बच्चे की प्राण रक्षा (Kahani)

December 2002

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एक राहगीर एक जंगल से गुजर रहा था। शाम हो चली थी। पशु पक्षी अपने घरों को लौट रहे थे। सहसा उसने देखा, एक शशक शावक किसी अज्ञात भय से पास के झुरमुट में आ छिपा। शावक बड़ा लुभावना था। राहगीर के मन में विचार उठने लगा, क्यों न इसे मैं घर ले चलूँ। दूसरे ही क्षण उसने देखा, एक अन्य शावक रास्ते के दूसरी ओर भागा जा रहा है। अगले ही पल उसे एक गीदड़ ने धर दबोचा।

राहगीर असमंजस में पड़ गया। वह झाड़ी में छिपे शावक को पकड़े या दूसरे की गीदड़ से रक्षा करे। एक क्षण में ही यह निर्णय लेना था। पल की भी देरी होती, तो शावक की जान चली जाती।

तभी आत्मा की आवाज उभरी, कर्तव्य धर्म सबसे बड़ा होता है। संकटकालीन घड़ी में किसी की जीवन रक्षा व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षा से बड़ी है। बुद्धि और समझदारी ने भी इसका समर्थन किया। फिर क्या था, छिपे शावक का मोह त्याग वह गीदड़ के पीछे भागा और खतरे में पड़े खरहे के बच्चे की प्राण रक्षा की।


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