स्वर्णिम अक्षरों में (Kahani)

December 2002

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जस्टिम महादेव गोविंद रानाडे रेल का सफर कर रहे थे। गाड़ी देर तक खड़ी होती थी, सो वे नीचे उतरकर एक मित्र से बाते करने लगे। इतने में दो गोरे आए और रानाडे का सामान प्लेटफार्म पर फेंककर, सीट का कब्जा कर लिया।

रानाडे ने यह अनीति देखी, तो रेलवे अधिकारियों तथा पुलिस को तुरंत बुला लिया। प्रधान न्यायाधीश की सीट, इस तरह हथियाने के लिए गोरों की भर्त्सना हुई और वह दुम दबाकर भाग गए। सज्जनता अपनी जगह है, किंतु अनीति से जूझने हेतु पराक्रम का माद्दा भी अंदर होना चाहिए।

कुमारजीव के पिता बिहार प्राँत में एक रियासत के दीवान थे। उस कार्य में अनीति बरतनी पड़ती थी, उससे खिन्न होकर उनने नौकरी त्याग दी और धर्म-साधना में लग गए। उनकी माता ने भी बौद्ध भिक्षुणी के रूप में पति का अनुकरण किया।

बालक कुमारजीव जब थोड़ा समर्थ हुआ, तक कश्मीर के एक विद्यालय में संस्कृत, पाली तथा बौद्ध धर्म का अध्ययन किया। इसके उपराँत वे चीन में धर्मप्रचार के लिए चले गए। विदेशी जासूस समझकर उन्हें गिरफ्तार किया गया, पर वास्तविकता प्रकट होने पर वे छोड़ दिए गए।

कुमारजीव ने चीन में बौद्ध धर्म का प्रचार करने का निश्चय किया। उनके तपस्वी जीवन से कई सामंत प्रभावित हुए और उनकी सहायता से वे चीनी भाषा में बौद्ध धर्म के ग्रंथों का अनुवाद एवं प्रचार करने में समर्थ हुए।

चीन में उनने कितने ही बौद्ध विहार और मठ स्थापित किए। हजारों अन्यायी बने और उन्हें उस देश के जनसमुदाय को बौद्ध बनाने में भारी सफलता मिली।

कुमारजीव चीन में ही स्वर्गवासी हुए। जीवनपर्यंत अपने लक्ष्य के अतिरिक्त और किसी ओर ध्यान नहीं दिया। कर्त्तव्य-धर्म निबाहते हुए देश से हजारों मील दूर वे आजीवन रहे, इतिहास में अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गए।


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