का संचार कर उन घटकों को आबद्ध रखती है। ऋभु शक्ति मौलिक कणों के मध्य आकर्षण करने वाला स्वाभाविक गुण है। यह बल को उत्पन्न करने वाली प्राकृतिक स्थिति है।

मरुत आकाश में व्याप्त शक्ति है जिसका कार्य ऋभुओं को पाना अर्थात् बल का संतुलन करना है। मरुत शक्ति विद्युत् बल एवं गुरुत्वाकर्षण बल से सम्बन्धित है। यह न केवल विद्युत् बल का प्रतिनिधित्व करती है वरन् यह गुरुत्वाकर्षण बल का भी नियमन करती है। चार बलों में से इन दो बलों का प्रभाव क्षेत्र असीम एवं व्यापक है। मरुत व्यापक बल का कार्य करते हैं। ये अनेक प्रकार के बलों का निरन्तर संरक्षण करते हैं। इनकी बल रेखाएँ चक्राकार गति करती हैं। इनका बल अखण्ड है। मरुत् वृहत गुरुत्वाकर्षण बल है, जो लोकों को थामता है और सृष्टि रथ संचालित करता है।

सृष्टि संरचना का यह वैदिक प्रतीकात्मक ज्ञान वैदिक सूक्तों में मणि-मुक्तकों की तरह बिखरा हुआ है। ऋग्वेद के कतिपय सूक्त तो इसको बड़ी ही विशिष्ट रीति से निरूपित करते हैं। विज्ञान की सामयिक विशिष्टताओं को आधुनिक युग के महान् वैज्ञानिकों ने भी बड़े ही प्रशंसित स्वर में स्वीकार किया है। उनकी शोध अनुसंधान की प्रवृत्ति एवं उससे प्राप्त निष्कर्षों से यह तत्त्व लगातार प्रभासित हो रहा है कि वैदिक ऋषि अध्यात्मवेत्ता होने के साथ महावैज्ञानिक भी थे। जिन्होंने प्रतीकों के माध्यम से दुर्लभ सृष्टि विद्या को प्रतीकों के रूप में अपने मंत्रगान में स्वरित किया।


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